shabd-logo

खंजन नयन

25 जुलाई 2022

37 बार देखा गया 37

वृन्दावन से लगभग दो कोंस पहले ही पानीगांव के पास वाले किनारे पर खड़े चार-छह लोगों ने सुरीर से आती हुई नाव को हाथ हिला-हिलाकर अपने पास बुला लिया : 

‘‘मथुरा मती जइयों। आज खून की मल्हारें गाई जा रही हैं वांपे।’’

सुनकर नाव पर बैठी सवारियां सन्न रह गईं। उन्नीस-बीस जने थे; तीन को वृन्दावन उतरना था, बाकी सभी मथुरा जा रहे थे। सभी के होश-हवास सूली पर टंग गए। 

‘‘आखिर बात क्या हुई भैयन ?’’

‘‘सुलतान के राज में मारकाट के काजे कभी कोऊ बात होवे है भला। त्यौहार कौ दिना, हमारी मां-बहन के माथे कौ सिंदूर आग की लपटों सौ उठ रयौ है चौराये पै।...’’ 

फिर एक ही सांस में भद्दी से भद्दी गालियां कहने वाले युवक के मुंह से फूट पड़ीं। उसके नपुंसक क्रोध का अन्त विवशता के आंसुओं में हुआ।

नाव से करीब-करीब सभी लोग बातें सुनने के लिए किनारे पर आ गए थे, केवल एक अंधा नवयुवक और दो बुढि़यां ही बैठी रहीं। सावनी तीज का दिन। कुंआरियों-सुहागिनों का त्यौहार। पिछले आठ-नौ बरसों से चले आ रहे प्रलय काल में जिन सुहागवंतियों की ससुरालें मथुरा के आस-पास के गांवों और कस्बों में हैं वे तो तीज के दिन अपने मैके नहीं आ पाती हैं, पर शहर के भीतर आस-पास के मोहल्लों में या शहर से ले गाँवों में जिनके मैके-ससुराल हैं उनके दिलों में तीज का उल्लास, पत्थर पर हरियाली-सी उमग ही पड़ता है। मृत्यु की भायनकता भी जीवन के सांस्कारिक उत्सव को जड़ नहीं बना सकी। हाथों में मेहंदियां रचीं, गुलगुले पके, झूले पड़े, 

कजरी-मल्हारें गाई जाने लगी :

ऊंची-ऊंची मथुरा जाके हरे-हरे बांस, आगे तो डेरा पठान को

सोने की गगरी रेसम लेजु, चंद्रावलि पानी नीकरी। 

दूध में दूध पानी में पानी

धुवां कैसे पैर उठति आवे ज्वानी

आगे-आगे डेरा पठान के-

घेरी चंद्रावली डेरे बीच...

इसी मल्हार पर घमासान मच गई। बौहरे खुन्नामल के घर घुसकर उनके कर्जदार पठान और उसके साथियों ने खूनी तीज मना डाली। न इज्ज़त बची न लक्ष्मी। गांव के लोग सामना करने आए तो मारकाट के शोर से पड़ोसी गांव की आग शहर में भी फैल गई। धर्म के नाम पर बदला लेने के लिए स्त्री और धन की लूट कुछ लोगों के लिए पुण्य कार्य बन गई। कुछ बरसों पहले सिकंदर सुल्तान ने जब गद्दी पर बैठने के बाद महावन से आकर मथुरा में पहली मारकाट मचाई थी तब जो परिवार जबरन मुसमान बनाए गए थे वे ही इस समय शहर में सबसे अधिक आतंककारी हैं। मथुरा के सैकड़ों घरों में लाशें पड़ी हैं, अनेक मोहल्ले धू-धू कर जल रहे हैं। काज़ियों मुल्लाओं की जय-जयकर बोलकर, सुल्तान और दीन की हुचकियां ले लेकर नए मुसलमान गुंडे हिन्दू बस्तियां लूट रहे हैं। सरकारी अमला यों तो साथ नहीं दे रहा पर लूट की दौलत आखिर किसे बुरी लगती है। यों भी ‘काफिरों का काबा’ मथुरा और मथुरा वासियों को बड़ी ओछी दृष्टि से देखा जा रहा था। 

यह सब हाल-हवाल सुनकर मथुरा जाने वाली अठारह सवारियों में से आठ ने तो वहीं उतरकर आड़े-तिरछे रास्तों से अपने घरों को पहुंचने का निश्चय तुरंत कर लिया, बाकी दस जने अजब ऊहापोह में पड़ गए। उनमें हाथरस के पंडित सीताराम गौड़ भी थे। नाव पर लौटकर अपने अंधे साथी से बोले : 

‘‘सूर्यनाथ, तुम्हारी भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई।’’

कालू केवट पास ही खड़ा था, पूछा : 

‘‘क्या इन अंधे सामी दी ने पैलेइ बता दीनी थी महाराज ?’’

अंधा सूरज मुंह उठाकर बोला : 

‘‘मैं क्या बताऊंगा, यह सब इन्हीं गुरु महाराज जी की ही कृपा है। दो घड़ी रात तक चढ़े तक सब ठीक हो जाएगा। ’’

‘‘हां, हो तो जाएगा पर मेरे लिए रात में मथुरा ठहरने की समस्या होगी। बस्ती में प्रवेश करना कठिन है और घाटों पर रात में उल्लू बोलते हैं।’’

‘‘कोई नहीं रहता गुरु जी ?’’

‘‘बहुत से घाटों पर साधु और गौमाता के कटे सिर टंगे हैं। कहीं जादू-टोने का भय उत्पन्न करके कि यहां आओगे तो चोटी कट जाएगी, दाढ़ी कट जाएगी घाट बंद कर दिए हैं। स्नान-पूजा, यज्ञ-कीर्तन सब कुछ लोप हो चुका है। हे हरि।’’ एक गहरी ठंडी सांस खींचकर सीताराम चुप हो गए।

‘‘सभी घाटों पर नहाने की मनाही है गुरुजी ?’’

‘‘पिछले वर्ष से विभ्रान्त घाट से यह प्रतिबंध हट गया है। एक दाक्षिणात्य ब्राह्मण युवक के तेज से यह चमत्कार संभव हुआ। पर अब भी बहुत से लोग भय के कारण नहीं जाते।’’

‘‘भय कैसा ?’’

‘‘किसी यवन तांत्रिक ने वहां ऐसा यंत्र टांग रखा था कि उसके नीचे होकर निकलने वाले प्रत्येक हिंदू की शिखा कट जाती थी और उसे बलात् दूसरे धर्म का मान लिया जाता था। किंतु श्री बल्लभ भट्ट के आत्मबल ने उस यंत्र को निस्तेज कर दिया। वहां बैठकर उन्होंने भागवत भी बांची।’’

अंधा सूरज उस विलक्षण महापुरुष के संबंध में सोचने लगा। यात्री अभी किनारे पर ही खड़े हुए बतिया रहे थे। नाव पर बैठी दोनों बुढ़ियां परस्पर सहानुभूति से लिलार के लेखों को कोस रही थीं। एक मुरा की थी दूसरी गोवर्धन की। मथुरा वाली का पति अंधा था, वह बच्छवन के किसी नामी फकीर से असली ममीरे का सुर्मा लेने गई थी। गोवर्धन वाली बुढ़िया अपने बीमार भाई को देखने के लिए माठ गई थी। दो महीने बाद घर लौट रही है। उसे अपने पोते-पोतियों की बड़ी याद आ रही है। उनसे मिलने में इन दंगाइयों ने बिघन डाला—सत्यानास हो। जिन सुहागिनों मरियों ने तुरकों की मल्हारे गाईं—उनका सत्यानास हुआ, और भी हो। गोवर्धन वाली के कोसनो पर अंधे सूरज को हंसी आ गई : 

‘‘तैने तो कोसनों का गोवर्धन ही उठा लिया है माई। आवाज थोड़ी नीचे उतार ले। किसी कंस-दूत के भनक पड़ गई तो यहीं मथुरा बन जाएगी तुम्हारी।

बात से नाव पर सन्नाटा-सा छा गया। इतने में किनारे से छप-छप करता बल्लो अहीर नाव के पास तक आकर पानी में खड़ा हो गया, और केवट से बोला : 

‘‘कालू चौधरी, सिगरे लोगन की राय जई है कि मथुरा जी चलौ जाय। हंसा को नाव घाट तो  पल्लीपार हैगो, कुशल ते पौंच जांगे। वां ते अपनी-अपनी गौं देख लिंगे सिगरे जने। नई होगा तो तेरी नाव पर ही काट लिंगे एक रात। यहाँ पड़े रहवे में काऊ मजौ नांय।’’

केवट बोला : ‘मेरी नाव पे तो नईं, पर रात में सोने को चौकस परबंध करा दूंगो। आधो-पौन पहर तौ अभी सोच-विचार में ही कट गयो है, पहर-डेढ़ पहर छान-निपटान में और निकाल लौ, फिर अंधेरे में सनसना सन सन करती निकल जायेगी मेरी जल परी और सीधी हंसा के घाट पै ही जा लगेगी।’’ 

सात आठ खुनियों से सिल-बटियां निकल आईं, घोटने-छानने के अपने-अपने मोर्चे सध गए। मथुरा वृन्दावन में तो जमना जी में गोता लगाने को मिलता ही नहीं, सन्नाटा देखकर यह सुख और पुण्य क्यों न लूटा जाए। कुछ लोग अपनी धोतियाँ धोने-सुखाने में लगे।

‘‘और जो सरकारी नाव डोलती हुई इधर आ गई अब हाल तो फिर यईं पे दूरी मथरा बन जायगी।’’ पंडित सीताराम ने सचेत किया।

‘‘अरे नांय बने। मथुरा बिंदराबन में मनाही है बाकी पूरी जमनाजी में कहा इनके बाप को इजरौ है ? और धमकी दिंगे तो हम काहू ते कम हैं। आठ-दस सिपाही होंगे नाव में। उनते निबटवे के काजे अकेली मैं ही बौत हूं पंडज्जी।’’

सिलोटी पर डंड पेलते हुए वृजपाल ने अपने चलते हाथ तनिक थाम लिए और सिर तानकर कहा : ‘‘आरे जाको नहानो होय वो मौज से नहावे-धोवे। हमारे रहते काहू ढेढ़नी के जाये की मगदूर नांय कि तुम्हारो बाल भी बांकौ कर सकैं। हम हैं अहीर ब्रजबासी। काहू ते कम नाय हैं। छोटी-सी सिलौटी पर बटिया के साधे हुए हाथ मात्तगयंद से फिर बढ़ चले। पास ही बैठे अन्धे सूरज ने बृजपाल के शब्दों को लेकर जांघ पर थपकियां देकर गाना शुरू किया :

‘‘हम अहीर ब्रजवासी लौग।

ऐसे चलौ हंसै नहिं कोऊ घर में बैठि करौ सुख भोग।

सिर पर कंस मधुपुरी बैठ्यों छिनकहि में करि डारै सोग।

फूंकि-फूंकि धरनी पग धारौ महाकठिन है समौ अजोग।’’

अंधे नवयुवक के स्वर में करुणा और चेतावनी का ऐसा स्पर्श था कि आस-पास बैठे किसी का हिया हिले बिना न बच सका।

‘‘जीता रह मेरा भैया। अरे तेरी आवाज तो तुरक पठानन की तलावार तेऊ गहरौ घाव करै है। कहां ते आय रौ ए भगत।’’ बड़ी-बड़ी सफेद गलमुच्छों वाले तोंदियल बूढ़े गनेसी महाराज ने पूछा।

‘‘सीही से।’’

‘‘म्हां तुम्हारौ घर है ?’’

‘‘घर तो भगवान के चरनों में है मेरा।’’

‘‘आंखें कब ते गईं ?’’

‘‘जनम से।’’

‘‘हरे-हरे, कैसा सुन्दर रूप, कैसा अनमोल कंठ ! और....भगवान की लीला बड़ी न्यारी है। अरे बल्लो, भौत पैराकी कर चुकौ। सुनी नई, सिर पे कंस मधुपुरी बैठो। बड़ी सच्ची बात कही तुमने। इन जवनन ने तो ऐसी परलय ढाई है कि कुछ कहते नायं बने।’’

‘‘अरे भैया, कोई मोकूं हूं डुबकी लगवाय दे।’’

‘‘अरी डोकरी, तैने सुनी नांय या बिचारे अन्धे भगत ने कहा कही हती—फूँकि-फूँक पग धरौ। मेहंदी को रंग खून में मिलाय दियौ है सारेन ने। हमारी हंसी-खुसी लूट लई राक्छसन ने।’’ बूढ़े गनेशी की आँखे छलछला उठीं।

पंडित सीताराम निवृत्त होकर गाँव लौट आए और लोटा तख्ते पर रख-कर गीला अंगोछा झटकारते हुए केवट से कहा : ‘‘बेटा कालूराम, अक्कास की हालत देख रया है ना ? 

‘‘चिंता नईं है माराज। मेरे कने तिरपाल है। कोऊ भीगोगौ नांय। वैसे अबकी बिरियां बरखा ही नांय भई अभी तलक। राम जाने कैसी माया है  भगवान् की अब तौ असुरन कौ राज, ऊपर ते अक्काल। अबकी दुनियां भूखों मर जाएगी।’’

‘‘मारे रांड की। जी के ही कौन सौ निहाल है जायगौ।’’

‘‘सच्ची कहो, जीना-मुहाल हो गया है इस सिकंदर मुल्तान के राज मेंष बाल नई बनवा सको हो। ससुरे द्रौपदी के चीर से बढ़े चले जाय हैं। सबके म्हौडान पे पूतना केसे थन लटक रये हैंगे। जमना जी में न्हायें नईं। मुंडन जनेऊ ब्या सभी में बाधा......।’’

‘‘एक ब्याह को सिंस्कार ऐसो है जाकौ छिपायौ नांय जाय सके। सो वामै एक दच्छना पंडत को देओ, एक दच्छना काजी को देव। अंधेर है माराज ?’’ 

‘‘कालू राम, बेटा, सबको गुहारो ना जल्दी-जल्दी। सिर पर बादल लदे हैं। मथुरा में क्या हाल होगा, यह भगवान ही जानै। घी के कटरे में हर सुख घी वाले के यहां ठहरता हूं। पता नहीं वहां पहुंच पाऊंगा या नहीं। नहीं तो मेरे लिए एक रात रुकना समस्या हो जाएगी। सबेरे हाथरस जाना है।’’

‘‘चिंता ना करौ पंडज्जी माराज। (कान के पास आकर) नाव की कोठरी में चंदन मल खत्री को माल हैगो। किनारे पौंछते ही पाव घड़ी तेऊ कम समौ मे कोठरी खाली है जायगी। आप दिल्ली पार बस्ती में जानौ मती। कल्ल धौताएं हाथरस चल ही दीजों।’’

‘‘धन्य हो कालूराम, इस कलीकाल में शूद्र जातियों में जितनी भावबुद्धि है उतनी उच्च श्रेणी में नहीं रही। करुणानिधान सदैव तुम्हारे ऊपर कृपालु रहें बेटा।’’

दोनों घुटने उठाए अपने में समाया, नाव के सहारे बैठा हुआ, दुबला-पतला अंधा सूरज एकाएक सीधे बैठकर बोला : ‘‘गुरू जी, हम दोनों आज यहीं रह जायं तो अच्छा रहेगा।

‘‘अऽरे, बेटा सर्पों और सपेरों का गांव।’’

‘‘भला होगी गुरूजी, मान जाइए, कल चलेंगे।’’

नाव को किनारे से पानी में ढकेला जा रहा था। नाव को ढकेलने से धक्का खाकर पंडित सीताराम के मन में फैली गणित गड़बड़ा गई।

सूरज ने उनकी बाईं बांह पर दोनों हाथ रखते हुए बच्चे की तरह गिड़-गिड़ाकर कुछ कहना चाहा, किंतु उससे पहले ही पंडित जी हल्की झिड़क भरे स्वर में बोले :

‘‘बच्चे न बनो पुत्र। संयगोवश पिछले सोलह-सत्रह दिवस साथ रहने का अवसर मिल गया। यह बहुत है। हां, तुम्हारे संकेत पर जब मैंने गंभीरता से से विचार करना प्रारंभ किया तो लगा कि मेरा अंत आज निश्चित ही है—जल नहीं तो अग्नी, नहीं तो असि, एक नहीं तीन-तीन बाधाएं पार करूं तो परसों  घर-बार के साथ अपना बावनवां जन्म-दिवस मनाऊं। यह संभव नहीं। जीवन और मृत्यु निश्चित सत्य हैं। मैं अपने शेष क्षण अब श्रीराम नारायण भगवान के नाम-स्मरण में बिताना चाहता हूं।’’

सूरज कुछ कहना चाहता है पर कह नहीं पाता। नाव बह चली है।

पंडित सीतारामजी की बातों में सूरज का मन करुण और भारी हो रहा है। अंधे सूरज की यादों में सोलह-सत्रह दिन पहले की वह सांझ उजागर हो गई जब...

पीपल के पेड़ के तने से टिका बैठा था। चिड़ियां ऊपर अपनी-अपनी जगहों के लिए आपस में लड़कर भयंकर शोर कर रही थीं। अंधे सूरज के मनोलोक में भी उजाले का अधिकार पाने के लिए भयंकर महनामथ हो रहा था। क्रोध रंजित करुणा के स्वर मुखर हो उठे थे : 

‘‘किन तेरो नाम गोविन्द धर्यौ।’’

गुरु सांदीपनि का पुत्र-शोक तप हरने के लिए तुमने असंभव का संभव कर दिखलाया, यमोलक से उनके प्राण छुड़ा लाए ! मित्र सुदामा का दुःख दारिद्र्य छुड़ाया, द्रौपदी की लाज बचाई। और मैंने तुम पर इतना-इतना भरोसा किया, इतनी-इतनी स्तुति  चिरौरियां कीं, किन्तु ‘‘सूर की बिरियां निठुर है बैठ्यो जनमत अंध कर्यौ।’’

एक हाथ ने उसकी उंगलियों को पोले से छूकर फिर हथेली दबाई, एक स्वर ने पूछा : ‘‘कहां के निवासी हो बेटा ?’’

‘‘भरत भूमि का।’’

‘‘पछांह से आए हो। ग्राम का नाम ‘स’ अक्षर से होगा।’’

‘‘आप कौन हैं महाराज ?’’

‘‘छोटी आयु में घर त्यागा, फिर सुख मिला उसे भी त्यागा—’’ 

अंधे सूरज का माथा उनके घुटने पर लुढ़क पड़ा : ‘‘आप सर्वज्ञ हैं। दया करके अपना परिचय दें।

‘‘मैं हाथरस का निवासी गौड़ ब्राह्मण हूं। परन्तु पहले तुम्हारा परिचय पाना चाहता हूं।’’

‘‘मेरी जन्म गोवर्धन के निकट परसौली ग्राम में हुआ था किन्तु चार वर्ष की आयु में गुरु ग्राम के पास ही सीही में चला गया। पिता सारस्वत, अपने क्षेत्र में भागवत महाराज के नाम से विख्यात थे। एक समय घर में थोड़ा वैभव भी था। किंतु नौ बरस पहले जब सिकंदर सुल्तान अपनी फौजी लूट के लिए दिल्ली से निकला था तब हमारे गाम पे भी तबाही आयी थी। आधे से अधिक घर तोड़ डाला गया था—’’ 

‘‘क्यों ?’’

‘‘कोसी के एक यजमान ने जोकि सीही का मूल निवासी था, समृद्धि पाकर अपनी जन्मभूमि में राधा गोपाल का एक मन्दिर बनवाया। हमारे दादा जो मूलतः परसौली के निवासी थे, यजमान के आग्रह से सीही गए थे। मन्दिर के साथ सेठ ने हमारे दादा को एक घर भी बनवा दिया था। हमारा घर मन्दिर का ही एक भाग था, पिछवाड़े बना हुआ।’’

‘‘हूँ ! तुम्हारा नाम भी तुम्हारे ग्राम के समान ही ‘स’ अक्षर से आरम्भ होता है। क्या नाम है।’’

‘‘सूर्यनाथ। पिता सूरा कहते थे, माता सूरज। अब कोई नाम नहीं बाबा, स्वामी, भगत यही सब कहलाता हूं।’’

‘‘तुम्हें अपना जन्म संवत याद है पुत्र ?’’

‘‘विक्रम संवत् 35, वैसाख सुदी 5। अब मेरी भी एक जिज्ञासा है महाराज।’’

‘‘पूछो।’’

‘‘आपने मेरा मुख या मस्तक देखकर मेरी लग्न विचारी थी ?’’

‘‘नहीं, स्वर से। त्वचा के स्पर्श से।’’

‘‘स्वर से मनुष्य की तत्काल मनःस्थिति का ज्ञान—’’

‘‘और स्पर्श से भी जाना जाता है। क्या ही तुम्हें धारण करने वाली धरती है। इसमें आश्चर्य क्या ?

‘‘वही लग्न का आधार भी है। जान पड़ता है तुम शकुन विद्या से परिचित हो।’’

‘‘मैं जन्मान्ध निपट गंवार हूं महाराज। एक संन्यासी गुरुजी की कृपा से कुछ मीनमेख विचार लेता हूं।’’

15
रचनाएँ
अमृतलाल नागर के बहुचर्चित उपन्यास
0.0
अमृतलाल नागर हिन्दी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार थे। उनका जन्म '(17 अगस्त, 1916 - 23 फरवरी, 1990) उन्हें भारत सरकार द्वारा १९८१ में साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। 1932 में निरंतर लेखन किया। अमृतलाल नागर के भाषा सहज, सरल दृश्य के अनुकूल है। भावात्मक, वर्णनात्मक, शब्द चित्रात्मक शैली का प्रयोग इनकी रचनाओं में हुआ है। मानस का हंस', 'खंजन नयन', 'नाच्यौ बहुत गोपाल', 'बूंद और समुद्र', तथा 'अमृत और विष' जैसी बहुचर्चित और पुरस्कृत-सम्मानित कृतियों की श्रृंखला में यशस्वी उपन्यासकार अमृतलाल नागर ने इस उपन्यास में 'बिखरे हैं |
1

मानस का हंस

25 जुलाई 2022
2
0
0

श्रावण कृष्णपक्ष की रात। मूसलाधार वर्षा, बादलों की गड़गड़ाहट और बिजली की कड़कन से धरती लरज-लरज उठती है। एक खण्डहर देवालय के भीतर बौछारों से बचाव करते सिमटकर बैठे हुए तीन व्यक्ति बिजली के उजाले में पलभ

2

शतरंज के मोहरे भाग 1

25 जुलाई 2022
1
0
0

होशियार ! होशियार हुइ जाओ होऽजुम्मन काका ! फौजैं आवति हयिं।’’ दो फ़र्लाग दूर से गोहराते और दौड़कर आते हुए युवक का सन्देश सुनकर गढ़ी रुस्तमनगर की बाहरी बस्सी में कुहराम मच गया। उड़ती ख़बर आनन-फानन में

3

शतरंज के मोहरे भाग 2

25 जुलाई 2022
0
0
0

उसके बाद तीनों कुछ दूर तक खामोश चले गये। रुस्तअली का चेहरा विचारों से भारी होकर झुक गया था। उसकी माँ ने अकसर उसकी पत्नी की बदचलनी के बारे में शिकायतें की थीं। उसके सौतले भाई फतेअली के ख़िलाफ़ उसकी माँ

4

नाच्यौ बहुत गोपाल

25 जुलाई 2022
0
0
0

ऊंचे टीले पर बने मन्दिर के चबूतरे से देखा तो सारी बस्ती मुझे अपनी वर्णमाला के ‘द’ अक्षर जैसी ही लगी। शिरोरेखा की तरह सामने वाली गली के दाहिनी ओर से मैंने प्रवेश किया था। ‘द’ की कंठरेखा वाली गली सुलेख

5

भूख

25 जुलाई 2022
0
0
0

 बर्मा पर जापानियों का कब्जा हो गया। हिन्दू स्तान पर महायुद्घ की परछाई पड़ने लगी।  हर शख्स के दिल से ब्रिटिश सरकार का विश्वास उठ गया। ‘कुछ होनेवाला है, -कुछ होगा !’-हर एक के दिल में यही डर समा गया। 

6

बिखरे तिनके

25 जुलाई 2022
0
0
0

गुरसरन बाबू का मन ऊंचा-नीचा हो रहा है। साढ़े आठ बज रहे हैं। रघबर महाराज के यहाँ बिल्लू को भेजा है कि बुला लाए। पता नहीं...कनागत में बाम्हन और चढ़ती उमरिया में लौंडियों के नक्शे नहीं मिलते हैं।–स्साले 

7

खंजन नयन

25 जुलाई 2022
0
0
0

वृन्दावन से लगभग दो कोंस पहले ही पानीगांव के पास वाले किनारे पर खड़े चार-छह लोगों ने सुरीर से आती हुई नाव को हाथ हिला-हिलाकर अपने पास बुला लिया :  ‘‘मथुरा मती जइयों। आज खून की मल्हारें गाई जा रही हैं

8

एकदा नैमिषारण्ये

25 जुलाई 2022
0
0
0

‘अरी मैया तेरे पायँ लागूँ मोकूँ क्षमा करदे, जाइबे दे। मेरो बड़ो अकाज ह्यै रह्यै है। नारायण तेरो अपार मंगल  करेंगे।’’  लेकिन हाथ में साँट लेकर खडी़ हुई हट्टीकट्टी लंबी-तड़ंगी तुलसी मैया की पुजारिन, मह

9

सुहाग के नूपुर

25 जुलाई 2022
0
0
0

ब्राह्म मुहूर्त में ही कावेरीपट्टम के नौकाघाट की ओर आज विशेष चहल-पहल बढ़ रही है। सजे-बजे सुंदर बैलोंवाले शोभनीय रथों, पालकियों और घोड़ों पर नगर के गण्यमान्य चेट्टियार, प्रौढ़ और युवक, कावेरी नदी के नौ

10

चक्रतीर्थ

25 जुलाई 2022
0
0
0

‘एकदा नैमिषारण्ये’ और ‘चक्रतीर्थ’ के कथानक एवं सामाजिक संदर्भ देश-काल की दृष्टि से लगभग एक से हैं। अमृतलाल नागर ने ‘चक्रतीर्थ’ के सृजन में जैसे कौशल का प्रदर्शन किया है। उससे हिन्दी उपन्यास की श्रीवृद

11

पीढ़ियां भाग 1

25 जुलाई 2022
0
0
0

युधिष्ठिर अपनी मां के साथ कार में सआदतगंज से घर लौट रहा है। लगभग एक माह से जिस समाचार ने शहर और राजनीति को अपने सच-झूठ की अफवाहों से घटाटोप ढक रखा है और जिससे एक गहरा साम्प्रदायिक तनाव इतने दिनों से क

12

पीढ़ियां भाग 2

25 जुलाई 2022
0
0
0

वजीरगंज थाने से कुछ ही दूर पर बने ‘मुश्ताकविला’ के सामने हसन जावेद और युधिष्ठिर टण्डन के ‘वेस्पा’ और ‘विजयसुपर’ स्कूटर आकर रुके। गली में हरे-भरे लॉन और पेड़-फूलों सहित यह जगह युधिष्ठिर को अनोखी और आश्

13

करवट

25 जुलाई 2022
0
0
0

लक्खी सराय की रसूलबांदी दो घड़ी दिन चढे़ ही घर से निकल गई थी। हैदरीखां जब घर से आए तो अज्जो ने बतलाया कि कल रात शाही महलों से उसके लिए बुलावा आया था।  हैदरीखां घबरा कर झल्ला उठेः ‘‘तो आज ही के दिन सग

14

अमृत और विष भाग 1

25 जुलाई 2022
0
0
0

एकऐन कानों के पास अलार्म इतनी जोर से घनघना उठी कि कानों ही के क्या, मेरे अन्तर तक के पर्दे दर पर्दे हिल उठे। आँखें खोलते ही माया का हँसता मुखड़ा देखा, बोली :  ‘‘उठिये शिरीमान्, उमर के साठ बज गये।’’

15

अमृत और विष भाग 2

25 जुलाई 2022
0
0
0

गुपालदास निरुतर हो, सिर झुकाये बैठे रहे। शेखजी ने भाँपा कि अभी कुछ और शिकायत है; पूछा- ‘‘तुम्हें मेम से खास शिकायत क्या है ? वह तुम्हारा माकूल अदब नहीं करती ?’’ ‘‘जी हाँ, यही बात है।’’ गुपालदास खु

---

किताब पढ़िए