जीवन में सुख और दुःख आते रहते हैं.विना इन दोनों के जीवन में नीरसता आ जाती है.जब तक हम इन दोनों का अनुभव नहीं कर लेते ,उनके मूल्य को नहीं समझ सकते.प्रायः सुख का समय अधिक होने के कारण और सम्बन्धियों तथा मित्रो के समीप रहने के कारण वह समय सरलता से निकल जाता है और हमें पता नहीं चलता.दुःख का समय यद्यपि अल्प काल का होता है,अभ्यास न होने के कारण वह समय हमें बहुत भारी लगता है.
जीवन के बारे में दार्शनिकों और शायरों ने अलग अलग राय दी है.
एक कवि ने लिखा-
"दुनियां में हम आये हैं तो जीना ही पड़ेगा,जीवन है अगर जहर तो पीना ही पड़ेगा"
किसी और ने कहा-"जिंदगी का सफर है ये कैसा सफर,कोई समझा नहीं ,कोई जाना नहीं "
एक और शायर की दृष्टि में जीवन है -"जिंदगी एक सफर है सुहाना,यहाँ कल क्या हो किसने जाना "
कदाचित जीवन के बारे में समझना एक सामान्य व्यक्ति के लिए कठिन है,हम जीवन के कुछ दुखों को तो स्वयं उत्पन्न कर लेते हैं या उनको बोझ समझ के दुखी हुआ करते हैं.दुःख का आना उतना कष्टकारी नहीं होता जितना उसको बोझ समझ कर तिल तिल दुखी होते रहना.
एक युवक एक महात्मा के पास गया.उनसे प्रश्न किया कि महात्मन मैं जीवन के दुखों के बोझ से त्रस्त हो गया हूँ,अब ये बोझ मुझसे सहा नहीं जाता,कोई उपाय बताइये .
महात्मा उसे पास के जंगल में ले गए.एक बड़ा सा पत्थर उसके सर पर रख दिया और बोले अब चलो.पत्थर बहुत भारी था.कुछ दूर जाने पर ही उसको पीड़ा होने लगी. पर उसने कुछ नहीं कहा.आगे जाने पर पीड़ा और बढ़ गयी.अब उससे सहन नहीं हो रहा था.उसने कहा कि महात्मन अब मुझसे ये बोझ सहन नहीं होता.महात्मा ने कहा कि बोझ अब उतार दो,उसने पत्थर सर पर से उतार दिया,महात्मा ने पूछा कि अब कैसा लग रहा है.उसने कहा अब बहुत अच्छा लग रहा है.मैं अब बहुत ही मुक्त और प्रसन्न अनुभव कर रहा हूँ.
महात्मा ने कहा कि जीवन के बोझ को भी इसी तरह जो सर पर उठाये चलते हैं,उन्हें बहुत कष्ट होता है.कुछ देर तक उठाने पर थोड़ा कष्ट और बहुत देर तक उठाने पर बहुत कष्ट होता है.जीवन में आने वाले दुखों को धैर्य और साहस से दूर करना चाहिए,पर उनको मन में लेकर उनके बोझ से अपने आप को दुखी नहीं करना चाहिए.अच्छा तो ये है कि बोझ को उठाया ही न जाये,और यदि उठाना ही पड़े तो उसे बहुत देर तक नहीं ढोना चाहिए,उसे उतार देना चाहिए.और सबसे अच्छी बात ये है कि जीवन को बोझ समझा ही न जाये.
हम सभी ने कुत्तों को देखा होगा.उन्हें चोट लगती है तो वे अपनी चोट को अपनी जीभ से चाट चाट कर ठीक कर लेते हैं.वहीँ पर बन्दर अपने घावों को कुरेद कर और भी ख़राब कर देता है.हमें अपने जीवन के घावों को आत्मसात करते हुए उनसे अपनापन दिखाते हुए उनसे उबरना चाहिए,न कि उन्हें बोझ समझ कर अपने आप को कष्ट और दुःख देकर और भी अधिक दुखी करना चाहिए.
जीवन जीने का नाम है न कि उससे भागने का.हम जितना भागेंगे,जीवन उतना ही बोझ लगेगा,जिस पल हम ठहर जायेंगे,जीवन भी ठहर जायेगा,दुःख भी विश्राम को चला जायेगा.दुःख का कोई अलग से अस्तित्त्व नहीं है,सुख का अभाव या अभाव की अनुभूति ही दुःख है.