एक राज्य के राजा बड़े ही धर्मनिष्ठ ,दयालु,ईश्वरभक्त व प्रजापालक थे.प्रजा के सुख दुःख का पूरा ध्यान रखते थे.उनके राज्य में प्रजा सुखी व समृद्ध थी.एक दिन अचानक राजा के मन में विचार आया कि कौन सा धर्म श्रेष्ठ है.वे इस प्रश्न के उत्तर के लिए विकल थे पर उन्हें इसका उत्तर नहीं मिल पा रहा था.उनकी निद्रा लुप्त हो चुकी थी.उन्होंने अपने दरबार के विद्वानों से इस प्रश्न का उत्तर पूछा पर कोई भी उचित उत्तर नहीं दे सका.उनकी स्थिति देखकर महामात्य को बड़ी चिंता हुई.वे राजा को हर स्थिति में संतुष्ट देखना चाहते थे.एक दिन उन्हें पता चला कि राज्य के एक नगर में एक बड़े ही सिद्ध महात्मा पधारे हुए हैं.उन्होंने राजा से निवेदन किया कि राजन एक बार आप उन महात्मा के पास अवश्य चलिए.राजा ने उनका निवेदन स्वीकार कर लिया.वे दोनों महात्मा के पास पहुंचे.राजा ने महात्मा से अपना प्रश्न निवेदित किया.महात्मा बड़े जोर से हँसे.उन्होंने कहा कि राजन हमने धर्म के बारे में सुना था,ये श्रेष्ठ धर्म कहाँ से आ गया.धर्म तो धर्म होता है.उसमें श्रेष्ठता की बात कहाँ से आ गयी.जो धर्म हमें सद्मार्ग पर ले जाये और परहित में लगाये ,वही श्रेष्ठ है.राजा को उनकी बातें अच्छी लगीं.उन्होंने कहा -महात्मन कुछ और बताइये. महात्मा ने उनसे अपने पीछे आने को कहा.वे एक नदी तट पर पहुंचे.महात्मा ने नाविकों से एक एक कर नावें मगवायीं और कुछ न कुछ दोष निकाल कर सभी नावों से पार जाना अस्वीकार कर दिया.बहुत समय तक राजा इस क्रम को देखते रहे.उन्होंने खिन्न होकर महात्मा से कहा कि महात्मन आप ये क्या कर रहे हैं,हमें पार ही तो जाना है,कोई भी नाव हमें पार पंहुचा सकती है.महात्मा ने कहा-सत्य कहा आपने राजन.कोई भी नाव हमें उसपार पंहुचा सकती है.इसी प्रकार जो भी धर्म आपको भव सागर से पार कर दे वही श्रेष्ठ है.सारे धर्म एक मार्ग पर ही ले जाते हैं,कोई श्रेष्ठ नहीं होता ,सब धर्म समान हैं और सभी धर्म हमें संसार से मुक्त कर सकते हैं.हमें धर्मों में मीन- मेख निकालने से बचते हुए सबका सम्मान करना चाहिए व श्रेष्ठ के बारे में विचार नहीं करना चाहिए.गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है
परहित सरिस धर्म नहीं भाई,पर पीड़ा सम नहीं अधमाई .