याद तुम्हें तो होगा प्रिय! दिल से अस्सी घाट, शरद ऋतु का.
गाये थे जो नगमें मिलके, बैठी' साइकिल पर थी तुम.
भावनाओं के सिगरेट की तुम सुलगती धुआँ थी.
या पानामा के कश से तुम, चोटिल धुँधली कुआँ थी.
सुराहीदार गर्दन के तिल, रखती कुर्ती के शर थी तुम.
गाये थे जो नगमें मिलके, बैठी' साइकिल पर थी तुम.
कभी कचौड़ी गली गुजरता, तो कहती रंगबाज़ है.
अगर तुम्हारे काँधों पे सर रखता पूछती क्या राज़ है.
मेरे सीनें पर जो घूमें, अंगुली सी सहचर थी तुम.
गाये थे जो नगमें मिलके, बैठी' साइकिल पर थी तुम.
रोटी के पर्थन हाथों में, लगा खोलती दरवाज़ा.
दाँत दिखा कर कह देती थी, चल जल्दी अंदर आ जा.
चाक चढ़ी कोई मूर्तित थी, या मिट्टी आखर थी तुम.
गाये थे जो नग़में मिलके, बैठी' साइकिल पर थी तुम.
खाली कमरा, खाली बोतल, पर नशा तुम्हारा सर पर.
गांजा, अफीम फीका था पर, झूम रहा था गिर-गिर कर.
जाम काँच से छलक रहा या बहती लब निर्झर थी तुम.
गाये थे जो नगमें मिलके, बैठी' साइकिल पर थी तुम.
बैठ अटारी के मुँडेर पर, ताक रही थी जो रस्ता.
चुटकी भर सिन्दूर चाह थी, मिला नहीं वह भी सस्ता.
गेरूआ साँकल साँझ चढ़ा, पहुँचा जैसे दर थी तुम.
गाये थे जो नगमें मिलके, बैठी' साइकिल पर थी तुम.
©-राजन-सिंह