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दूसरा दृश्य

27 जनवरी 2022

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तपोवन-लतामंडप में सत्यवान बैठा हुआ है।
(रंग गीति-पीलू-धमार)
”क्यों फकीर बन आया वे मेरे वारे जोगी।
नई बैस कोमल अंगन पर काहे भभूत रमाया वे ।।
किन वे मात पिता तेरे जोगी जिन तोहि नाहि मनाया वे ।।
काचें जिय कहु काके कारन प्यार जोग कमावा वे ।।“
(चैती गौरी तिताला)
बिदेसिया वे प्रीति की रीति न जानी।
प्रीति की रीति कठिन अति प्यारे कोई विरले पहिचानी ।।
सत्यवान : यह कोमल स्वर कहाँ से कान में आया? प्रतिध्वनि के साथ यह स्वर ऐसा गूँज रहा है कि मेरी सारी कदम्बखंडी शब्द ब्रह्ममय हो गई। बीच बीच में मोर कुहुक कुहुक कर और भी गूँज दूनी कर देते हैं। (कुछ सोचकर) हाय! मेरा मन इस समय भी स्थिर नहीं। हाय! प्रासादों में स्फटिक की छत पर चलने मं जिनके चरण को कष्ट होता था आज वह कंटकमय पथ में नंगे पाओं फिर रहे हैं और दुग्धफेन सी सेज के बदले आज मृगचर्म पर सोते हैं। हाय हमारे माता पिता बुढ़ापे से सामथ्र्यहीन तो थे ही ऊपर से दैव ने उन्हें अंधा भी बनाया। हाय अभागे सत्यवान से भी कभी माता पिता की सेवा न बन पड़ी। कभी उनके वात्सल्यपूर्ण प्रेमामृत वचन ने मेरे कान न शीतल किए और न ऐसा होना है। जनमते ही तो तपस्या करनी पड़ी। धन्य विधाता! दरिद्र को धनवान और धनवान को दरिद्र करना तो तुम्हें एक खेल है। किन्तु दरिद्र बना के फिर क्यों कष्ट देते हौ। दारिद्र ही सही पर मन को तो शान्ति दो। भला दो घड़ी भी वृद्ध माता पिता की सेवा करने पावैं। ख्चिन्ता,
(सावित्री को घेरे हुए गाते गाते मधुकरी, सुरबाला और लवंगी का आना और फूल बीनना)
सखीजन : (गौरी)
भौरा रे बौरानो लखि बौर
लुबध्यौ उतहि फिरत मडरान्यौ जात कहुं नहिं और-
भौंरा रे बौरायो।
(चैती गौरी)
फूलन लगे राम बन नवल गुलबवा।
फूूलन लागे राम महुआ फले आम बौराने डारहिडार भंवरवा झूलन लगे राम।
(गौरी)
पवन लगि डोलत बन की पतियां।
मानहु पथिकन निकट बुलावहि, कहन प्रेम की बतियां ।।
अलक हिलत फहरत तन सारी होत है सीतल छतियां।
यह छबि लखि ऐसी जिय आवत इतहि बितैए रतियां ।।
सुरबाला : सखी; कैसा सुंदर वन है।
लवंगी : और यह बारी भी कैसी मनोहर है।
मधुकरी : आहा! तपोबन रिषि मुनि लोगों को कैसा सुखदायक होता है।
सावित्री : सखी रिषि मुनि क्या तपोवन सभी को सुख देता है।
सुरबाला : क्योंकि यहाँ सदा बसन्त ऋतु रहती है न।
सावित्री : बसन्त ही से नहीं तपोवन ऐसा नहीं है।
मधुकरी : अहा! यह कुंज कैसा सुंदर है। सखी देखो माधवीलाल इस कुंज पर कैसा घनघोर छाई हुई है।
सावित्री : सहज वस्तु सभी मनोहर होती हैं। देखो इस पर फूल कैसे सुन्दर फूले हैं जैसे किसी ने देवता की फूल मण्डली बनाई हो।
सुरबाला : और उधर से हवा कैसी ठंढी आती है।
लवंगी : और हवा में सुगंध कैसी है।
मधुकरी : सखी! एकटक उधर ही क्यों देख रही हो!
सुरबाला : सच तो सखी। वहाँ क्या है जो उधर ही ऐसी दृष्टि गड़ा रही हौ?
लवंगी : तू क्या जानै। तपोवन में सैंकड़ों वस्तु ऐसी होती हैं।
सावित्री : (रागसोरठ)
लखो सखि भूतल चन्द खस्यो।
राहु केतु भय छोड़ि रोहिनिहि या बन आई बस्यौ ।।
कै सिव जय हित करत तपस्या मनसिज इत निबस्यौ।
कै कोऊ बनदेव कुंज में वनविहार बिलस्यौ ।।
मधुकरी : सच तो तपसियों में ऐसा रूप!
सुरबाला : जाने दे। वनवासी तपस्वी में ऐसा रूप कहां?
सावित्री : यह मत कहो। बिधना की कारीगरी जैसी नगर, में वैसी ही बन में।
(सत्यवान की ओर सतृष्ण दृष्टिपात)
सुरबाला : देखती हौ? एक मन एक प्रान होकर कैसी सोच रही है?
लवंगी : (परिहास से) आज जो यह तासकुमार के बदले राजकुमार होते तो घर बैठे गंगा बही थी।
मधुकरी : सखी, इसका कुछ नेम नहीं है कि राजकुमारी का ब्याह राजकुमार ही से हो।
सावित्री : विधाता ने जिस भाव में राजपुत्र को सिरजा है उसी भाव में मुनिपुत्र को। और फिर राजधन से तपोधन कुछ कम नहीं होता।
सत्यवान : (आप ही आप) यह क्या बनदेवी आई हैं।
मधुकरी : हम उनके पास जाकर प्रणाम तो कर आवै।
(मधुकरी का कुंज की ओर बढ़ना और सत्यवान का लतामंडप से निकलकर बाहर बैठना)
मधुकरी : (सत्यवान के पास जाकर) प्रनाम (हाथ जोड़कर सिर झुकाना)
सत्यवान : आयुष्मती भव। आप लोग कौन हैं?
मधुकरी : हम लोग अपनी सखी मद्रदेश के जयन्ती नगर के राजा अश्वपति की कुमारी सावित्री के साथ फूल बीनने आई हैं।
सत्यवान : (स्वगत) राजकुमारी! बामन को चंद्रस्पर्श।
मधुकरी : कृपानिधान। आप सदा यहीं निवास करते हैं।
सत्यवान : जब तक दैव अनुकूल न हो यही निवास है।
मधुकरी : इससे तो बोध होता है कि किसी राजभवन को सूना करके आप यहाँ आए हैं।
सत्यवान : सखी! उन बातों को जाने दो।
मधुकरी : हमारे अनुरोध से कहना ही होगा। दयाल सज्जनगण अतिथि की याञचा व्यर्थ नहीं करते। विशेष कर के पहले ही पहल।
सत्यवान : हम शाल्व देश के राजा द्युमत्सेन के पुत्र हैं। हमारा नाम चित्राश्व वा सत्यवान है। इस भेध्यारण्य नामक वन में पिता की सेवा करते हैं।
मधुकरी : (आप ही आप) तभी। गंगा समुद्र छोड़ कर और जलाशय की ओर नहीं झुकती। (प्रकट) तो आज्ञा हो तो अब प्रणाम करूं।
सत्यवान : (कुछ उदास हो कर) यह क्यों? बिना आतिथ्य स्वीकार किए हुए?
मधुकरी : इसका तो मैं सखी से पूछ लूं तो उत्तर दूं। (सावित्री के पास आकर) सखी कुमार तापस कहते हैं कि आतिथ्य स्वीकार करना होगा।
सावित्री : (सखियों का मुंह देखती है)।
लवंगी : (परिहास से) अवश्य अवश्य! इसमें क्या हानि है।
सावित्री : (कुछ लज्जा कर के) सखी! उनसे निवेदन कर दे कि हम लोग माता पिता की आज्ञा लेकर तब किसी दिन आतिथ्य स्वीकार करैंगे, आज विलम्ब भी हुआ है।
मधुकरी : (सत्यवान के पास जाकर) कुमारी कहती हैं कि किसी दिन माता पिता की आज्ञा लेकर हम आवैंगे तब आतिथ्य स्वीकार करैंगे। आप तो जानते ही हैं कि आर्यकुल की ललनागण किसी अवस्था में भी स्वतंत्रा नहीं है। इससे आज क्षमा कीजिए।
सत्यवान : (कुछ उदास होकर) अच्छा। (सखियों के साथ सावित्री का प्रस्थान) (उधर ही देखता है) यह क्या? चित्त में ऐसा विकार क्यों? क्या स्वर्ण और रत्न में भी मलिनता? क्या अग्नि में भी कीट की उत्पत्ति? उह? फिर वही ध्यान? यह क्या? अब तो जी नहीं मानता। चलैं आगे बढ़कर बदली में छिपते हुए चंद्रमा की शोभा देखकर जी को शान्ति दें।
(जाता है)
(पटाक्षेप) 

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रचनाएँ
सती प्रताप
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यह दुखांत नाटक की परंपरा के नजदीक है । ' भारत दुर्दशा ' में पराधीन भारत की दयनीय आर्थिक स्थिति एवं सामाजिक – सांस्कृतिक अधः पतन का चित्रण है । 'सती प्रताप' सावित्री के पौराणिक आख्यान पर लिखा गया है। भारतेंदु ने अंग्रेजी के ' मर्चेंट ऑफ वेनिस ' नाटक का ' दुर्लभबंधु ' नाम से अधूरा अनुवाद भी किया है।
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प्रथम दृश्य

27 जनवरी 2022
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संवत् 1941 (एक गीतिरूपक) हिमालय का अधोभाग। तृण लता वेष्टित एक टीले पर बैठी हुई तीन अप्सरा गाती हैं।। br /> 1. अप्सरा- (राग झिझौंटी) जय जय श्री रुकमिन महारानी। निज पति त्रिभुअन पति हरि पद में छाय

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दूसरा दृश्य

27 जनवरी 2022
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तपोवन-लतामंडप में सत्यवान बैठा हुआ है। (रंग गीति-पीलू-धमार) ”क्यों फकीर बन आया वे मेरे वारे जोगी। नई बैस कोमल अंगन पर काहे भभूत रमाया वे ।। किन वे मात पिता तेरे जोगी जिन तोहि नाहि मनाया वे ।। काच

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तीसरा दृश्य

27 जनवरी 2022
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जयन्ती नगर गृहोद्यान (जोगिन बनी हुई सावित्री ध्यान करती है) (नेपथ्य में बैतालिक गान) प्र. वै. : नैन लाल कुसुम पलास से रहे हैं फूलि फूल माल गरे बन झालरि सी लाई है। भंवर गुंजार हरि नाम की उचार तिमि

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चौथा दृश्य

27 जनवरी 2022
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स्थान-तपोवन। द्युमत्सेन का आश्रम (द्युमत्सेन, उनकी स्त्री और ऋषि बैठे हैं) द्युमत्सेन : ऐसे ही अनेक प्रकार के कष्ट उठाए हैं, कहाँ तक वर्णन किया जाय। पहला ऋषि : यह आपकी सज्जनता का फल है। (छप्पय) क

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