मैथिली जब भी कुछ परेशान होती ,तो अपनी सासू मां को अपने पास तलाशती और दूर गांव में बैठी सासू मां से फोन पर दो बातें कर सुकून को सहेजती अपने साथ ।मां जी उसके पास से जब भी जाती ,तो कितना खाली खाली लगता मैथिली को मांजी के बिना घर ।
घर में अजीब सा सन्नाटा पसरा रहता ।दो चार दिन तो काम के लिए घर के अन्दर जाकर ,अपने आपको काम में उलझा लेती ,नहीं तो बालकनी में सामने पार्क में खेलते हुए बच्चों को देख बेटे मिट्ठू के साथ, अपना मन बहलाने की कोशिश करती ।नाम तो विनीत और मैथिली ने अपने बेटे का नाम सारांश रखा हुआ है ,पर दादी से एक ही बात बार-बार पूछने पर दादी उसे मिट्ठू बुलाने लगी, तो सारांश दादी मां के साथ, मम्मी पापा का भी मिट्ठू ही बन गया। अबकी बार जब मिट्ठू की दादी अपने गांव जाने लगी, तो मैथिली ने एक मोबाइल फोन अपनी सासू मां को दिया, सरोज मां कहने लगी ,बेटा मुझे कहां चलाना आता है फोन, तो मैथिली ने चार पांच नंबर मिलाने के लिए बता दिए, और फोन में चार पांच नंबर भी दादी के फोन में जोड दिए दिए ,और थोड़ा बहुत फोन चलाना भी सिखा दिया मैथिली ने मांजी को ,फिर भी कह दिया ,मां फोन अपने पास ही रखना और चार्ज कराना भी सिखा दिया, मां जी हम ही आप से बात कर लेंगे, जब भी आपको कोई भी बात करनी हो तो किसी से भी मिलवा लेना।
सासु मां मैथिली को उसके नाम से पुकारने की जगह विनीत की बिनीता बुलाती ,तो मैथिली को शुरू में अटपटा सा लगता पर कुछ दिनों बाद विनीता ही को विनीता ही सुनना मन को भाने लगा ।
अनमनी सी बैठी मैथिली ने फोन मिलाया अपनी सासू मां को ,तो मां के पास कुछ लोग बैठे थे ,मैथिली बोली मां मैं आपकी विनीता बोल रही हूं ,आपको मिट्टठू बहुत याद कर रहा है।मैथिली की आवाज सुनकर मांजी बहुत खुश हो गई मैथिली ने पूछा मांजी आप कैसी है ,आप के बिना किसी का मन ही नहीं लग रहा है, यह सुन मांजी बोली,मैं ठीक हूं, बेटा पड़ोस से बिटिया आई हुई है मैं उसी से बात कर रही हूं ,ससुराल से बहुत दिनों बाद आई है तो मैं तेरे से थोड़ी देर बाद बात करूंगी ।
ठीक है मां जी ऐसा कह कर मैथिली ने फोन रख दिया ,और मैथिली मांजी के साथ बिताए हुए पलों के आगोश में जा पहुंची ।
मैथिली को मांजी के साथ पहले वाला अपना व्यवहार याद आता है ,तो वह आत्मग्लानि से अपने आप को घिरा हुआ पाती है ।पहले मैथिली को अपनी सास बहुत ही पिछड़ी और गंवार नजर आती, हर समय रीति-रिवाजों और परंपराओं को लेकर टोका टाकी कितने बोझिल होते दिन ,जब सासू मां के साथ रहने के दिनों को गिन गिन कर काटा करती ,और सासू मां के जाते ही पिंजरे में बंद पक्षी को जैसे खुला वितान मिल गया हो ऐसा आजाद अपने आपको महसूस करती।
पर पिछले साल मार्च में अपनी बहन के साथ घूमने आई हुई थी मांजी ।बहन तो वापस चली गई ,पर दो-चार दिन बच्चों के पास रहने की लालसा ने मांजी को यहां रोक दिया ,पर यह क्या एक बुरा दौर शुरू ,जिसकी कभी किसी ने सात जन्मो में भी, सपने में भी नहीं सोचा होगा ।
अचानक देश की धड़कन किसी ने रोक दी ।स्टेचू बन गया देश ,जो जहां था वहां का वही जमकर रह गया। जल ,थल, वायु ,व्यापार ,स्कूल कालेज सब कुछ बन्द ।घर के दरवाजे भी पड़ोसियों के लिए क्या ,अपनों के लिए भी अपनों ने बंद कर लिए ।अपनों ने अपनों को ही पहचानना बंद कर दिया ।घर के कामकाज के लिए आने वाले सहायक भी कितने क्रूर नजर आने लगे, पर उस माहौल में डर केवल डर।
माजी यहां आई हुई थी ,मैथिली के लिए वह समय एक परीक्षा की तरह, जिसमें जीतना केवल चमत्कार से कम नहीं ,छोटा सा बुखार भी एक भयानक सपने से कम नहीं छींकते भी डर लगता ,काम वाली पूनम और बाहर के कामों के लिए हरिया को भी मना कर दिया ।
सब कुछ अकेले, कैसे होगा ,सोचा भी नहीं था और मैथिली केवल परेशान और छोटा सारांश मैथिली और विनीत ऑफिस जाते समय ,सारांश को क्रेच में छोड़कर जाते क्रेच को भी बंद देखकर ,कितना परेशान हो उठे विनीत और मैथिली ।
जीने का एक नया तरीका, बिलकुल नया नया सा। मांजी को समझाने में मुश्किल कि घर वापसी के सारे रास्ते बंद हैं, अन्दर बाहर सिर्फ मौन ही मौन ।व बीमारी की खबरें टीवी पर देख और ठहरी हुई दुनिया की खबरें मैथिली को चिंता को नित नए रूप रंग दिखाती हुई ।
ऐसी विकट परिस्थिति में भी, सच में मैथिली ने उस दिन एक जीवट महिला के हौसले को महसूस किया ।आज भी माजी के शब्द कितनी तसल्ली देते हैं ,बेटा थोड़े दिन का कठिन रेला है राम जी की कृपा से सब कुछ जल्दी ठीक हो जाएगा। अपने गांव अपनी जड़ों से दूर वृक्ष की भांति कितना सहारा दिया था मां के शब्दों ने ।
मां ने हमें बस दिया ही था बिना किसी उम्मीद के।शुरु शुरु में तो मां का बर्ताव कभी अजीब लगता और कभी सहारा।
पहले मां के यहां आने पर अपना समय पोते सारांश के साथ बिताना चाहती थी ,पर मैथिली को अपने बेटे की संगत मां के साथ हो ऐसा बिल्कुल पहले पसंद ना था ।उसने बेटे को क्रेच में ही डाल दिया पर अब सारांश घर में ही रहा तो दादी के साथ नजदीकियां बढ़ती गई, सारांश को नया नाम मिट्ठू दादी ने ही दिया। दादी और मिट्ठू जब खेलते तो दादी भी मिट्ठूं के साथ बच्चा ही बन जाती। दादी सुबह जल्दी नहा कर अपने राम जी को आधा घंटा जरूर देती ,क्योंकि उनका कहना रहता ,कि राम जी के हाथ में ही तो हमारी डोर है ,तो उन की डोर को मजबूती से पकड़ने के लिए थोड़ा पूजा कर्म भी बहुत जरूरी है ।पूजा पाठ के बाद ही वह में मुंह में कुछ डालती।
घर के कामों को करना मुझे बोझ लगता क्योंकि मैथिली को घर के कामों की कभी आदत ही नहीं रही क्योंकि हर एक काम के लिए सहायकों की आदत जो पड़ गई थी ,सासू मां घर के कामों के लिए बढ़ने लगी ,क्योंकि इतने बड़े दिन में खाली बैठना बहुत मुश्किल रहा मांजी का ।ना किसी का आना और ना कहीं जाना ,बैठे-बैठे हाथ पैर जुड़ जाएंगे ,यह कहकर घर के सारे कामों को धीरे-धीरे अपनी जिम्मेदारियों में समेटती गई मांजी ।
घर के सारे काम करते-करते हमेशा मांजी अपने चेहरे पर प्रसन्नता रखती ,हां खाना बनाते समय कोई भजन जरूर गुनगुनाती , ऐसा करते देख मिट्ठू ने पूछ लिया दादी आप गाना गा रही हो, कितने प्यार से समझाया था मिट्ठू को ऐसा करने से खाना राम जी का प्रसाद बन जाता है और खाने में स्वाद बढ़ जाता है ।
सच में मैथिली ने महसूस किया था ,मां के हाथों बने खाने में एक विशेष स्वाद रहता ।मैथिली और विनीत मां के सानिध्य में ही घर पर रहकर ऑफिस का काम निश्चिंत होकर कर पाए थे ,घर और मिट्ठू को संभालने की चुनौतियां जिम्मेदारी मांजी ने अपने ऊपर ले कर अपने को सहेज कर लिया ।मांजी कहा करतीं कि अगर वह खाली बैठेगी तो बीमार पड़ जाएंगीं और यह काम तो मेरे लिए आसान ही है और अपने को कामकाज में उलझाऊंगी ,तभी अपने घर से इतनी दूर अपने दिन गुजार पाऊंगी।
धीरे-धीरे मां की उपस्थिति मुझे और विनीत को भाने लगी और मिट्ठू के लिए दादी की उपस्थिति अनिवार्य हो चली। मैं और विनीत जब अपने ऑफिस का घर से काम कर रहे होते ,तो मां पूछने के लिए आती , और चुप खड़ी हो जाती और इशारे से पूछती चाय या खाने के लिए, वह चेहरा याद कर मैथिली के चेहरे पर मुस्कान पसर जाती है ।
इन सब बातों की यादों के साथ मैथिली उन कठिन दिनों में भी मां की उपस्थिति आज भी उसके मनोबल को बढ़ा जाती है ।
टीवी पर आती खबरों से विचलित मन, तब और विचलित हो गया जब विनीत को बुखार की कुछ शिकायत होने पर अस्पताल वालों ने एडमिट कर लिया ,और घर में सब को बन्द कर दिया, कितनी मुश्किल भरे दिन पर मां का यह कहना ,कुछ भी नहीं होगा देखना, मेरे रामजी है ,ना सब ठीक कर देंगे ।कितना बड़ा संबल बना मांजी का यह कहना ।मां की आंखों की नींद गायब थी पर मुझे और मिट्ठू को मांजी ने हीं संभाल रखा था ,कितनों को मैं अपना समझती थी ,पर सब अपने आप में समाये थे, किसी से उम्मीद बेमानी थी ।उस समय पर मां का तसल्ली देता हाथ कितनी उर्जा भर रहा था मेरे में ,और सच में मां के रामजी की डोर में बंधी मां की उम्मीद सच में सच ही निकली ,विनीत सात दिन में ही अस्पताल से घर आ गए। घर वापस आने की खबर फोन पर सुन मैथिली छोटे बच्चों की तरह मां से लिपट गई ।
मां की आंखों में पानी पहली बार मैथिली ने देखा ,जो विनीत के आने की खबर सुनकर आए थे ,और यह आंसू खुशी और राम जी की कृपा के लिए धन्यवाद के लिए थे। मां भागकर राम जी की तस्वीर के आगे हाथ जोड़कर आधे घंटे तक अपने रामजी से बातें करती रही ,अपने राम जी से मिलने भी हाथ जोड़े मां के साथ खड़ी रही थी अचानक मां की आंखों का सैलाब बह रहा था, मैंने ओट ले ली ।मैथिली ने विनीत को पास जाने से रोक दिया। मैथिली ने आंखों से समझाया विनीत को वह जाने दो इस सैलाब को मांजी ने अपने सैलाब को रोककर ही मेरे और मिट्ठू को संभाला है तुम्हारी अनुपस्थिति में।
कुछ सामान्य हो चुकी मां जी की आवाज मैथिली को ं सुनाई दी अरे विनीत की विनीता बेसन कहां है ,जरा ढूंढ कर दे देना, जब तक मैं अदरक ,इलायची वाली चाय बना कर रखती हूं ,मेरे विनीत को अदरक ,इलायची वाली चाय बहुत पसंद है ,जी मां जी कहकर मैथिली रसोई में आई ,तो मां जी ने दो कप चाय ,एक ट्रे में रखकर ,मैथिली को दी और कहा कि कमरे में चाय ले जाओ और तुम दोनों चाय पी लो ,विनीत को आराम की बहुत जरूरत है, मेरा विनीत बहुत कमजोर हो गया है ,अभी मैं उसके लिए बेसन का हलवा बना कर देती हूं ।
मैंने जब मांजी से पूछा मां जी आपकी चाय कहां है, आपने अपनी चाय नहीं बनाई, मां बोली मैं भगवान के लिए हलवा बनाकर और भोग लगाकर ही ,चाय पिऊंगी। मैथिली ने अपना कप भी वही रख दिया ,और कहा मैं भी आपके साथ ही राम जी का भोग लगाकर चाय पियूंगी, यह सुनकर मांजी की आंखों में आशीर्वाद और सन्तुष्टी झलक रही थी ।
यह चाय मैं उनको देकर आती हूं ,ठीक है विनीत की विनीता ।विनीत को चाय देकर वापस आकर, मां को बेसन देकर ,मां की तल्लीनता निहारती रही ।मां मां ही रहती है, चाहे बच्चे कितने भी बड़े हो जाए ।
मांजी ने श्रद्धा से अपने राम जी के लिए भोग तैयार किया ।रामजी को भोग लगा कर सबसे पहले मिट्टू को खिलाया ।मिट्ठू बोला दादी आपने बहुत टेस्टी हलबा बनाया ,मांजी बोली भगवान को भोग लगेगा वही खाना स्वाद लगेगा ।हां हां वही टेस्टी ।
तब से मिट्ठू जो भी खाने को लेता आ कर मेरे पास सबसे पहले भगवान को भोग लगवा कर ,कहता मां अब यह टेस्टी हो गया खाने की हर चीज़ को मुझे भोग लगाने को दिया करता है ,चाहे वह चॉकलेट ही क्यों ना हो। कितनी बातें दिमाग में चलती रहती हैं मैथिली के बालकनी में बैठे-बैठे ।माजी की बातें और रहन-सहन अपनाने को कितना व्याकुल होने लगी है अब मैथिली पर ,मांजी जैसी जीवटता और मांजी जैसा धैर्य की परछाई भी अपने आप में नहीं पाती है मैथिली ।
कितनी हैरान होती है ,सोच कर कि मांजी आधुनिक आडंबरों में लिपटने कीे जगह अपनी परंपराओं में कैसी दमक रही है।
मेरा अपने आप को मॉडर्न कहना और आधुनिक रहन-सहन , मांजी के व्यक्तित्व के आगे बौना होता जा रहा है ।क्या मैं अपने से अलग सोच वाले को अपना बना सकती थी ,मां जी ने अपनों को अपना बनाने का हुनर सिखाया मुझे ।मां आप केवल मां हो ,हम सब की ।इन्हीं बातों की मधुरता और उष्मा में अपने समय में और व्यवहार में रंग भरती हुई और मांजी की बातों में लिपटी मैथिली को पास में रखें फोन की घंटी ने सहसा सोई सी मैथिली को जगा सा दिया ।फोन देखते ही मां जी नमस्ते, मांजी क्या कर रही थीं आप, कैसी हैं आप ,आसपास में सब कैसे हैं, एक साथ बहुत सारे छोटे चंचल बच्चे की तरह ठेरों बातें पूछ डालीं मैथिली ने मांजी से ।
मांजी बिल्कुल भी मन नहीं लग रहा है हम लोगों का ,मिट्ठू तो उदास होकर कमरे में सोया ही रहता है ,विनीत को तो आपके हाथ की चाय की आदत सी पड़ गई है ,सब कुछ अस्त-व्यस्त है,हमने जान लिया है, हर बात के तजुरबे का तजुरबा है आपके पास, आपके साथ रहकर ही हमनें जाना कि घने वृक्ष की छाया में रहकर ही हम निखर कर अपनी पहचान बना सकते हैं ।
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