बदलाव और शहरों में रहने की आधुनिकता ने हमें पलायन स्वीकार करना अनिवार्यता ने बुजुर्गांवारों से दूर कर दिया।शहरीकरण और कुकुरमुत्ते जैसे आलीशान फ्लैट्स के जीवन ,महंगे स्कूलों में अपने बच्चों के भविष्य के सपनों को सजाने के लिए कर्जदार हो जाते है नौकरीपेशा शहरों में करके अपनी जन्मभूमि की धरती को बेचकर शहरों में मकान फ्लेट्स अपने बुजुर्गों को भूल रहे है।ऐसा आज से नहीं कई वर्षों से हो रहा है हम कितने बदल गए हमारी संस्कृती विचार विदेशी संस्कारी हो गए।आज गांव में बहुत से माता पिता राहों पर नजर टिकाए बैठे अपने बेटों की प्रतीक्षा करते करते मर जाते है।सूचना मिलने पर अंतिम क्रियाकलापों की पूर्ति करके शहरों में व्यस्त हो जाते है।शहरों के साबुन की डिबिया जैसे मकानों में मातापिता को रख पाना मुश्किलों भरा सफर है।आजाद रहना और बुजुर्गों की अवहेलना वृद्धाश्रम में रखकर मुक्त हो रहे है सेवादार और जी हजूरी से।अंत समय तक माँ पिता की आत्मा अतृप्त ही रहती है ।नाती पोते के संग खोलने खाने की।फिर पितरों का श्राद्ध करके मुक्त होने का तांडव क्यूं करते है।हम अपने माता पिता का ऋण कभी नहीं उतार सकते।
हमें उन्हें सम्मान देना चाहिये अनुभव लेना चाहिये ।हमें भी चार क्रियाएँ भुगतने है बचपन ,जवानी ,प्रौढ़ावस्था, बुढ़ाप्पे की मार।
अत:बुजुर्गों की अनदेखी न करे।समय समय पर डाक्टरी चेकअप करवाए ।साथ बैठै।बातें कीजिए ।
धन्यवाद