घर का अस्तित्व
सुनैना का दिन सुबह चार बजे से घर के कामों से शुरू होकर दोपहर बारह बजे तक,थोड़ा सा थमता ,सुबह 5:00 की बस पकड़नी होती है उसके पति और देवर को ,दूसरे शहर में अपने ऑफिस पहुंचने के लिए ।
दोनों को तैयार होने के लिए एक-एक सामान हाथ में पकड़ाना ,गरमा गरम दो बार चाय बना कर उन दोनों को देना ,दो समय का अलग-अलग लंच पैक बना कर देना ,सुबह-सुबह तो कोई नाश्ता कर नहीं सकता,तो दोनों भाई अपने-अपने ऑफिस में पहुंचने पर ऑफिस में नाश्ता करते ।
इधर सुनैना दोनों भाइयों के घर से ऑफिस के लिए निकलने के बाद किचन का काम समेटकर ,उसके बाद अपने सास ससुर के लिए चाय बना कर देती,अब डॉक्टर ने सास ससुर को खाली चाय पीने से मना कर दिया है ,तो कुछ हल्का सा नाश्ता बनाती साथ में ,अपने लिए भी एक कप चाय बना लेती ,अपने सास ससुर को चाय नाश्ता देकर फिर अपनी चाय पीकर ,बच्चों को जगाती उन्हें स्कूल के लिए तैयार करती,दोनों बच्चों का स्कूल साढ़े आठ बजेका है,तो उनको तैयार करके नाश्ता करके,बैग पैक करके बच्चों को स्कूल की बस में बैठा कर आती,फिर जल्दी-जल्दी फैली हुई रसोई को समेटकर घर में साफ सफाई करके ,सबके कपड़े मशीन में धोने के लिए डालकर चला देती।
इस सबके साथ दोपहर के खाने की फिक्र फिर रसोई में सुनैना को उलझा लेती।
दोपहर में बच्चों के स्कूल से आने पहले, सुनैना अपने सास ससुर को दोपहर का खाना बनाकर थाली में परोस कर दे देती ,और साथ-साथ ही दोनों को अलग-अलग उनकी दवाई भी देती ।
बच्चों के आने पर उनके कपड़े बदलकर फिर बच्चों के साथ खुद खाना खाती ,फिर थोड़ा आराम करने के बाद,फिर से घर के कामों के ओर छोर पकडने को तैयार हो जाती ।
कभी-कभी सुनैना के दिमाग में एक विचार घूम जाता कि मेरा अस्तित्व केवल घर के कामों में ही उलझना रह गया है ,कभी किसी को मैं थकी हुई नजर नहीं आती ,किसी भी काम में या किसी की फरमाइश में जरा सी चुक क्या हो जाए बच्चे से लेकर बड़ों तक के सुर तेज हो जाते हैं ।-
कभी बर्तनों की तेज आवाज सुनैना की सास को परेशान कर देती। एक दिन सुनैना की सास ने दो कप चाय बनाकर लाने को सुनैना से कहा,और जब सुनैना चाय बनाकर सासू मां को देने गई,तो सासु मां ने उसे अपने पास बैठा लिया और एक कप चाय सुनैना को देते हुए कहा ,बहू पहले मैं सोचती थी,कि हम औरतों का काम घर की दहलीज के पीछे रहने का ही रह गया है,बाहर की खुली हवा केवल आदमियों के लिए ही है ।
मेरी सोच मुझे हमेशा परेशान करती, जब दोनों बच्चे छोटे ही थे तभी तेरे बापू जी की फैक्ट्री की नौकरी छूट गई ,पर तेरे ससुर जी ने घर में ना बताया ,अपने रोज के टाइम पर ही निकलते और आने के टाइम पर वापस आते ।तेरे बापू जी ने किसी दुकान पर काम करना शुरू कर दिया ,दुकान खोलने से पहले मंदिर के आगे छोटी-मोटी चीजों को लेकर बेचने के लिए बैठ जाते।
आगे पीछे किसी तरह से घर के खर्च करने को पैसे देते । कभी-कभी कम पैसे देखकर मैं भडक जाती थी तो यह चुप रहते । तेरे ससुर जी जब सुबह घर से निकलते तो उनके हाथ में बच्चे अपनी जरूरत की चीजों की लिस्ट पकड़ा देते ,अचानक एक दिन जिस दुकान पर यह काम करते थे, दुकान से एक आदमी आया ,इनकी अचानक तबीयत खराब हो गई थी उस आदमी ने बताया कि बाबूजी की तबीयत खराब हो गई है आप जल्दी से आ जाओ डॉक्टर के पास ले जाना है,तब मुझे पता चला कि तेरे ससुर जी की फैक्ट्री की नौकरी छूट गयी है,यह बहुत दिनों से फैक्ट्री में न जाकर किसी दुकान पर काम कर रहे हैं ।
दूसरे दिन बच्चों की स्कूल में फीस जमा करनी थी उसका इन्तजाम करने के लिए उन्होंने किसी जरूरतमंद को अपना खून देकर उससे फीस के पैसों की व्यवस्था की थी और मैंने किसी जरूरत के पैसे पूरे ना होने पर तेरे ससुर जी से झगड़ा किया था और यह दूसरे दिन बिना कुछ खाए पिए घर से निकले थे तब यह कमजोरी के कारण दुकान पर जाकर बेहोश हो गए, असलियत पता चलने पर मुझे अपनी गलतियों का अहसास हुआ ,मैं उस दिन अपनी ही नजरों में गिर गई, उस दिन मुझे अपनी माँ की बात बहुत याद आई कि घर को घर बनाने के लिए स्त्री को घर की दहलीज के भीतर और पुरुष को दहलीज के बाहर जिम्मेदारियों को निभाने के लिए न जाने कितने समझोते करने पडते हैं । अपने घर का और अपने बच्चों का अस्तित्व बनाने के लिए पति पत्नी दोनों को अपना अपना व्यक्तिगत अस्तित्व अपने परिवार के लिए समर्पित करना होता है ,तभी गृहस्थी की गाड़ी पटरी पर अच्छे से चलती है।
अपनी सासू मां की बातों को सुनकर सुनैना को महसूस होने लगा था बाहर की दुनिया भी आदमियों के लिए सहज नहीं होती ,तरह-तरह की चुनौतियां आदमियों के हिस्से भी आती हैं।अपनी जिम्मेदारियां को बोझ समझना मेरी बेवकूफी है , घर के अंदर और घर की चौखट के बाहर की दुनिया में अपना अस्तित्व बनाने के लिए दोनों पति पत्नी का सहयोग और समर्पण जरूरी है, तभी घर में सुख शांति रहती है।
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