बात उन दिनों की है जब मैं दसवी कक्षा की छात्रा थी। किसी के नाम के पूर्व डाॅ. की उपाधि देखकर मन असंख्य अभिलाषाओं से भर उठता। मैं सोचती काश, मेरे नाम से पूर्व भी यह उपाधि लगे। साहित्य लेखन में रुचि होने के कारण कविता, कहानी आदि की प्रतियोगिताओं में भाग लिया करती थी जिससे मैं स्कूल की प्राचार्या से अपरिचित न रह सकी। एक दिन उन्होंने कक्षा के दौरान चपरासी से मुझे बुलवाया। मन में डर था न जाने किस अपराध के कारण उन्होंने बुलवाया है। सहमी हुई डरते डरते उनके आॅफिस में दाखिल हुई तो उन्होंने मुझे प्यार से अपने पास वाली कुर्सी पर बैठने को कहा तो मेरे मन का सारा भय उड़न छू हो गया। उन्होंने कहानी प्रतियोगिता में मेरी कहानी के प्रथम आने पर मुझे बधाई दी और कहा-‘ध्यान रखो तुम्हें हर क्षेत्र में सदैव प्रथम आना है। तुम लक्ष्य को बेधने के लिए सदैव उसे ध्यान में रखो। लगन, आत्मविश्वास व परिश्रम से तुम अवश्य ऐसा कर सकोगी। यदि तुमने ऐसा किया तो सफलता तुम्हारी होगी।’ प्राचार्या द्वारा स्नेह में कही हुईं ये प्रेरक पंक्तियां मेरे लिए प्रेरणा स्रोत बन गयीं। उसी दिन घर आकर अपनी बुक सेल्फ पर मोटे मोटे
अक्षरों में मार्कर से यह लिख दिया-‘ मुझे सदैव प्रथम आना है।’कुछ भी करते समय मुझे उनकी ये पंक्तियां मन में गूंजती महसूस होतीं। मैं इस वाक्य को पूरा
करने के लिए दूने उत्साह के साथ परिश्रम करने लगी जिसके फलस्वरूप मैं हर परीक्षा में प्रथम आने लगी। उनकी प्रेरणा से ही मैं एम.ए. तक प्रथम आयी और
मैंनेअल्प अवधि में ही पीएच डी भी पूर्ण कर ली। जिस दिन मुझे पीएच डी की उपाधि अलंकृत हुई तो मुझे अपने प्राचार्या के कहे वे प्रेरक वाक्य स्मरण हो आए
मन खुशी से पुलकित हो उठा क्योंकि अब मैं भी नाम के साथ डाॅ. लगा सकती हूं। कोई भी मेरी तरह अपने लक्ष्य को पा सकता है।