सविता ताई
मुखर्जी साहब रेलवे विभाग में काम करते हुए एक अच्छी पोस्ट से रिटायर हुए ।
चार बेटे और दो बेटियों के माता-पिता, मुखर्जी दंपत्ति अपनों और अपने सामाजिक परिवेश में अपने सौम्य और आकर्षक व्यक्तित्व से सब को सम्मोहित कर लेते। मुखर्जी साहब तो रेलवे विभाग की लंबी ड्यूटी ,बहुत ईमानदारी और कर्मठता से निभाते ,और उनकी पत्नी घर गृहस्थी के एक एक मोती को बड़े करीने से सहेजतीं।
पिता की अनुपस्थिति में सभी बच्चों को कर्मठता के साथ संस्कारित और शिक्षा के प्रति विशेष रूचि को जागरूक करने का धर्म सविता ताई निभाती ।
हां इसी नाम से सब बुलाते थे हम सब ,मुखर्जी साहब की पत्नी को ।उनके चेहरे की चमक और सौम्यता हर किसी को खुशी प्रदान करती।बहुत ही धैर्य भरा हुआ था ,उनकी आंखों में। कद ज्यादा लंबा ना था ,सविता ताई का अपने पति से कद में बहुत छोटी थीं ,पर दोनों की जोड़ी देखने में बहुत सुखद लगती ।कोलकाता से नौकरी के सिलसिले में मुखर्जी दादा बरेली आए और वही की निराली दुनिया उनको ऐसी भायी की रेलवे से मिले क्वार्टर होने पर भी पास की कॉलोनी में नौकरी के बाद रहने के लिए अपना घर बना लिया। कोलकाता से उठे कदम फिर कभी वापस ना हो पाए ।
ऐसा ही तो होता है ,अपने पनपने की जगह से दूर कहीं खिलते हैं अक्सर लोग ,और वही नई अजनबी दुनिया और अजनबी लोगों में जकड जाते हैं ,और अजनबियों के चक्रव्यूह के मोह में फंसकर हम निकलने की कोशिश ही नहीं करते या भूल जाते हैं ,हम अपने धरातल को जहां हम प्रस्फुटित हो खिलने की कोशिश में हाथ पैर मार रहे थे, पर फिर भी वह कोशिशें ही तो हमें धरातल देती हैं।
सविता ताई को सलीके से रहना और घर को सलीके से संभालना बेहद पसंद रहा।
माथे पर बीचोबीच बड़ी लाल बिंदी उनके सौंदर्य को निखारती, गोरे और भरे चेहरे पर उभरे नैन नक्श की आभा को कान में स्वर्ण कुंडल स्वर्णिम कर देते थे।
सुनहरी किनारी की चटक रंग की साडियां सविता ताई की पसंद को गरिमा प्रदान करती़। सलीके से बंगाली साड़ी पहनना और शाम को टहलने के बहाने जो भी मिलता उसके साथ दो बात जरूर करती सविता ताई को कोई अगर दो दिन ना दिखाई देता ,उसके घर पहुंच जाती और बहुत दिनों बाद मिल रही हो ऐसा महसूस करते सब लोग ।सविता ताई को सभी लोगों को अपने घर बुलाकर आव भगत करना बहुत अच्छा लगता ।
उनके द्वारा किया गया मिठास भरा आग्रह, भोजन के स्वाद को बढ़ा देता ।सामाजिकता की सतरंगी छटा में निखरती सविता ताई बच्चों के भविष्य को लेकर बहुत सजग रहीं।पढ़ाई के समय पढ़ाई सिर्फ पढ़ाई पर इस सब के साथ किताबी कीड़ा ना बन जाए इसको ध्यान में रखते हुए सब के साथ मिलने जुलने के संस्कार भी रोप दिए ।
ताई की लगन और अनुशासन का अच्छा परिणाम मिला बच्चों के उच्च पदों पर पहुंच जाने से ।
बच्चों के प्रति सविता ताई के समर्पण को देखकर मुखर्जी दादा सदैव संतुष्ट रहते ।जिस दिन दादा की छुट्टी होती है उस दिन ताई पूरे दिन घर में काम में लगी रहती और कहीं से कोई बुलाता तो यही कहना रहता ताई का ,नहीं आज नहीं आ सकती ,आज तुम्हारे दादा घर पर हैं ।
दादा की पसंद की हर चीज बनाने की कोशिश करती रहती ,और हां ढेरों बातें करते मुखर्जी दादा और सविता ताई नये नवेलों की तरह, और छुट्टी वाले दिन पूरा परिवार काली मंदिर जरूर जाता और वापसी में सविता ताई के बालों में लगा बेले का गजरा खूब महकता।
वक्त महकते महकते बहुत आगे भाग आया, हम भी साथ रहे ,वक्त की भागमभाग की आपाधापी में कुछ छूटा तो बहुत कुछ साथ भी रहा और नया जुड़ता चला गया ।
बच्चों को एक कदम उठाकर सलीके और धैर्य से बढ़ाना सिखाते सिखाते ,बच्चों का घर बार बसा देने वाली सविता ताई के चेहरे की रौनक वही की वही रही।
दैनिक कार्यों में दिनचर्या कभी ना बदली ,बच्चों का अपने कार्य क्षेत्र में बसने के लिए सविता ताई ने सदैव उत्साहित किया ।
अपने अकेलेपन की आहट केवल सविता ताई ने हीं सुनी और मुखर्जी दादा से हमेशा सविता ताई यही कहती ,अरे हम दोनों ने अकेले ही तो जिंदगी के कैनवास पर रंग भरने शुरू किए थे ,मैं हूं ना आपका ध्यान रखने के लिए ,बुढ़ापे को पास में ना आने दूंगी ।
बहुत तारीफ करते थे, बाहर की अदरक ,इलायची वाली चाय की अब पीना मेरे हाथ की चाय, काढ़ा बनाकर पिलाऊंगी ।
अब हम दोनों अपनी जिंदगी के कैनवास पर नए नए रंग भरेंगे । सविता ताई और मुखर्जी दादा से उनके बच्चे काफी अटैच रहे ,तो छुट्टियों के मिलते ही कोई ना कोई आ ही जाता ,, ताई की चारों बहुए सर्विस वाली ना थी घर संभालना और जोड़ना कोई छोटी जिम्मेदारी नहीं होती यह उन लोगों से घर संभालने की छोटी सी आशा सविता ताई बहूओं से करती।
बारी बारी से बच्चे एक दो दिन की छुट्टी लेकर आते और मुखर्जी दंपत्ति के उत्साह की चमक चारों ओर फैल उठती और दमक जाता मुखर्जी दादा और सविता ताई का घर आंगन ।
सविता ताई का सभी बच्चों को आदेश देना या निवेदन करना कुछ भी कह सकते हैं रहा कि दशहरे पर उनके सभी बच्चे अपने अपने परिवार के साथ दश दिन की छुट्टी लेकर उनके पास आएंगे ही आएंगे और सभी लड़के लड़कियां अपने अपने परिवार के साथ एक निश्चित दिन पहुंच जाते ।
मुखर्जी दादा के घर आंगन में हफ्ते भर पहले से ही सविता ताई की रसोई महक उठती पकवानों से, सविता ताई अपनी बहुओं को भी बेटी कहकर बुलाती मोहल्ले में सभी को पता होता होता कि मुखर्जी परिवार में दशहरे की छुट्टियों में रौनकें आ रही है ,फिर भी सविता ताई हर किसी को बताती ,दशहरे पर हमारे बच्चे अपने अपने बच्चों के साथ आ रहे हैं ।
बच्चों के आने पर मुखर्जी परिवार एक दिन धार्मिक आयोजन जरूर करता और सभी मोहल्ला पड़ोस को बुलाता और सभी के भोजन की भी व्यवस्था करती सविता ताई ।
सविता ताई का यही कहना होता हमारे बच्चे भी तो जाने की उनकी मां बाबा कितने अच्छे लोगों के बीच में रहते हैं और हमारे फ्रिक में कभी परेशान ना हो ।खुशियों का सैलाब हर साल आता और घर के कण-कण में चहल-पहल की आहटें छोड़ जाता ।
मुखर्जी दंपत्ति अपने बुढ़ापे के एहसास को अपनी जिंदादिली से हमेशा छिटकते रहे ।हमेशा प्रसन्न रहते ,पर बच्चे अब उनको अपने साथ रखना चाहने लगे ,कुछ कुछ समय बाद आता कोई बेटा अपने साथ चलने का आग्रह करता ,मुखर्जी दंपति कभी भी नहीं गए अपने बेटों के पास रहने ।बच्चे ही आते रहते थे ,सविता ताई कभी भी तैयार ना थी किसी बेटे के पास जाकर रहने के लिए ,पर मुखर्जी दादा हारने लगे स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के कारण ।सविता ताई के लिए चुनौती बनने लगी मुखर्जी दादा की शारीरिक समस्या ।
मुखर्जी दादा का हमेशा यही कहना रहता मैं अपने घर में अपने सभी बच्चों को एक साथ बुलाता हूं ,यह मेरे बच्चों का घर है ,बेटों के घर जाकर मैं खुद मेहमान बन जाऊंगा और मेरे बच्चे मेरे पास औपचारिकता निभाने आएंगे और मैं भी अपने बच्चों को एक साथ बुलाने के लिए दश बार सोचूंगा ,इस घर में मेरी जड़े हैं अपनी जड़ों से जुड़ा हूं तभी तक स्थिर हूं ।मुखर्जी दादा और सविता ताई कभी सोच भी नहीं सकते थे अपनी जड़ों या अपने समाज से दूर होने की। अपनी जड़ों से दूर होने का मतलब दूर क्षितिज पर बसने जैसा था ,पर सब इतनी जल्दी हुआ कि किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी, आखिरकीर मुखर्जी दादा मकान बेचकर बेटों के साथ नए कलेवर में जुड़ने को चले गए ।बरसों बीत जाने पर भी आज भी मुखर्जी दादा के घर को सविता ताई के घर से ही बुलाया जाता है ,नए मालिक उस घर को अपना नाम अपनी पहचान ना दे सके ।
अपने अनुशासित बच्चों के बीच रहने के मुखर्जी दंपत्ति थोड़े थोड़े दिन कभी किसी बेटे के पास रहते ,तो कभी किसी दूसरे बेटे के पास ।
कभी उनके परिचितों से ही पता चला कि मुखर्जी साहब के भटकाव की बातें ।
मुखर्जी दादा अपने पास ,अपने सभी बच्चों को एक साथ देखने को तरस गए ।मुखर्जी दादा सबकी जिम्मेदारियां उठाने में रच बस जाने वाले ,खुद एक जिम्मेदारी बन गए। इस जिम्मेदारी को सभी बच्चे एक-दूसरे पर धीरे-धीरे थोपने लगे ।
सविता ताई मुखर्जी दादा की पूरी कर्मठता से सेवा करती रहीं,पर साथ ही साथ बच्चों के बीच दूरियों की डोरी कांपते हाथों से बटने की कोशिश करते सविता ताई और मुखर्जी दादा ।सविता ताई मुखर्जी दादा से कहती हमने जिंदगी की कैनवास पर तरह-तरह के रंग भरे यह मटमैला रंग भी सही ।
मुखर्जी दादा सविता ताई की बात को सुन यही कहते यह मटमैला रंग अब मुझे बोझ सा लगता है ।
मेरे कंधों में इसको ढोने की बिल्कुल भी ताकत नहीं, सविता तुम तो सविता हो, मुझे इस अंधकार से दूर ले चलो मुझे सवेरे की कुछ रोशनी चाहिए ।
मुझे मेरे घर के आंगन में ले चलो ,कुछ सांसे सुकून की चाहिए ।वो मेरा आंगन जहां मेरे बच्चों से रौनक थी, जहां तुमको देख कर मेरा दिन निखरता था ,वह मेरा घर है ।
सच में मुखर्जी दादा आप कितनी भी दूर क्यों ना हो ,यह घर आपका ही रहेगा, जिस घर को को सविता ताई ने वर्षों सींचा और करीने से संजोया था, उसके कण-कण में ताई की सुगंध समाई है ।
मालिक बदलने से घर की पहचान नहीं बदल जाती कितनी भी नई नाम पट्टिका बदल लो यह घर सविता ताई और मुखर्जी दादा का ही है।