दादी का विवाह एक क्रूर परम्परा
सुबह जल्दी से नहां कर ,सूरज को जल चढ़ा कर, रामायण पाठ कर, तुलसी की पूजा करके ही दादी के मुंह में पानी जाता ।
शाम को मौहल्ले के सभी बच्चों को एकत्र कर जोतबाती करती दादी ।शाम होने से पहले ही मौहल्ले के बच्चे अपने आप ही दादी के आंगन में इकट्ठे हो जाते और आरती के बाद दादी कुछ ना कुछ प्रसाद सब बच्चों को खिलाती । जगत दादी ,सबकी दादी मोहल्ले के सभी छोटे-बड़े उनको दादी बुलाते ,बच्चों के साथ बहुत खुश होती थी ।
,लड़कियों के साथ बातें करते करते उनकी हम उम्र बन जाती, और लड़कियां भी उनसे दो बातें करे बिना बेचैन रहती ।
मोहल्ले का कोई भी छोटा बड़ा उनको राम-राम करें बिना घर के आगे से ना निकलता ,और दादी जी उसका और उसके परिवार का हाल-चाल पूछ उसको आशीर्वाद जरूर
देती ।
जिन्दगी में जिन्दगी तलाशती दादी बूढ़ी हो रही थी, पर उनका रंग अभी भी चमकदार था, तंदुरुस्त दादी की पीठ बुढ़ापे में भी ना झुकी थी ।
गर्मियों की दोपहर हो या सर्दियों की दोपहर, दादी के आंगन में लगे पेड़ों की छांव में मोहल्ले के सभी लोग बैठे रहते थे और दादी के कहानी किस्से सुनते और दादी जी बिना रुकावट सब कुछ कहती जाती।
आंगन में खेलते बच्चों को देखकर मंत्रमुग्ध हो अपने बचपन में पहुंचने की कोशिश करती ,जो कभी आया ही नहीं था ।
पांच छोटे छोटे भाई बहनों की बड़ी दिद्दा थीं दादी ।
दादी के पिता को व्यापार में घाटा पड गया, तो सब कुछ बिक गया , दादी के पिता का व्यापार खत्म होने पर घर पर सब कुछ खत्म हो गया ,बच्चों को रोटी खिलाना भी चुनौती बनता जा रहा था ।
सभी भाई बहनों ने जन्म तो समृद्ध परिवार में लिया था सभी की शुरुआती देखभाल अच्छी होने के कारण, सभी सुंदर और स्वस्थ शरीर वाले थे ।
उस जमाने में घर की औरतें बाहर का काम करने की सोच भी नहीं सकती थी ,और दादी की मां ने तो घर का ही काम ही न किया था ,क्योंकि नौकर चाकर वाला घर था । पर अचानक आया, दुर्दिन क्या न करा दे कुछ पता नहीं होता। बहुत छोटी उम्र में ,लड़कियों की शादी हो जाती थी उस समय ,नहीं तो बिरादरी में नाक कट जाती थी ।
दादी की उम्र बारह साल की हो गई थी और शादी की उम्र पार करती जा रही थी।
पहले शहर के अमीर लोगों में उनके पिताजी की बैठक थी, पर अब तो वह निर्धन हो चुके थी ।अमीर घरों से ही, उनका ताल्लुक रहा था हमेशा ।
उनका परिवार हमेशा छोटे लोगों की सहायता करता था और छोटे लोगों के साथ सहायक और याचक का ही रिश्ता रहा ।पर अचानक वक्त ऐसा पलटा,कि किसी ने सोचा भी न था ।
छोटे लोगों के लिए उनका परिवार भगवान के समान रहा गिरवी गांठ का काम भी दादी के पिताजी करते थे ,तो उस सामान को बेचा जाने लगा जो किस्त ना चुकाने के कारण या मियाद निकल जाने पर चीज सूदखोर की ही हो जाती है।
बेटी की शादी अपनी बिरादरी में ही होती थी, कुछ भी हो बेटी के लिए अच्छा समृद्ध घर ढूंढना हर पिता का सपना होता था ।
पहले शादी की बातें पुरोहित लोग मध्यस्थ बनके करते थे ।अच्छे घर का लड़का ही चाहिए था ।
नगर में एक जाने पहचाने साहूकार, एक बेटे की चाहत लिए हुए साठ साल के हो चुके थे।पहले पांच पत्नियों की मृत्यु हो चुकी थी ,उनको एक ही लड़की संतान के रूप में प्राप्त हुई थी ।
उनके मन में बिन मां की लड़की के लिए ,एक मां की तलाश और पुत्र की चाह अभी जीवित थी ।
किस्मत से दोनों परिवार का शुभचिंतक एक ही निकला, और ऐसा नहीं होना चाहिए था, पर ऐसा होना कोई बड़ी बात ने थी उस समय ।
और बड़े लोगों की बातें चर्चा हुए बिना हर्ष का विषय बन जाती है ।
साठ साल के दादा जी ने ही दोनों तरफ के शादी के खर्च को उठाया और लड़की वालों की तरफ का भी दान ,दहेज जेबर कपडे आदि की भी खूब अच्छी व्यवस्था की।
अच्छे खासे दान दहेज और जेवर के साथ दादाजी बारह साल की दादी जी को विवाह कर छठी पत्नी के रूप में ले आए ।
दादी जी अपने मायके में ,अपने परिवार में सुनती आई थी की शादी ब्याह का संबंध तो ऊपर वाला बनाता है ,और पति पत्नी का रिश्ता सात जन्म का होता है ,और पति पत्नी के लिए परमेश्वर का रूप होता है ।
तो दादी ने अपने साठ साल के पति को परमेश्वर ही समझा और पत्नी धर्म निभाया।
जिन्दगी के हर दर्द को परमेश्वर की मर्जी माना ।
दादी ने किस्मत की चुनौतियां को किस तरह सहज ही स्वीकार कर लिया,चिंतन का विषय बन जाता है।
अचानक मन में निरुत्तर सवाल कौंध जाता है ,कि साठ साल के पुरूष के साथ बारह साल की लड़की को विवाह बंधन में बांधते हुए क्या माता पिता का दिल नहीं पसीजा होगा, या साठ साल के बूढे इंसान का बारह साल की एक सुकुमार लड़की को पत्नी बनाते कलेजा नहीं कांपा होगा।