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द्वितीय अंक

25 मार्च 2022

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द्वितीय अंक आरम्भ

प्रियवचनशतोअपि योषितां दयितजनानुनयो रसादृते,

प्रविशति हृदयं न तद्विदां मणिरिव कृतिमरागयोजित:

-विक्रमोर्वशीयं

[प्रतिष्ठानपुर का राजभवन : पुरुरवा की महारानी औशीनरी अपनी दो सखियों के साथ]

औशीनरी

तो वे गये?

निपुणिका

गये ! उस दिन जब पति का पूजन करके

लौटीं, आप प्रमदवन से संतोष हृदय में भरके

लेकर यह विश्वास, रोहिणी और चन्द्रमा जैसे

हैं अनुरक्त, आपके प्रति भी महाराज अब वैसे

प्रेमासक्त रहेंगे, कोई भी न विषम क्षण होगा,

अन्य नारियों पर प्रभु का अनुरक्त नहीं मन होगा,

तभी भाग्य पर देवि ! आपके कुटिल नियति मुसकाई,

महाराज से मिलने को उर्वशी स्वर्ग से आई ।

औशीनरी

फिर क्या हुआ ?

निपुणिका

देवि, वह सब भी क्या अनुचरी कहेगी ?

औशीनरी

पगली ! कौन व्यथा है जिसको नारी नहीं सहेगी ?

कह्ती जा सब कथा, अग्नि की रेखा को चलने दे,

जलता है यदि हृदय अभागिन का,उसको जलने दे ।

सानुकूलता कितनी थी उस दिन स्वामी के स्वर में !

समझ नहीं पाती, कैसे वे बदल गए क्षण भर में !

ऐसी भी मोहिनी कौन-सी परियाँ कर सकती हैं,

पुरुषों की धीरता एक पल में यों हर सकती हैं !

छला अप्सरा ने स्वामी को छवि से या माया से?

प्रकटी जब उर्वशी चन्द्नी में द्रुम की छाया से,

लगा, सर्प के मुख से जैसे मणि बाहर निकली हो,

याकि स्वयं चाँदनी स्वर्ण-प्रतिमा में आन ढली हो;

उतरी हो धर देह स्वप्न की विभा प्रमद-उपवन की,

उदित हुई हो याकि समन्वित नारीश्री त्रिभुवन की ।

कुसुम-कलेवर में प्रदीप्त आभा ज्वालामय मन की,

चमक रही थी नग्न कांति वसनो से छन कर तन की ।

हिमकण-सिक्त-कुसुम-सम उज्जवल अंग-अंग झलमल था,

मानो, अभी-अभी जल से निकला उत्फुल्ल कमल था

किसी सान्द्र वन के समान नयनों की ज्योति हरी थी,

बड़ी-बड़ी पलकॉ के नीचे निद्रा भरी-भरी थी ।

अंग-अंग में लहर लास्य की राग जगानेवाली,

नर के सुप्त शांत शोणित में आग लगानेवाली ।

मदनिका

सुप्त, शांत कहती हो?

जलधारा को पाषाणों में हाँक रही जो शक्ति,

वही छिप कर नर के प्राणों में दौड़-दौड़

शोणित प्रवाह में लहरें उपजाती है,

और किसी दिन फूट प्रेम की धारा बन जाती है ।

पर, तुम कहो कथा आगे की, पूर्ण चन्द्र जब आया,

अचल रहा अथवा मर्यादा छोड़ सिन्धु लहराया ?

निपुणिका

सिन्धु अचल रहता तो हम क्यों रोते राजमहल में?

जलते क्यों इस भांति भाग्य के दारुण कोपानल में ?

महाराज ने देख उर्वशी को अधीर अकुलाकर,

बाँहों में भर लिया दौड़ गोदी में उसे उठाकर

समा गई उर-बीच अप्सरा सुख-सम्भार-नता-सी,

पर्वत के पंखों में सिमटी गिरिमल्लिका-लता-सी ।

और प्रेम-पीड़ित नृप बोले, “क्या उपचार करुँ मैं?

सुख की इस मादक तरंग को कहाँ समेट धरु मैं?

गहा चाहता सिन्धु प्राण का कौन अदृश्य किनारा?

छुआ चाहती किसे हृदय को फोड़ रक्त की धारा?

कौन सुरभि की दिव्य बेलि प्राणों में गमक उठी है?

नई तारिका कौन आज मूर्धा पर चमक उठी है?

किस पाटल के गन्ध-विकल दल उड़कर अनिल-लहर में

मन्द-मन्द तिर रहे आज प्राणों के मादक सर में?

सुगम्भीर सुख की समाधि यह भी कितनी निस्तल है?

डूबें प्राण जहाँ तक, रस-ही-रस है, जल-ही-जल है ।

प्राणों की मणि! अयि मनोज्ञ मोहिनी! दुरंत विरह में

नहीं झेलता रहा वेदनाएँ क्या-क्या दुस्सह मैं?

दिवा-रात्रि उन्निद पलों में तेरा ध्यान संजोकर

काट दिए आतप, वर्षा, हिमकाल सतत रो-रोकर ।

विदा समय तूने देखा था जिस मधुमत्त नयन से,

वह प्रतिमा, वह दृष्टि न भूली कभी एक क्षण मन से ।

धरते तेरा ध्यान चाँद्नी मन में छा जाती थी,

चुम्बन की कल्पना मन में सिहरन उपजाती थी ।

मेघों में सर्वत्र छिपी मेरा मन तू हरती थी,

और ओट लेकर विधु की संकेत मुझे करती थी ।

फूल-फूल में यही इन्दु-मुख आकर्षण उपजाकर,

छिप जाता सौ बार बिहँस इंगित से मुझे बुलाकर ।

रस की स्रोतस्विनी यही प्राणों में लहराती थी,

दाह-दग्ध सैकत को, पर, अभिसिक्त न कर पाती थी ।

किंतु, आज आषाढ, घनाली छाई मतवाली है,

मुझे घेरकर खड़ी हो गई नूतन हरियाली है ।

प्राणेश्वरी! मिलन-सुख को, नित होकर संग वरें हम,

मधुमय हरियाले निकुंज में आजीवन विचरें हम”

औशीनरी

आजीवन वे साथ रहेंगे? तो अब क्या करना है?

जीते जी यह मरण झेलने से अच्छा मरना है

निपुणिका

मरण श्रेष्ठ है, किंतु, आपको वह भी सुलभ नहीं है ।

जाते समय मंत्रियों से प्रभु ने यह बात कही है;

”एक वर्ष पर्यंत गन्धमादन पर हम विचरेंगे,

प्रत्यागत हो नैमिषेय नामक शुभ यज्ञ करेंगे.”

विचरें गिरि पर महाराज हो वशीभूत प्रीता के,

यज्ञ न होगा पूर्ण बिना कुलवनिता परिणिता के ।

औशीनरी

इसी धर्म के लिए आपको भुवनेश्वरी जीना है

हाय, मरण तक जेकर मुझको हालाहल पीना है

जाने, इस गणिका का मैने कब क्या अहित किया था,

कब, किस पूर्वजन्म में उसका क्या सुख छीन लिया था,

जिसके कारण भ्रमा हमारे महाजन की मति को,

छीन ले गई अधम पापिनी मुझसे मेरे पति को ।

ये प्रवंचिकाएँ, जानें, क्यों तरस नहीं खाती हैं,

निज विनोद के हित कुल-वामाओं को तड़पाती हैं ।

जाल फेंकती फिरती अपने रूप और यौवन का,

हँसी-हँसी में करती हैं आखेट नरों के मन का ।

किंतु, बाण इन व्याधिनियों के किसे कष्ट देते हैं?

पुरुषों को दे मोद प्राण वे वधुओं के लेते हैं

निपुणिका

पर, कैसी है कृपा भाग्य की इस गणिका के ऊपर!

बरस रहा है महाराज का सारा प्रेम उमड़कर ।

जिधर-जिधर उर्वशी घूमती, देव उधर चलते हैं

तनिक श्रांत यदि हुई व्यजन पल्लव-दल से झलते हैं ।

निखिल देह को गाढ़ दृष्टि के पय से मज्जित करके

अंग-अंग किसलय, पराग, फूलों से सज्जित करके,

फिर तुरंत कहते “ये भी तो ठीक नहीं जंचते हैं ‘’

भाँति-भाँति के विविध प्रसाधन बार-बार रचते हैं

और उर्वशी पीकर सब आनन्द मौन रहती है

अर्धचेत पुलकातिरेक में मन्द-मन्द बहती है

मदनिका इसमें क्या आश्चर्य?

प्रीति जब प्रथम-प्रथम जगती है,

दुर्लभ स्वप्न समान रम्य नारी नर को लगती है

कितनी गौरवमयी घड़ी वह भी नारी जीवन की

जब अजेय केसरी भूल सुध-बुध समस्त तन-मन की

पद पर रहता पड़ा, देखता अनिमिष नारी-मुख को,

क्षण-क्षण रोमाकुलित, भोगता गूढ़ अनिर्वच सुख को!

यही लग्न है वह जब नारी, जो चाहे, वह पा ले,

उडुओं की मेखला, कौमुदी का दुकूल मंगवा ले ।

रंगवा ले उंगलियाँ पदों की ऊषा के जावक से

सजवा ले आरती पूर्णिमा के विधु के पावक से ।

तपोनिष्ठ नर का संचित ताप और ज्ञान ज्ञानी का,

मानशील का मान, गर्व गर्वीले, अभिमानी का,

सब चढ़ जाते भेंट, सहज ही प्रमदा के चरणों पर

कुछ भी बचा नहीं पाता नारी से, उद्वेलित नर ।

किन्तु, हाय, यह उद्वेलन भी कितना मायामय है !

उठता धधक सहज जिस आतुरता से पुरुष ह्रदय है,

उस आतुरता से न ज्वार आता नारी के मन में

रखा चाहती वह समेटकर सागर को बंधन में ।

औशीनरी

किन्तु बन्ध को तोड़ ज्वार नारी में जब जगता है

तब तक नर का प्रेम शिथिल, प्रशमित होने लगता है ।

पुरुष चूमता हमें, अर्ध-निद्रा में हमको पाकर,

पर, हो जाता विमिख प्रेम के जग में हमें जगाकर ।

और जगी रमणी प्राणों में लिए प्रेम की ज्वाला,

पंथ जोहती हुई पिरोती बैठ अश्रु की माला ।

वही आंसुओं की माला अब मुझे पिरोनी होगी ।

निपुणिका

इसी भाँती क्या महाराज भी होंगे नहीं वियोगी ?

आप सद्र्श सन्नारी को यदि राजा ताज सकते हैं,

आँख मूंद स्वर्वेश्या को कब तक वे भज सकते हैं ?

औशीनरी

कौन कहे ? यह प्रेम ह्रदय की बहुत बड़ी उलझन है ।

जो अलभ्य, जो दूर,उसी को अधिक चाहता मन है ।

मदनिका

उस पर भी नर में प्रवृत्ति है क्षण-क्षण अकुलाने की,

नई-नई प्रतिमाओं का नित नया प्यार पाने की ।

वश में आई हुई वस्तु से इसको तोष नहीं है,

जीत लिया जिसको, उससे आगे संतोष नहीं है ।

नई सिद्धि-हित नित्य नया संघर्ष चाहता है नर,

नया स्वाद, नव जय, नित नूतन हर्ष चाहता है नर ।

करस्पर्श से दूर, स्वप्न झलमल नर को भाता है,

चहक कर जिसको पी न सका,वह जल नर को भाता है ।

ग्रीवा में झूलते कुसुम पर प्रीती नहीं जगती है,

जो पड़ पर चढ़ गयी, चांदनी फीकी वह लगती है

क्षण-क्षण प्रकटे, दुरे, छिपे फिर-फिर जो चुम्बन लेकर,

ले समेट जो निज को प्रिय के क्षुधित अंक में देकर;

जो सपने के सदृश बाहु में उड़ी-उड़ी आती हो

और लहर सी लौट तिमिर में ड़ूब-ड़ूब जाती हो,

प्रियतम को रख सके निमज्जित जो अतृप्ति के रस में,

पुरुष बड़े सुख से रहता है उस प्रमदा के बस में ।

औशीनरी

गृहिणी जाती हार दाँव सम्पूर्ण समर्पण करके,

जयिनी रहती बनी अप्सरा ललक पुरुष में भर के

पर, क्या जाने ललक जगाना नर में गृहिणी नारी?

जीत गयी अप्सरा, सखी ! मैं रानी बनकर हारी ।

निपुणिका

इतना कुछ जानते हुए भी क्यों विपत्ति को आने

दिया, और पति को अपने हाथों से बाहर जाने?

महाराज भी क्या कोई दुर्बल नर साधारण हैं,

जिसका चित्त अप्सराएं कर सकती सहज हरण हैं?

कार्त्तिकेय-सम शूर, देवताओं के गुरु-सम ज्ञानी,

रावी-सम तेजवंत, सुरपति के सदृश प्रतापी, मानी;

घनाद-सदृश संग्रही, व्योमवत मुक्त, जल्द-निभ त्यागी,

कुसुम-सदृश मधुमय, मनोज्ञ , कुसुमायुध से अनुरागी ।

ऐसे नर के लिए न वामा क्या कुछ कर सकती है?

कौन वस्तु है जिसे नहीं चरणों पर धर सकती है?

औशीनरी

अरी, कौन है कृत्य जिसे मैं अब तक न कर सकी हूँ ?

कौन पुष्प है जिसे प्रणय-वेदी पर धर न सकी हूँ ?

प्रभु को दिया नहीं, ऐसा तो पास न कोई धन है ।

न्योछावर आराध्य-चरण पर सखि! तन, मन, जीवन है ।

तब भी तो भिक्षुणी-सदृश जोहा करती हूँ मुख को,

सड़ा हेरती रहती प्रिय की आँखों में निज सुख को ।

पर, वह मिलता नहीं, चमक, जाने क्यों खो गयी कहाँ पर !

जानें, प्रभु के मधुर प्रेम की श्री सो गयी कहाँ पर !

सब कुछ है उपलब्ध, एक सुख वही नहीं मिलता है,

जिससे नारी के अंतर का मान-पद्म खिलता है ।

वह सुख जो उन्मुक्त बरस पड़ता उस अवलोकन से,

देख रहा हो नारी को जब नर मधु-मत्त नयन से ।

वह अवलोकन, धूल वयस की जिससे छन जाती है,

प्रौढा पाकर जिसे कुमारी युवती बन जाती है ।

अति पवित्र निर्झरी क्षीरमय दृग की वह सुखकारी,

जिसमें कर अवगाह नई फिर हो उठती है नारी ।

मदनिका

जब तक यह रस-दृष्टि, तभी तक रसोद्रेक जीवन में,

आलिंगन में पुलक और सिहरन सजीव चुम्बन में ।

विरस दृष्टि जब हुई स्वाद चुम्बन का खो जाता है,

दारु-स्पर्श-वत सारहीन आलिंगन हो जाता है ।

वपु तो केवल ग्रन्थ मात्र है,क्या हो काय-मिलन से ?

तन पर जिसे प्रेम लिखता,कविता आती वह मन से ।

पर, नर के मन को सदैव वश में रखना दुष्कर है,

फूलों से यह मही पूर्ण है और चपल मधुकर है ।

पुरुष सदा आक्रांत विचरता मादक प्रणय-क्षुधा से,

जय से उसको तृप्ति नहीं,संतोष न कीर्ति-सुधा से ।

असफलता में उसे जननी का वक्ष याद आता है,

संकट में युवती का शय्या-कक्ष याद आता है ।

संघर्षों से श्रमित-श्रांत हो पुरुष खोजता विह्वल

सर धरकर सोने को, क्षण-भर, नारी का वक्षस्थल ।

आँखों में जब अश्रु उमड़ते, पुरुष चाहता चुम्बन,

और विपद में रमणी के अंगों का गाढ़ालिंगन ।

जलती हुई धूप में आती याद छांह की, जल की,

या निकुंज में राह देखती प्रमदा के अंचल की ।

और नरों में भी, जो जितना ही विक्रमी, प्रबल है,

उतना ही उद्दाम, वेगमय उसका दीप्त अनल है

प्रकृति-कोष से जो जितना हिएज लिए आता है,

वह उतना ही अनायास फूलों से कट जाता है ।

अगम, अगाध, वीर नर जो अप्रतिम तेज-बल-धारी,

बड़ी सहजता से जय करती उसे रूपसी नारी ।

तिमिराच्छन्न व्योम-वेधन में जो समर्थ होती है,

युवती के उज्जवल कपोल पर वही दृष्टि सोती है ।

जो बाँहें गिरी को उखाड़ आलिंगन में भरती हैं,

उरःपीड-परिरंभ-वेदना वही दान करती हैं ।

जितना ही जो जलधि रत्न-पूरित, विक्रांत, गम है,

उसकी बडवाग्नि उतनी ही अविश्रांत, दुर्दम है ।

बंधन को मानते वही, जो नद, नाले, सोते हैं,

किन्तु, महानद तो, स्वभाव से ही, प्रचंड होते हैं।

निपुणिका

इस प्रचंडता का जग में कोई उपचार नहीं है ?

औशीनरी

पति के सिवा योषिता का कोई आधार नहीं है ।

जब तक है यह दशा, नारियां व्यथा कहाँ खोयेंगी?

आंसू छिपा हँसेंगी, फिर हंसते-हँसते रोएंगी ।

[कंचुकी का प्रवेश]

कंचुकी

जय हो भट्टारिके ! मार्ग भट्टारक को दिखलाने

और उन्हें सक्षेम गंधमादन गिरि तक पहुंचाने

जो सैनिक थे गए,आज वे नगर लौट आए हैं,

और आपके लिए संदेशा यह प्रभु का लाए हैं ।

"पवन स्वास्थ्यदाई, शीतल, सुस्वादु यहाँ का जल है,

झीलों में, बस, जिधर देखिए, उत्पल-ही-उत्पल है ।

लम्बे-लम्बे चीड़ ग्रीव अम्बर की ओर उठाए,

एक चरण पर खड़े तपस्वी-से हैं ध्यान लगाए

दूर-दूर तक बिछे हुए फूलों के नंदन-वन हैं,

जहां देखिए, वहीं लता-तरुओं के कुञ्ज-भवन हैं ।

शिखरों पर हिमराशी और नीचे झरनों का पानी,

बीचों बीच प्रकृति सोई है ओढ़ निचोली धानी ।

बहुत मग्न अतिशय प्रसन्न हूँ मैं तो इस मधुवन में,

किन्तु यहाँ भी कसक रही है वही वेदना मन में ।

प्रतिष्ठानपुर में भू का स्वर्गीय तेज जगता है,

एक वंशधर बिना, किन्तु, सब कुछ सूना लगता है ।

पुत्र ! पुत्र ! अपने गृह में क्या दीपक नहीं जलेगा?

देवि ! दिव्य यह ऐल वंश क्या आगे नहीं चलेगा?

करती रहें प्रार्थना, त्रुटी हो नहीं धर्म-साधन में,

जहां रहूं, मैं भी रत हूँ ईश्वर के आराधन में."

निपुणिका

सुन लिया सन्देश आर्ये ?

औशीनरी

हाँ, अनोखी साधना है,

अप्सरा के संग रमना ईश की आराधना है !

पुत्र पाने के लिए बिहरा करें वे कुञ्ज-वन में,

और मैं आराधना करती रहूं सूने भवन में ।

कितना विलक्षण न्याय है !

कोई न पास उपाय है !

अवलम्ब है सबको, मगर, नारी बहुत असहाय है ।

दुःख-दर्द जतलाओ नहीं,

मन की व्यथा गाओ नहीं,

नारी ! उठे जो हूक मन में, जीभ पर लाओ नहीं ।

तब भी मरुत अनुकूल हों,

मुझको मिलें, जो शूल हों,

प्रियतम जहां भी हों, बिछे सर्वत्र पथ में फूल हों ।

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रचनाएँ
उर्वशी
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उर्वशी रामधारी सिंह 'दिनकर' द्वारा रचित काव्य नाटक है। ... पुरुरवा के भीतर देवत्व की तृष्णा और उर्वशी सहज निश्चित भाव से पृथ्वी का सुख भोगना चाहती है। उर्वशी प्रेम और सौन्दर्य का काव्य है। प्रेम और सौन्दर्य की मूल धारा में जीवन दर्शन सम्बन्धी अन्य छोटी-छोटी धाराएँ आकर मिल जाती हैं।
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पात्र परिचय

21 फरवरी 2022
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पात्र परिचय पुरुष पुरुरवा: वेदकालीन, प्रतिष्ठानपुर के विक्रमी ऐल राजा, नायक महर्षि च्यवन: प्रसिद्द; भृगुवंशी, वेदकालीन महर्षि सूत्रधार: नाटक का शास्त्रीय आयोजक, अनिवार्य पात्र कंचुकी: सभासद: प

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तृतीय अंक

21 फरवरी 2022
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 तृतीय अंक आरम्भ पुरुरवः ! पुनरस्तं परेहि, दुरापना वात इवाहमस्मि -ऋग्वेद हे पुरुरवा ! तुम अपने घर को लौट जाओ मैं वायु के सामान दुष्प्राप्य हूँ (गंधमादन पर्वत पर पुरुरवा और उर्वशी) पुरुरवा जब स

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चतुर्थ अंक

21 फरवरी 2022
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चतुर्थ अंक आरम्भ विस्मृताअभिनयं सर्वं यत्पुरातन-वेदितम्, शशाप भरत: कोपात् वियोगात्तस्य भूतले -पद्म्पुराण् एष दीघायुरायुर्जात्मात्र एव उर्वश्या किमपि निमित्तमवेक्ष्य मम् हस्ते न्यासीकृत: -विक्रम

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पंचम अंक

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 पंचम अंक आरम्भ  अहमपि तव सूनावद्य विन्यस्य राज्यम्  विचरित्मृग्यूथान्याश्रयिष्ये वनानि  -विक्रमोर्वशीयम्  क्रन्दंस देशदेशेषु बभ्राम नृपति: स्वयं।  -देवीभागवत  अवेत्य शापदोषं तं सोअथ गत्वा पुरुर

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प्रथम अंक

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प्रथम अंक आरम्भ साधारणोंअयमुभ्यो: प्रणयः स्मरस्य, तप्तें ताप्त्मयसा घटनाय योग्यम._ विक्रमोर्वशीयम राजा पुरुरवा की राजधानी, प्रतिष्ठानपुर के समीप एकांत पुष्प कानन; शुक्ल पक्ष की रात; नटी और सूत्रधा

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द्वितीय अंक

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द्वितीय अंक आरम्भ प्रियवचनशतोअपि योषितां दयितजनानुनयो रसादृते, प्रविशति हृदयं न तद्विदां मणिरिव कृतिमरागयोजित: -विक्रमोर्वशीयं [प्रतिष्ठानपुर का राजभवन : पुरुरवा की महारानी औशीनरी अपनी दो सखियों

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