स्थान-तपोवन। द्युमत्सेन का आश्रम
(द्युमत्सेन, उनकी स्त्री और ऋषि बैठे हैं)
द्युमत्सेन : ऐसे ही अनेक प्रकार के कष्ट उठाए हैं, कहाँ तक वर्णन किया जाय।
पहला ऋषि : यह आपकी सज्जनता का फल है।
(छप्पय)
क्यौं उपज्यौ नरलोक? ग्राम के निकट भयो क्यौं?
सघन पात सों सीतल छाया दान दयो क्यौं?
मीठे फल क्यौं फल्यो? फल्यौ तो नम्र भयो कित?
नम्र भयो तो सहु सिर पै बहु बिपति लोक कृत।
तोहि तोरि मरोरि उपारिहैं पाथर हनिहैं सबहि नित।
जे सज्जन ह्नै नै कै चलहिं तिनकी वह दुरगति उचित ।।
दूसरा ऋषि : ऐसा मत कहिए! वरंच यों कहिए-
चातक को दुख दूर कियो पुनि दीनो सब जग जीवन भारी।
पूरे नदी नद ताल तलैया किये सब भाँति किसान सुखारी ।।
सूखेहू रूखन कीने हरे जग पूरîौ महामुद दै निज बारी।
हे घन आसिन लौं इतनो करि रीते भए हूँ बड़ाई तिहारी ।।
द्युमत्सेन : मोहि न धन को सोच भाग्य बस होत जात धन।
पुनि निरधन सो दोस न होत यहौ गुन गुनि मन ।।
मोकहँ इक दुख यहै जु प्रेमिन हू मोहिं त्याग्यौ।
बिना द्र्रव्य के स्वानहु नहिं मोसों अनुराग्यौ ।।
सब मित्रन छोड़ी मित्रता बंधुन हू नातो तज्यौ।
जो दास रह्यौ मम गेह को मिलनहुँ मैं अब सो तज्यौ ।।
पं. ऋषि. : तो इसमें आपकी क्या हानि है? ऐसे लोगों से न मिलना ही अच्छा है।
द्युमत्सेन : नहीं, उनके न मिलने का मुझको अणुमात्रा सोच नहीं है। मुझको तो ऐसे तुच्छमना लोगों के ऊपर उलटी दया उत्पन्न होती है। मुझको अपनी निर्धनता केवल उस समय अति गढ़ाती है जब किसी सत्पुरुष कुलीन को द्रव्य के अभाव से दुःखी देखता हूँ। उस समय मुझको निस्संदेह यह हाय होती है कि आज द्रव्य होता तो मैं उसकी सहायता करता।
दू. ऋषि : आपके मन में इसका खेद होता है तो मानसिक पुण्य आपको हो चुका। और आपकी मनोवृत्ति ऐसी है तो वह अवश्य एक न एक दिन फलवती होगी।
प. ऋषि : सज्जनगण स्वयं दुर्दशाग्रस्त रहते हैं, तब भी उनसे जगत् में नाना प्रकार के कल्याण ही होते हैं।
द्युमत्सेन : अब मुझसे किसी का क्या कल्याण होगा! बुढ़ापे से शरीर में पौरुष हुई नहीं। एक आँख थी सो भी गई। तीर्थ भ्रमण और देवदर्शन से भी रहित हुए।
प. ऋषि : आपके नेत्रों के इतने निर्बल हो जाने का क्या कारण है? अभी कुछ आपकी अवस्था अति बुद्ध नहीं हुई है।
द्युमत्सेन : वही कारण जो हमने कहा था। (उदास होकर) पुत्रशोक से बढ़कर जगत् में कोई शोक नहीं है। गणक लोगों ने यह कहकर कि तुम्हारा पुत्र अल्पायु है, मेरा चित्त और भी तोड़ रखा है। इसी से न मैं ऐसा घर, ऐसी लक्ष्मी सी बहू पाकर भी अभी विवाह संबंध नहीं स्थिर करता।
दू. ऋषि : अहा! तभी महाराज, अश्वपति और उनकी रानी इस संबंध से इतने उदास हैं। केवल कन्या के अनुरोध से संबंध करने के लिए कहते हैं।
(हरिनाम गान करते हुए नारद जी का आगमन)
नारद : (नाचते और वीणा बजाते हुए)
(चाल नामकीर्तन महाराष्ट्रीय कटाव)
जय केशव करुणाकंदा।
जय नारायण गोविंदा ।।
माधव सुरपति रावण-हंता।
बुद्ध नृसिंह परशुधर बावन।
कल्कि बराह मुकुन्दा।
जय जय विष्णु भक्त भयहारी।
जसुदा-सुअन देवकीनंदन।
शंख-चक्र-कौमोदकि - धारी।
जय वृंदावन चंदा।
जय नरायण गोविंदा।
(सब लोग प्रणाम करके बैठाते हैं)
द्युमत्सेन : हमारे धन्य भाग कि इस दीनावस्था में आपके दर्शन हुए।
नारद : राजन्! तुम्हारे पास सत्यधन, तपोधन, धैर्यधन अनेक धन हैं, तुम क्यों दीन हौ। और आज हम तुमको एक अति शुभ संदेश देने को आए हैं। तुम्हारे पुत्र का विवाह संबंध हम अभी स्थिर किए आते हैं। सावित्री के पिता को भी समझा आए हैं कि उनकी कन्या सावित्री अपने उज्ज्वल पातिव्रत्य धर्म के प्रभाव से सब आपत्तियों को उल्लंघन करके सुखपूर्वक कालयापन करेगी और अपने पवित्र चरित्रा से दोनों कुल का मान बढ़ायेगी। तुमसे भी यही कहने आए हैं कि सब संदेह छोड़कर विवाह का संबंध पक्का करो।
द्युमत्सेन : मुझको आपकी आज्ञा कभी उल्लंघनीय नहीं है। किंतु-
नारद : किंतु किंतु कुछ नहीं। विशेष हम इस समय नहीं कह सकते। इतना मात्रा निश्चय जानो कि अन्त में सब कल्याण है।
द्युमत्सेन : जो आज्ञा।
नारद : अब हम जाते हैं।
(गान चाल भैरव, ताल इकताला वा बाउल भजन की चाल पर ताल आड़ा)
बोलो कृष्ण कृष्ण राम राम परम मधुर नाम।
गोविंद गोविंद केशव केशव गोपाल गोपाल माधव माधव।
हरि हरि हरि वंशीधर श्याम।
नारायण वासुदेव नंदनन्दन जगबंदन।
वृंदावन चारु चंद्र गरे गुंजदाम।
‘हरीचंद’ जन रंजन सरन सुखद मधुर मूर्ति।
राधापति पूर्ण करन सतत भक्त काम।।
(नृत्य और गीत)
(जवनिका गिरती है।)