कस्तूरी दादी और बंटवारे का दंश
कस्तूरी दादी रोज शाम को बच्चों की तरह पार्क में जाने के लिए घड़ी देखती रहती ,और इधर मैं भी रोज पार्क में जाने के लिए मचलते बच्चों को लेकर पहुंच जाती ,बच्चे भी बंद घरों की बंदिशों से निकल, अपने हम उम्र बच्चों को पाकर बहुत खुश होते ।
पार्क में खिले चारों तरफ पेड़ पौधे भी इन बच्चों का साथ पाने के लिए शाम का इंतजार करते ।
तरह तरह के खेल बच्चे अपने दिमाग से ही तैयार कर लेते और खेल खेल कर आनंदित होते ।
कस्तूरी दादी अभी नई नई आई थी और साथ में कितना कुछ भरा पड़ा था ,उनके पास कहने के लिए ,पर चुप रहती थी ,पर उनकी आंखें बहुत कुछ बोलना चाहती थी ।
अच्छा लगने लगा ,मुझे उनके पास बैठने में और फिर उनकी यादों की परतें खुलने लगी ।
उनकी यादों को मैं स्तब्ध हो, मौन होकर सुनती रहती और महसूस करती ,कि उनकी जिंदगी में कितना मर्म ,दर्द ,पीड़ा होने पर भी आंखों में शांति कैसे संभव है ?
इतनी पीड़ा पीने वाली दादी जिंदगी के आखरी पडाव में पहुंचने पर भी जिंदगी के हर दर्द को कैसे स्वीकारती गई ।कभी किसी दर्द से आक्रांत नहीं ,कभी किसी पीड़ा का विरोध नहीं ,
कस्तूरी दादी ने बंटवारे का दंश झेला है ,तेरह साल की थी, शादी हो चुकी थी उनकी, उस समय वह ससुराल में थी। पंजाब में नई नवेली बहू को चटख रंग के कपड़ों में और जेबरों से सजाकर रखना अपनी बिरादरी में सम्मान की बात होती थी ।
कस्तूरी दादी अपनी ससुराल में सास ससुर की लाडली बहू थी ।सास के पास बेटी ना थी और उनके ससुराल में कदम रखते ही ससुर की तरक्की हुई थी, तो सास तो लक्ष्मी का स्वरूप मानती थी और लाड में अपने हाथ से खाना तक खिलाती और अपने साथ हमेशा रखती ।छह भाई बहनों में सबसे बड़ी थी ।कस्तूरी दादी के दादी दादा बहुत प्यार करते थे ,छोटी उम्र में ही उस जमाने में शादियां होती थी। दादा ने पास पास के गांव में ही अच्छा परिवार देखकर 11 साल की उम्र में कस्तूरी दादी की शादी कर दी।
दोनों परिवार में बहुत प्यार मिला ,कस्तूरी दादी आज भी बातें करती हैं तो अपने बचपन में ही दादा-दादी और ससुराल के बीच होती हैं ।कस्तूरी दादी के पास बहुत कुछ होता है ,बताने के लिए ,और मौन होकर सुनती रहती हूं मैं कस्तूरी दादी की बातें ।
कस्तूरी दादी की बातें बढ़ते-बढ़ते बंटवारे को याद कर बहुत देर मौन हो जाती हैं ।खामोशी को चीरती खामोशी ।
कितना कुछ था दादी के पास ,अचानक रीती रीती हो गई जिंदगी कस्तूरी दादी की ।
कुछ नहीं ,कुछ भी तो नहीं बचा दादी का, ठहरे हुए पानी में जैसे कंकर मार भंवर पैदा कर दी हो किसी ने ,सहसा चंचल पानी की तरह चौक जाती है कस्तूूरी दादी।
गांव वालों के साथ उनके ससुराल और मायके के परिवार गांव में फैले आतंक से बचने के लिए साथ ही साथ तो निकले थे ,धीरे-धीरे काफिला ंजगह जगह घटता गया। अपनी अपनी जान बचाने के लिए लोग बेतहाशा भाग रहे थे, छूटता जा रहा था बतन और लोगों का साथ ।
बेहद क्रूर समय ,भूख प्यास ,कपड़े लत्ते कुछ भी ना था साथ ।कोई आतंक से मर रहा था ,कोई भूख से ,पर अपनों के लिए भी कोई भी रुक ना रहा था
कस्तूरी को याद नहीं आता कि वह किसके साथ करनाल में लगे रिफ्यूजी कैम्प में पहुंची ।
सब कुछ या स्वयं को छोड़कर कुछ भी नहीं ,कुछ भी ना पास था कस्तूरी दादी के पास ,मायके का ,ससुराल का कोई भी नहीं ।अपने बंदों की आहट तक खो चुकी थी ।
अकेली केवल अकेली कस्तूरी दादी ,कैंप में भटकती गांव की बुआ को, कस्तूरी दिखी तो उसे देखकर सीने से कस्तूरी कस्तूरी कहकर ऐसे सीने से लगाया ,बहुत देर तक छोड़ा ही नहीं ।
फिर बुआ कस्तूरी दादी की परछाई बनकर रहती ,पल भर भी अलग ना करती ।बुआ ने हीं अपने साथ आए परिवार के लड़के से कस्तूरी दादी की शादी करवा दी। बुआ कस्तूरी दादी की जिम्मेदारी को जिम्मेदार के हाथ में सौंपना चाहती थी ।
धीरे-धीरे दादी यादों का लबादा छोड आगे बढ़ने के लिए कदम उठाने की कोशिश करने लगी ।
तीन लड़कियों और दो बेटों के बीच समय भागने लगा। सरदार जी ने चाय की दुकान के सहारे जिन्दगी का सफर शुरू किया और छोटा सा ढाबा डाल लिया ,दादी भी रात दिन मेहनत करती ।दोनों की मेहनत के आगे कड़वी यादेंअपना रास्ता बदल चुकी थी ।
ढाबे के पास में शहर के किसी आदमी ने, उनीं कपड़ों की फैक्ट्री लगाई ,तो कस्तूरी दादी वहां से ऊन की लच्छियां लाकर रात में गोले बनाती।
दादा-दादी अपनेआप को कामों में इतना उलझा कर रखते कि कहीं कोई पुरानी याद झलक ना पड़े। चुप ही रहते दोनों ,कम बातें करते पर साथ में रहने से पैदा हुआ लगाब गहराता जा रहा था ।
कस्तूरी दादी के पति ने पास की फैक्ट्री में रात की ड्यूटी में काम करना शुरू कर दिया ।
धीरे-धीरे बच्चे बड़े होते जा रहे थे ,।तीनों लड़कियां शादी होकर अपने घर चली गई ।
दोनों बेटों की भी शादी हो गई ।
बड़े बेटे की पत्नी घर में रहती थी ,पर छोटे बेटे की पत्नी शादी से पहले सरकारी नौकरी करती थी ,तो सरकारी नौकरी छोड़ी नहीं जाती ।अकेले सारा काम बड़ी बहू करें और जिम्मेदारियों का झंझट बढ़ने लगा परिवार में ।
मन में बढ़ी दूरी ने दोनों भाइयों के घरों को दूर दूर कर दिया ।
कोई भी बेटा मां-बाप दोनों की इकट्ठी जिम्मेदारी उठाने को तैयार ना हुआ, छोटी बहू तो सरकारी नौकरी वाली थी और और उसके बच्चे भी छोटे थे ,तो मां को छोटे बेटे ने अपने पास रखने में सहमति दिखाई,
बड़े बेटे बहू के पास पैसों की कमी थी और बड़े बेटे की आर्थिक स्थिति कुछ खर्चों के हिसाब से कमजोर थी ,तो उनके हिस्से पिता की पेंशन के साथ पिता की जिम्मेदारी आई ।
बचपन में हुई शादी के पति को कस्तूरी दादी ने ,बंटवारे के दंशमें खोया ,और दूसरी शादी के पति को बेटों ने अपनी सुविधानुसार बंटवारे की भेंट चढ़ा दिया।