जयन्ती नगर गृहोद्यान
(जोगिन बनी हुई सावित्री ध्यान करती है)
(नेपथ्य में बैतालिक गान)
प्र. वै. : नैन लाल कुसुम पलास से रहे हैं फूलि
फूल माल गरे बन झालरि सी लाई है।
भंवर गुंजार हरि नाम की उचार तिमि
कोकिला सी कुहूकि वियोग राग गाई है ।।
हरीचन्द तजि पतझार घर बार सवै
बौरी बनि दौरी चारू पौद ऐसी धाई है।
तेरे बिछुरे तें प्रान कंत कै हिमन्त अन्त
तेरी प्रेम जोगिनी वसन्त बनि आई है ।। 1 ।।
द्वि. वै. : पीरो तन परौ फूली सरसों सरस सोई
मन मुरझान्यौ पतझार मनो लाई है।
सीरी स्वास त्रिविध समीरसी बहति सदा
अँखियाँ बरसि मधुझरि सी लगाई है ।।
हरीचन्द फूले मन मैन के मसूसन सौं
ताहीं सों रसाल बाल बदि के बौराई है ।।
तेरे बिछुरे तें प्रान कंत कै हिम्मत अन्त
तेरी प्रेम जोगिनी बसन्त बनि आई है ।। 2 ।।
प्र. वै. : ”बरुनी बघंबर मैं गूदरी पलक दोऊ,
कोए राते बसन भगौहें भेख रखियाँ।
बूड़ी जलही मैं दिन जामिनीहूं जागैं भौंह,
धूम सिर छायो विरहानल बिलखियां ।।
आंसू ज्यौं फटिक माल काजर की सेली पैन्ही,
भई हैं अकेली तजि चेलि संग सखियाँ ।।
दीजिये दरस देव कीजिये संजोगन ये,
जोगिन ह्नै बैठी हैं बियोगिन की अंखियाँ“ ।। 3 ।।
द्वि. वै. : एक ध्यान एकै ज्ञान एकै मन एकै प्रान,
दसों दिसि अविचल एकै तान तानो है।
जग मैं बसत हूँ मनहुँ जग बाहिर सी,
हियौ तन दोऊ निसि दिवस तपानो है ।।
‘हरिचंद जोग की जुगति रिद्धि सिद्धि सब,
तजि तिनका सी एक नेह को निभानो है।
बिना फल आस सीस सहनी सहस्र त्रास,
जोगिन सों कठिन बियोगिन को बानो है ।।
(सावित्री ध्यान से आँख खोलती है)
सावित्री : अहा! एक पहर का दिन आ गया। सखीगण अब तक नहीं आई इसी से ध्यान भी निर्विघ्न हुआ। हमारी वासना सत्य है तो अंतर्गति जानने वाली सतीकुल-सरोजिनी भगवती भवानी हमारी भावना अवश्य पूर्ण करेंगी। मन बच कर्म से जो हमारी भक्ति पति के चरणारविंद में है तो वे हमको अवश्य ही मिलेंगे। अथवा न भी मिले तो इस जन्म में तो दूसरा पति हो नहीं सकता। स्त्रीधर्म बड़ा कठिन है। जिसको एक बेर मन से पति कहकर वरण किया उसको छोड़कर स्त्री शरीर की अब इस जगत् में कौन गति है। पिता माता बड़े धार्मिक हैं। सखियों के मुख से यह संवाद सुनकर वह अवश्य उचित ही करेंगे। वा न करेंगे तो भी इस जन्म में अन्य पुरुष अब मेरे हेतु कोई है नहीं। (अपना वेष देखकर) अहा! यह वेष मुझको कैसा प्रिय बोध होता है। जो वेष हमारे जीवितेश्वर धारण करें वह क्यों न प्रिय हो। इसके आगे बहुमूल्य हीरों के हार और चमत्कार दर्शक वस्त्रा सब तुच्छ हैं। वही वस्तु प्यारी है जो प्यारे को प्यारी हो। नहीं तो सर्वसंपत्ति की मूल कारण स्वरूपा देवी पार्वती भगवान् भूतनाथ की परिचर्या इस वेष से क्यों करतीं? सतीकुलतिलका देवी जनकनंदिनी को अयोध्या के बड़े बडे़ स्वर्ग विनिंदक प्रासाद और शचीदुर्लभ गृह-सामग्री से भी वन की पर्णकुटी और पर्वतशिला अति प्रिय थीं, क्योंकि सुख तो केवल प्राणनाथ की चरणपरिचर्या में है। जब तक अपना स्वतंत्रा सुख है तब तक प्रेम नहीं। पत्नी का सुख एकमात्रा पति की सेवा है। जिस बात में प्रियतम की रुचि उसी में सहधर्मिणी की रुचि। अहा! वह भी कोई धन्य दिन आवेगा जब हम भी अपने प्राणाराध्य देवता प्रियतम पति की चरणसेवा में नियुक्त होंगी। वृद्ध श्वसुर और सास के हेतु पाक आदि निर्माण करके उनका परितोष करेंगी। कुसुम, दूर्वा, तुलसी, समिधा इत्यादि बीनने को पति के साथ वन में घूमेंगी। परिश्रम से थकित प्राणनायक के स्वेद-सीकर अपने अंचल से पोंछकर मंद मंद वनपत्रा के व्यजनवायु से उनका श्रीअंग शीतल और चरणसंवाहनादि से श्रमगत करेंगी। (नेत्रा से आँसू गिरते हैं)
(गान करते हुए सखीगण का आगमन)
(ठुमरी)
सखीत्राय :
देखो मेरी नई जोगिनियाँ आई हो-जोगी पिय मन भाई हो।
खुले केस गोरे मुख सोहत जोहत दृग सुखदाई हो ।।
नव छाती गाती कसि बाँधी कर जप माल सुहाई हो।
तन कंचन दुति बसन गेरुआ दूनी छवि उपजाई हो ।।
देखो मेरी नई जोगिनियाँ आई हो।
(सावित्री के पास जाकर)
(लावनी)
लवंगी :
सखि! बाले जोबन महा कठिन व्रत कीनो।
यह जोग भेख कोमल अंगन पर लीनो ।।
अबहीं दिन तुमसे खेल कूद के प्यारी।
पितु मातु चाव सां भवन बसो सुकुमारी ।।
ओढ़ौ पहिरौ लखि सुख पावै महतारी।
बिलसौ गृह संपति सखी गईं बलिहारी ।।
तजि देहु स्वांग जो सबही बिधि सों हीनो।
यह जोग भेष जो कोमल अंग पर लीनो ।।
मधु. : सखि! यही जगत की चाल जिती हैं क्वारी।
उनके सबही विधि मात पिता अधिकारी ।।
जेहि चाहैं ताकहँ दान करै निज बारी।
यामैं कछु कहनो तजनो लाज दुलारी ।।
बिनती मानहु हठ माँहि वृथा चित दीनो।
यह जोगभेष जो कोमल अँग पर लीनो ।।
सुर. : सखि औरहु राजकुमार बहुत जग माँहीं।
विद्या-बुधि-गन-बल-रूप-समूह लखाहीं ।।
चिरजीवी प्रेमी धनी अनेक सुनाहीं।
का उन सम कोऊ और जगत में नाहीं ।।
जाके हित तुम तजि राजभेष सुख-भीनो।
यह जोग-भेष निज कोमल अँग पर लीनो ।।
सावित्री : (ईषत क्रोध से)
बस-बस! रसना रोको ऐसी मति भाखो।
कछु धरमहु को भय अपने जिय मैं राखो ।।
कुलकामिनी ह्नैव गनिका धरमहि अभिलाखो।
तजि अमृतफल क्यों विषमय विषयहि चाखो ।।
सब समुझि बूझि क्यों निंदहु मूरख तीनो।
यह जोग भेष जो कोमल अँग पर लीनो ।।
लवंगी : सखी को कैसा जल्दी क्रोध आया है?
सावित्री : अनुचित बात सुनकर किसको क्रोध न आवेगा?
सुर. : सखी! हम लोगों ने जो वचन दिया था वह पूरा किया।
सावित्री : वचन कैसा?
सुर. : सखी, तुम्हारे माता पिता ने हम लोगों से वचन लिया था कि जहाँ तक हो सकेगा हम लोग तुमको इस मनोरथ से निवृत्त करेंगे।
सावित्री : निवृत्त करोगी? धर्मपथ से? सत्य प्रेम से? और इसी शरीर में?
सुर. : सखी, शांत भाव धारण करो। हम लोग तुम्हारी सखी हैं, कोई अन्य नहीं है। जिसमें तुमको सुख मिले वही हम लोगों को करना है। यह सब जो कुछ कहासुना गया, केवल ऊपरी जी से।
सावित्री : तब कुछ चिंता नहीं। चलो, अब हम लोग माता के पास चलें। किंतु वहाँ मेरे सामने इन बातों को मत छेड़ना।
सखीगण : अच्छा, चलो।
(जवनिका गिरती है)
भारतेन्दु हरिश्चंद्र की अन्य किताबें
आधुनिक हिंदी के जन्मदाता कहे जाने वाले भारतेन्दु हरिश्चंद्र का जन्म उत्तर प्रदेश के काशी जनपद वर्तमान में वाराणसी में 9 सितंबर 1850 को एक वैश्य परिवार में हुआ था। भारतेंदु हरिश्चंद्र के पिता का नाम गोपालचंद्र था, जो एक महान कवि थे और गिरधर दास के नाम से कविताएँ लिखते थे। हरिश्चंद्र की माता का नाम पार्वती देवी था, जो एक बड़ी शांति प्रिय और धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थी, किन्तु दुर्भाग्यवश भारतेंदु हरिश्चंद्र की माता का देहांत 5 वर्ष की अवस्था पर और उनके पिता का देहांत उनके 10 वर्ष की अवस्था पर हो गया और इसके बाद का उनका जीवन बड़ा ही कष्टों में बीता। उनकी प्रारंभिक शिक्षा उनके जन्म स्थान पर हुई फिर भी उनका मन हमेशा पढ़ाई से दूर भागता रहा, किंतु अपनी प्रखर बुद्धि के कारण वह हर परीक्षा में उत्तीर्ण होते चले गए। अंततः उन्होंने केवीन्स कॉलेज बनारस में प्रवेश लिया भारतेंदु हरिश्चंद्र ने उस समय के सुप्रसिद्ध लेखक राजा सितारे शिवप्रसाद हिंद को अपना गुरु मान लिया था और उनसे ही उन्होंने अंग्रेजी भाषा का ज्ञान सीखा, जबकि भारतेंदु हरिश्चंद्र ने संस्कृत, मराठी, बांग्ला, गुजराती, उर्दू आदि का ज्ञान घर पर ही अध्ययन करने के फलस्वरूप प्राप्त किया। जब भारतेंदु हरिश्चंद्र 15 वर्ष के हुए तो उन्होंने हिंदी साहित्य में प्रवेश किया, और 18 वर्ष की अवस्था में उन्होंने 1968 में कविवचन सुधा नामक एक पत्रिका निकाली जिस पत्रिका में बड़े-बड़े कवियों के लेख लिखे जाते थे। इसके पश्चात उन्होंने 1873 में हरिश्चंद्र मैगजीन 1874 में बाला बोधिनी नामक पत्रिका भी प्रकाशित की। भारतेंदु हरिश्चंद्र की आयु 20 वर्ष की हुई तब उन्हें ऑननेरी मजिस्ट्रेट के पद पर आसीन किया गया और आधुनिक हिंदी साहित्य के पिता के रूप में जाना जाने लगा। हिंदी साहित्य में उनकी लोकप्रियता इतनी बढ़ गई कि काशी के सभी विद्वानों ने मिलकर उन्हें भारतेंदु की अर्थात भारत का चंद्रमा की उपाधि प्रदान की। भारतेंदु हरिश्चंद्र के द्वारा भारत दुर्दशा, अंधेर नगरी, श्री चंद्रावली, नील देवी, प्रेम जोगनी, सती प्रताप के साथ अन्य कई नाटक रचे गए हैं। भारतेंदु हरिश्चंद्र एक बहुत ही प्रसिद्ध निबंधकार के रूप में भी हिंदी साहित्य में जाने जाते हैं। उनके द्वारा लिखे गए कुछ निबंध संग्रह नाटक, कालचक्र (जर्नल), लेवी प्राण लेवी, कश्मीर कुसुम, जातीय संगीत, हिंदी भाषा, स्वर्ग में विचार सभा, आदि तथा निबंध काशी, मणिकर्णिका, बादशाह दर्पण, संगीतसार, नाटकों का इतिहास, सूर्योदय आदि है।
प्रेम मालिका, प्रेम सरोवर, प्रेम माधुरी, प्रेम तरंग, होली, वर्षाविनोद, कृष्णचरित्र, दानलीला, बसंत, विजय बल्लरी आदि भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा रचित हैं। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने एक कहानी- कुछ आपबीती, कुछ जगबीती जैसी आत्मकथाऐं लिखी है। भारतेंदु हरिश्चंद्र को आधुनिक हिंदी साहित्य का जनक माना जाता है, इसीलिए 1857 से लेकर 1900 तक के काल को भारतेन्दु युग के नाम से जाना जाता है। ऐसे महान हिंदी साहित्य के नाटककार निबंधकार और कहानीकार का नाम हमेशा हिंदी साहित्य में सम्मान के साथ लिया जायेगा। D