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प्रथम अंक

25 मार्च 2022

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प्रथम अंक आरम्भ

साधारणोंअयमुभ्यो: प्रणयः स्मरस्य,

तप्तें ताप्त्मयसा घटनाय योग्यम._ विक्रमोर्वशीयम

राजा पुरुरवा की राजधानी, प्रतिष्ठानपुर के समीप एकांत

पुष्प कानन; शुक्ल पक्ष की रात; नटी और सूत्रधार चाँदनी

में प्रकृति की शोभा का पान कर रहे हैं।

सूत्रधार

नीचे पृथ्वी पर वसंत की कुसुम-विभा छाई है,

ऊपर है चन्द्रमा द्वादशी का निर्मेघ गगन में।

खुली नीलिमा पर विकीर्ण तारे यों दीप रहे हैं,

चमक रहे हों नील चीर पर बूटे ज्यों चाँदी के;

या प्रशांत, निस्सीम जलधि में जैसे चरण-चरण पर

नील वारि को फोड़ ज्योति के द्वीप निकल आए हों

नटी

इन द्वीपों के बीच चन्द्रमा मंद-मंद चलता है,

मंद-मंद चलती है नीचे वायु श्रांत मधुवन की;

मद-विह्वल कामना प्रेम की, मानो, अलसाई-सी

कुसुम-कुसुम पर विरद मंद मधु गति में घूम रही हो

सूत्रधार

सारी देह समेत निबिड़ आलिंगन में भरने को

गगन खोल कर बाँह विसुध वसुधा पर झुका हुआ है

नटी

सुख की सुगम्भीर बेला, मादकता की धारा में

समाधिस्थ संसार अचेतन बह्ता-सा लगता है ।

सूत्रधार

स्वच्छ कौमुदी में प्रशांत जगती यों दमक रही है,

सत्य रूप तज कर जैसे हो समा गई दर्पन में ।

शांति, शांति सब ओर, मंजु, मानो, चन्द्रिका-मुकुर में

प्रकृति देख अपनी शोभा अपने को भूल गई हो ।

(ऊपर आकाश में रशनाओं और नूपुर की ध्वनि सुनाई देती है।

बहुत-सी अप्सराएं एक साथ नीचे उतर रही हैं) ।

नटी

शांति, शांति सब ओर, किंतु, यह कणन-कणन-स्वर कैसा?

अतल व्योम-उर में ये कैसे नूपुर झनक रहे हैं?

उगी कौन सी विभा? इन्दु की किरणें लगी लजाने;

ज्योत्सना पर यह कौन अपर ज्योत्सना छाई जाती है?

कलकल करती हुई सलिल सी गाती, धूम मचाती

अम्बर से ये कौन कनक प्रतिमायें उतर रही हैं?

उड़ी आ रही छूट कुसुम वल्लियाँ कल्प कानन से?

या देवों की वीणा की रागिनियाँ भटक गई हैं?

उतर रही ये नूतन पंक्तियाँ किसी कविता की

नई अर्चियों-सी समाधि के झिलमिल अँधियाले में?

या वसंत के सपनों की तस्वीरें घूम रही हैं

तारों-भरे गगन में फूलों-भरी धरा के भ्रम से?

सूत्रधार

लो, पृथ्वी पर आ पहुंची ये सुश्मायें अम्बर की

उतरे हों ज्यों गुच्छ गीत गाने वाले फूलों के ।

पद-निक्षेपों में बल खाती है भंगिमा लहर की,

सजल कंठ से गीत, हंसी से फूल झरे जाते हैं ।

तन पर भीगे हुए वसन है किरणों की जाली के,

पुश्परेण-भूशित सब के आनन यों दमक रहे हैं,

कुसुम बन गई हों जैसे चाँदनियाँ सिमट-सिमट कर ।

नटी

फूलों की सखियाँ है ये या विधु की प्रेयसियाँ हैं?

सूत्रधार

नहीं, चन्द्रिका नहीं, न तो कुसुमों की सहचरियाँ हैं,

ये जो शशधर के प्रकाश में फूलों पर उतरी हैं,

मनमोहिनी, अभुक्त प्रेम की जीवित प्रतिमाएं हैं

देवों की रण क्लांति मदिर नयनों से हरने वाली

स्वर्ग-लोक की अप्सरियाँ, कामना काम के मन की ।

नटी

पर,सुरपुर को छोड़ आज ये भू पर क्यों आई हैं?

सूत्रधार

यों ही, किरणों के तारों पर चढ़ी हुई, क्रीड़ा में,

इधर-उधर घूमते कभी भू पर भी आ जाती है ।

या, सम्भव है, कुछ कारण भी हो इनके आने का

क्योंकि मर्त्य तो अमर लोक को पूर्ण मान बैठा है,

पर, कह्ते है,स्वर्ग लोक भी सम्यक पूर्ण नहीं है ।

पृथ्वी पर है चाह प्रेम को स्पर्श-मुक्त करने की,

गगन रूप को बाँहो में भरने को अकुलाता है

गगन, भूमि, दोनों अभाव से पूरित हैं,दोनो के

अलग-अलग हैं प्रश्न और हैं अलग-अलग पीड़ायें ।

हम चाह्ते तोड़ कर बन्धन उड्ना मुक्त पवन में,

कभी-कभी देवता देह धरने को अकुलाते हैं ।

एक स्वाद है त्रिदिव लोक में, एक स्वाद वसुधा पर,

कौन श्रेश्ठ है, कौन हीन, यह कहना बड़ा कठिन है,

जो कामना खींच कर नर को सुरपुर ले जाती है,

वही खींच लाती है मिट्टी पर अम्बर वालों को ।

किन्तु, सुनें भी तो, ये परियाँ बातें क्या करती हैं?

{नटी और सूत्रधार वृक्ष की छाया में जाकर अदृश्य हो

जाते हैं। अप्सरायें पृथ्वी पर उतरती है तथा फूल, हरियाली

और झरनों के पास घूमकर गाती और आनन्द मनाती हैं}

परियों का समवेत गान

फूलों की नाव बहाओ री,यह रात रुपहली आई ।

फूटी सुधा-सलिल की धारा

डूबा नभ का कूल किनारा

सजल चान्दनी की सुमन्द लहरों में तैर नहाओ री !

यह रात रुपहली आई ।

मही सुप्त, निश्चेत गगन है,

आलिंगन में मौन मगन है ।

ऐसे में नभ से अशंक अवनी पर आओ-आओ री !

यह रात रुपहली आई ।

मुदित चाँद की अलकें चूमो,

तारों की गलियों में घूमो,

झूलो गगन-हिन्डोले पर, किरणों के तार बढ़ाओ री !

यह रात रुपहली आई ।

सहजन्या

धुली चाँदनी में शोभा मिट्टी की भी जगती है,

कभी-कभी यह धरती भी कित्नी सुन्दर लगती है!

जी करता है यही रहें, हम फूलों में बस जायें!

रम्भा

दूर-दूर तक फैल रही दूबों की हरियाली है,

बिछी हुई इस हरियाली पर शबनम की जाली है ।

जी करता है, इन शीतल बून्दों में खूब नहायें ।

मेनका

आज शाम से ही हम तो भीतर से हरी-हरी हैं,

लगता है आकंठ गीत के जल से भरी-भरी हैं ।

जी करता है,फूलों को प्राणों का गीत सुनायें ।

समवेत गान

हम गीतों के प्राण सघन,

छूम छनन छन, छूम छनन ।

बजा व्योम वीणा के तार,

भरती हम नीली झंकार,

सिहर-सिहर उठता त्रिभुवन ।

छूम छनन छन, छूम छनन ।

सपनों की सुषमा रंगीन,

कलित कल्पना पर उड्डीन,

हम फिरती हैं भुवन-भुवन

छूम छनन छन, छूम छनन ।

हम अभुक्त आनन्द-हिलोर,

भिंगो भुमि-अम्बर के छोर,

बरसाती फिरती रस-कन ।

छूम छनन छन, छूम छनन ।

रम्भा

बिछा हुआ है जाल रश्मि का,मही मग्न सोती है,

अभी मृत्ति को देख कर स्वर्ग को भी ईर्ष्या होती है ।

मेनका

कौन भेद है, क्या अंतर है धरती और गगन में

उठता है यह प्रश्न कभी रम्भे! तेरे भी मन में

रम्भा

प्रश्न उठे या नहीं, किंतु, प्रत्यक्ष एक अंतर है ,

मर्त्यलोक मरने वाला है ,पर सुरलोक अमर है ।

अमित, स्निग्ध ,निर्धूम शिखा सी देवों की काया है ,

मर्त्यलोक की सुन्दरता तो क्षण भर की माया है ।

मेनका

पर, तुम भूल रही हो रम्भे! नश्वरता के वर को;

भू को जो आनन्द सुलभ है, नहीं प्राप्त अम्बर को ।

हम भी कितने विवश ! गन्ध पीकर ही रह जाते हैं,

स्वाद व्यंजनों का न कभी रसना से ले पाते हैं ।

हो जाते हैं तृप्त पान कर स्वर-माधुरी स्रवण से ।

रूप भोगते हैं मन से या तृष्णा भरे नयन से ।

पर, जब कोई ज्वार रुप को देख उमड़ आता है,

किसी अनिर्वचनीय क्षुधा में जीवन पड़ जाता है,

उस पीड़ा से बचने की तब राह नहीं मिलती है

उठती जो वेदना यहाँ, खुल कर न कभी खिलती है

किंतु, मर्त्य जीवन पर ऐसा कोई बन्ध नहीं है

रुके गन्ध तक, वहाँ प्रेम पर यह प्रतिबन्ध नहीं है

नर के वश की बात, देवता बने कि नर रह जाए,

रुके गन्ध पर या बढ़ कर फूलों को गले लगाए ।

पर, सुर बनें मनुज भी, वे यह स्वत्व न पा सकते हैं,

गन्धों की सीमा से आगे देव न जा सकते हैं ।

क्या है यह अमरत्व? समीरों-सा सौरभ पीना है,

मन में धूम समेट शांति से युग-युग तक जीना है ।

पर, सोचो तो, मर्त्य मनुज कितना मधु-रस पीता है!

दो दिन ही हो, पर, कैसे वह धधक-धधक जीता है!

इन ज्वलंत वेगों के आगे मलिन शांति सारी है

क्षण भर की उन्मद तरंग पर चिरता बलिहारी है ।

सहजन्या

साधु ! साधु ! मेनके ! तुम्हारा भी मन कहीं फंसा है ?

मिट्टी का मोहन कोई अंतर में आन बसा है?

तुम भी हो बन गई महीतल पर रुपसी किसी की?

किन्ही मर्त्य नयनों की रस-प्रतिमा, उर्वशी किसी की?

सखी उर्वशी-सी तुम भी लगती कुछ मदमाती हो

मर्त्यों की महिमा तुम भी तो उसी तरह गाती हो ।

रम्भा

अरी, ठीक, तूने सहजन्ये! अच्छी याद दिलाई ।

आज हमारे साथ यहाँ उर्वशी नहीं क्यों आई?

सहजन्या

वाह तुम्हें ही ज्ञात नहीं है कथा प्राण प्यारी की ?

तुम्हीं नहीं जानती प्रेम की व्यथा दिव्य नारी की ?

नहीं जानती हो कि एक दिन हम कुबेर के घर से

लौट रही थीं जब, इतने में एक दैत्य ऊपर से

टूटा लुब्ध श्येन सा हमको त्रास अपरिमित देकर

और तुरंत उड़ गया उर्वशी को बाहों में लेकर ।

रम्भा

बाहों में ले उड़ा ? अरी आगे की कथा सुनाओ ।

सहजन्या

यही कि हम रो उठीं, “दौड़ कर कोई हमें बचाओ”

रम्भा

तब क्या हुआ?

सहजन्या

पुकार हमारी सुनी एक राजा ने,

दौड़ पड़े वे सदय उर्वशी को अविलम्ब बचाने

और उन्हीं नरवीर नृपति के पौरुष से, भुजबल से

मुक्त हुई उर्वशी हमारी उस दिन काल-कवल से ।

रम्भा

ये राजा तो बड़े वीर हैं ।

सहजन्या

और परम सुन्दर भी ।

ऐसा मनोमुग्धकारी तो होता नहीं अमर भी

इसीलिये तो सखी उर्वशी, उषा नन्दनवन की

सुरपुर की कौमुदी, कलित कामना इन्द्र के मन की

सिद्ध विरागी की समाधि में राग जगाने वाली

देवों के शोणित में मधुमय आग लगाने वाली

रति की मूर्ति, रमा की प्रतिमा, तृषा विश्वमय नर की

विधु की प्राणेश्वरी, आरती-शिखा काम के कर की

जिसके चरणों पर चढ़ने को विकल व्यग्र जन-जन है

जिस सुषमा के मदिर ध्यान में मगन-मुग्ध त्रिभुवन है

पुरुष रत्न को देख न वह रह सकी आप अपने में

डूब गई सुर-पुर की शोभा मिट्टी के सपने में

प्रस्तुत हैं देवता जिसे सब कुछ देकर पाने को

स्वर्ग-कुसुम वह स्वयं विकल है वसुधा पर जाने को ।

रम्भा

सो क्या, अब उर्वशी उतर कर भू पर सदा रहेगी?

निरी मानवी बनकर मिट्टी की सब व्यथा सहेगी?

सहजन्या

सो जो हो, पर, प्राणों में उसके जो प्रीत जगी है

अंतर की प्रत्येक शिरा में ज्वाला जो सुलगी है

छोड़ेगी वह नहीं उर्वशी को अब देव निलय में

ले जायेगी खींच उसे उस नृप के बाहु-वलय में

रम्भा

ऐसा कठिन प्रेम होता है?

सहजन्या

इसमें क्या विस्मय है?

कहते है, धरती पर सब रोगों से कठिन प्रणय है

लगता है यह जिसे, उसे फिर नीन्द नहीं आती है

दिवस रुदन में, रात आह भरने में कट जाती है ।

मन खोया-खोया, आंखें कुछ भरी-भरी रहती हैं

भींगी पुतली में कोई तस्वीर खडी रह्ती है

सखी उर्वशी भी कुछ दिन से है खोई-खोई सी

तन से जगी, स्वप्न के कुंजों में मन से सोई-सी

खड़ी-खड़ी अनमनी तोड़ती हुई कुसुम-पंखुड़ियाँ

किसी ध्यान में पड़ी गँवा देती घड़ियों पर घड़ियाँ

दृग से झरते हुए अश्रु का ज्ञान नहीं होता है

आया-गया कौन, इसका कुछ ध्यान नहीं होता है

मुख सरोज मुस्कान बिना आभा-विहीन लगता है

भुवन-मोहिनी श्री का चन्द्रानन मलीन लगता है ।

सुनकर जिसकी झमक स्वर्ग की तन्द्रा फट जाती थी,

योगी की साधना, सिद्ध की नीन्द उचट जाती थी ।

वे नूपुर भी मौन पड़े हैं, निरानन्द सुरपुर है,

देव सभा में लहर लास्य की अब वह नहीं मधुर है ।

क्या होगा उर्वशी छोड़ जब हमें चली जायेगी?

रम्भा

स्वर्ग बनेगा मही, मही तब सुरपुर हो जायेगी ।

सहजन्ये! हम परियों का इतना भी रोना क्या?

किसी एक नर के निमित्त इतना धीरज खोना क्या?

हम भी हैं मानवी कि ज्यों ही प्रेम उगे रुक जायें?

मिला जहाँ भी दान हृदय का, वहीं मग्न झुक जायें

प्रेम मानवी की निधि है, अपनी तो वह क्रीड़ा है;

प्रेम हमारा स्वाद, मानवी की आकुल पीड़ा है

जनमी हम किसलिये? मोद सबके मन में भरने को

किसी एक को नहीं मुग्ध जीवन अर्पित करने को ।

सृष्टि हमारी नहीं संकुचित किसी एक आनन में,

किसी एक के लिये सुरभि हम नहीं संजोती तन में ।

कल-कल कर बह रहा मुक्त जो, कुलहीन वह जल हैं

किसी गेह का नहीं दीप जो ,हम वह द्युति कोमल हैं ।

रचना की वेदना जगा जग में उमंग भरती हैं,

कभी देवता ,कभी मनुज का आलिंगन करती हैं ।

पर यह परिरम्भण प्रकाश का, मन का रश्मि रमण है,

गन्धॉ के जग में दो प्राणों का निर्मुक्त रमण है ।

सच है कभी-कभी तन से भी मिलती रागमयी हम

कनक-रंग में नर को रंग देती अनुरागमयी हम;

देती मुक्त उड़ेल अधर-मधु ताप-तप्त अधरों में ,

सुख से देती छोड़ कनक-कलशों को उष्ण करों में;

पर यह तो रसमय विनोद है, भावों का खिलना है,

तन की उद्वेलित तरंग पर प्राणों का मिलना है ।

रचना की वेदना जगाती, पर न स्वयं रचती हम

बन्ध कर कभी विविध पीड़ाओं में न कभी पचती हम ।

हम सागर आत्मजा सिन्धु-सी ही असीम उच्छल हैं

इच्छाओं की अमित तरंगो से झंकृत, चंचल हैं ।

हम तो हैं अप्सरा ,पवन में मुक्त विहरने वाली

गीत-नाद ,सौरभ-सुवास से सबको भरने वाली ।

अपना है आवास, न जानें, कितनों की चाहों में,

कैसे हम बन्ध रहें किसी भी नर की दो बाहों में?

और उर्वशी जहाँ वास करने पर आन तुली है,

उस धरती की व्यथा अभी तक उस पर नहीं खुली है।

सहजन्या

कौन व्यथा उर्वशी भला पाएगी भू पर जाकर?

सुख ही होगा उसे वहाँ प्रियतम को कंठ लगाकर ।

रम्भा

सो सुख तो होगा , परंतु, यह मही बड़ी कुत्सित है

जहाँ प्रेम की मादकता में भी यातना निहित है

नहीं पुष्प ही अलम, वहाँ फल भी जनना होता है

जो भी करती प्रेम,उसे माता बनना होता है ।

और मातृ-पद को पवित्र धरती ,यद्यपि, कहती है,

पर, माता बनकर नारी क्या क्लेश नहीं सहती है?

तन हो जाता शिथिल, दान में यौवन गल जाता है

ममता के रस में प्राणों का वेग पिघल जाता है ।

रुक जाती है राह स्वप्न-जग में आने-जाने की,

फूलों में उन्मुक्त घूमने की सौरभ पाने की ।

मेघों में कामना नहीं उन्मुक्त खेल करती है,

प्राणों में फिर नहीं इन्द्रधनुषी उमंग भरती है ।

रोग, शोक, संताप, जरा, सब आते ही रह्ते हैं,

पृथ्वी के प्राणी विषाद नित पाते ही रहते हैं ।

अच्छी है यह भूमि जहाँ बूढ़ी होती है नारी,

कण भर मधु का लोभ और इतनी विपत्तियाँ सारी?

सहजन्या

उफ! ऐसी है घृणित भूमि? तब तो उर्वशी हमारी ,

सचमुच ही, कर रही नरक में जाने की तैयारी ।

तू ने भी रम्भे! निर्घिन क्या बातें बतलाई हैं!

अब तो मुझे मही रौरव-सी पड़ती दिखलाई है ।

गर्भ-भार उर्वशी मानवी के समान ढोयेगी?

यह शोभा, यह गठन देह की, यह प्रकांति खोएगी?

जो अयोनिजा स्वयं, वही योनिज संतान जनेगी?

यह सुरम्य सौरभ की कोमल प्रतिमा जननि बनेगी?

किरण्मयी यह परी करेगी यह विरुपता धारण?

वह भी और नहीं कुछ, केवल एक प्रेम के कारण?

रम्भा

हाँ, अब परियाँ भी पूजेंगी प्रेम-देवता जी को,

और स्वर्ग की विभा करेगी नमस्कार धरती को ।

जहाँ प्रेम राक्षसी भूख से क्षण-क्षण अकुलाता है,

प्रथम ग्रास में ही यौवन की ज्योति निगल जाता है;

धर देता है भून रूप को दाहक आलिंगन से,

छवि को प्रभाहीन कर देता ताप-तप्त चुम्बन से,

पतझर का उपमान बना देता वाटिका हरी को,

और चूमता रहता फिर सुन्दरता की गठरी को ।

इसी देव की बाहों में झुलसेंगी अब परियाँ भी

यौवन को कर भस्म बनेंगी माता अप्सरियाँ भी ।

पुत्रवती होंगी, शिशु को गोदी में हलराएँगी

मदिर तान को छोड़ सांझ से ही लोरी गाएँगी ।

पह्नेंगी कंचुकी क्षीर से क्षण-क्षण गीली-गीली,

नेह लगाएँगी मनुष्य से, देह करेंगी ढीली ।

मेनका

पर, रम्भे! क्या कभी बात यह मन में आती है,

माँ बनते ही त्रिया कहाँ-से-कहाँ पहुंच जाती है?

गलती है हिमशिला, सत्य है, गठन देह की खोकर,

पर, हो जाती वह असीम कितनी पयस्विनी होकर?

युवा जननि को देख शांति कैसी मन में जगती है!

रूपमती भी सखी! मुझे तो वही त्रिया लगती है,

जो गोदी में लिये क्षीरमुख शिशु को सुला रही हो

अथवा खड़ी प्रसन्न पुत्र का पलना झुला रही हो

[एक अप्सरा गुनगुनाती हुई उड़ती आ रही है]

रम्भा

अरी, देख तो उधर, कौन यह गुन-गुन कर गाती है?

रँगी हुई बदली-सी उड़ती कौन चली आती है?

तुम्हें नहीं लगता क्या, जैसे इसे कहीं देखा है?

सह्जन्या

दुत पगली! यह तो अपनी ही सखी चित्रलेखा है ।

सब

अरी चित्रलेखे! हम सब हैं यहाँ कुसुम के वन में;

जल्दी आ, सब लोग चलें उड़ होकर साथ गगन में ।

भींग रही है वायु, रात अब बहुत अधिक गहराई ।

चित्रलेखा

रुको, रुको क्षण भर सहचरियों! आई, मै यह आई ।

खेल रही हो यहीं अभी तक तारों की छाया में?

स्वर्ग भूल ही गया तुम्हें भी मिट्टी की माया में?

[चित्रलेखा आ पहुंचती है]

सह्जन्या

तेज-तेज सांसे चलती हैं, धड़क रही छाती है,

चित्रे ! तू इस तरह कहाँ से थकी-थकी आती है?

चित्रलेखा

आज सांझ से सखी उर्वशी को न रंच भी कल थी

नृप पुरुरवा से मिलने को वह अत्यंत विकल थी

कहती थी,”यदि आज कांत का अंक नहीं पाउँगी,

तो शरीर को छोड-पवन में निश्चय मिल जाउँगी।”

“रोक चुकी तुम बहुत, अधिक अब और न रोक सकोगी

दिव में रखकर मुझे नहीं जीवित अवलोक सकोगी ।

भला चाह्ती हो मेरा तो वसुधा पर जाने दो

मेरे हित जो भी संचित हो भाग्य, मुझे पाने दो ।

नहीं दीखती कही शांति मुझको अब देव निलय में

बुला रहा मेरा सुख मुझ को प्रिय के बाहु-वलय में ।

स्वर्ग-स्वर्ग मत कहो ,स्वर्ग में सब सौभाग्य भरा है,

पर, इस महास्वर्ग में मेरे हित क्या आज धरा है?

स्वर्ग स्वप्न का जाल, सत्य का स्पर्श खोजती हूँ मैं,

नहीं कल्पना का सुख, जीवित हर्ष खोजती हूँ मैं ।

तृप्ति नहीं अब मुझे साँस भर-भर सौरभ पीने से

ऊब गई हूँ दबा कंठ, नीरव रह कर जीने से ।

लगता है, कोई शोणित में स्वर्ण तरी खेता है

रह-रह मुझे उठा अपनी बाहों में भर लेता है

कौन देवता है, जो यों छिप-छिप कर खेल रहा है,

प्राणों के रस की अरूप माधुरी उड़ेल रहा है?

जिस्का ध्यान प्राण में मेरे यह प्रमोद भरता है,

उससे बहुत निकट होकर जीने को जी करता है ।

यही चाह्ती हूँ कि गन्ध को तन हो ,उसे धरु मैं,

उड़ते हुए अदेह स्वप्न को बाहों में जकड़ुं मैं,

निराकार मन की उमंग को रुप कही दे पाऊँ,

फूटे तन की आग और मैं उसमें तैर नहाऊँ ।

कहती हूँ, इसलिये चित्रलेखे! मत देर लगाओ,

जैसे भी हो मुझे आज प्रिय के समीप पहुंचाओ.”

सह्जन्या

तो तुमने क्या किया?

चित्रलेखा

अरी, क्या और भला करती मैं?

कैसे नहीं सखी के दुःसंकल्पों से डरती मैं ?

आज सांझ को ही उसको फूलों से खूब सजाकर,

सुरपुर से बाहर ले आई ,सबकी आंख बचाकर,

उतर गई धीरे-धीरे चुपके ,फिर मर्त्य भुवन में,

और छोड़ आई हूँ उसको राजा के उपवन में

रम्भा

छोड़ दिया निःसंग उसे प्रियतम से बिना मिलाये?

चित्रलेखा

युक्ति ठीक है वही, समय जिसको उपयुक्त बताए ।

अभी वहाँ आई थी राजा से मिलने को रानी

हमें देख लेती वे तो फिर बढ़ती वृथा कहानी

नृप को पर है विदित, उर्वशी उपवन में आई है,

अतः मिलन की उत्कंठा उनके मन में छाई है ।

रानी ज्यों ही गई, प्रकट उर्वशी कुंज से होगी,

फिर तो मुक्त मिलेंगे निर्जन में विरहिणी-वियोगी ।

रम्भा

अरी, एक रानी भी है राजा को?

चित्रलेखा

तो क्या भय है?

एक घाट पर किस राजा का रहता बन्धा प्रणय है?

नया बोध श्रीमंत प्रेम का करते ही रहते हैं,

नित्य नई सुन्दरताओं पर मरते ही रहते हैं ।

सहधर्मिणी गेह में आती कुल-पोषण करने को,

पति को नहीं नित्य नूतन मादकता से भरने को ।

किंतु, पुरुष चाह्ता भींगना मधु के नए क्षणों से,

नित्य चूमना एक पुष्प अभिसिंचित ओस कणों से ।

जितने भी हों कुसुम, कौन उर्वशी-सदृश, पर, होगा?

उसे छोड अन्यत्र रमें, दृगहीन कौन नर होगा?

कुल की हो जो भी, रानी उर्वशी हृदय की होगी?

एक मात्र स्वामिनी नृपति के पूर्ण प्रणय की होगी ।

सहजन्या

तब तो अपर स्वर्ग में ही तू उसको धर आई है,

नन्दन वन को लूट ज्योति से भू को भर आई है ।

मेनका

अपर स्वर्ग तुम कहो, किंतु ,मेरे मन में संशय है ।

कौन जानता है, राजा का कितना तरल हृदय है?

सखी उर्वशी की पीड़ा, माना तुम जान चुकी हो ;

चित्रे !पर, क्या इसी भांति ,नृप को पह्चान चुकी हो?

तड़प रही उर्वशी स्वर्ग तज कर जिसको वरने को,

प्रस्तुत है वह भी क्या उसका आलिंगन करने को ?

दहक उठी जो आग चित्रलेखे ! अमर्त्य के मन में,

देखा कभी धुँआं भी उसका तूने मर्त्य भुवन में?

चित्रलेखा

धुँआं नहीं, ज्वाला देखी है, ताप उभयदिक सम है,

जो अमर्त्य की आग ,मर्त्य की जलन न उससे कम है ।

सुखामोद से उदासीन जैसे उर्वशी विकल है

उसी भांति दिन-रात कभी राजा को रंच न कल है ।

छिपकर सुना एक दिन कहते उन्हें स्वयं निज मन से,

”वृथा लौट आया उस दिन उज्ज्वल मेघों के वन से,

नीति-भीति, संकोच-शील का ध्यान न टुक लाना था,

मुझे स्रस्त उस सपने के पीछे-पीछे जाना था ।

एक मूर्ति में सिमट गई किस भांति सिद्धियाँ सारी?

कब था ज्ञात मुझे , इतनी सुन्दर होती है नारी?

लाल-लाल वे चरण कमल से, कुंकुम से, जावक से

तन की रक्तिम कांति शुद्ध ,ज्यों धुली हुई पावक से ।

जग भर की माधुरी अरुण अधरों में धरी हुई सी ।

आंखॉ में वारुणी रंग निद्रा कुछ भरी हुई सी

तन प्रकांति मुकुलित अनंत ऊषाओं की लाली-सी,

नूतनता सम्पूर्ण जगत की संचित हरियाली सी ।

पग पड़ते ही फूट पड़े विद्रुम-प्रवाल धूलों से

जहाँ खड़ी हो, वहीं व्योम भर जाये श्वेत फूलों से ।

दर्पण, जिसमें प्रकृति रूप अपना देखा करती है,

वह सौन्दर्य, कला जिस्का सपना देखा करती है ।

नहीं, उर्वशी नारि नहीं, आभा है निखिल भुवन की;

रूप नहीं, निष्कलुष कल्पना है स्रष्टा के मन की”

फिर बोले- “जाने कब तक परितोष प्राण पायेंगे

अंतराग्नि में पड़े स्वप्न कब तक जलते जायेंगे?

जाने, कब कल्पना रूप धारण कर अंक भरेगी?

कल्पलता, जानें, आलिंगन से कब तपन हरेगी?

आह! कौन मन पर यों मढ़ सोने का तार रही है?

मेरे चारों ओर कौन चान्दनी पुकार रही है?

नक्षत्रों के बीज प्राण के नभ में बोने वाली !

ओ रसमयी वेदनाओं में मुझे डुबोने वाली !

स्वर्गलोक की सुधे ! अरी, ओ, आभा नन्दनवन की!

किस प्रकार तुझ तक पहुंचाऊँ पीड़ा मै निज मन की ?

स्यात अभी तप ही अपूर्ण है,न तो भेद अम्बर को

छुआ नहीं क्यों मेरी आहों ने तेरे अंतर को?

पर, मै नहीं निराश, सृष्टि में व्याप्त एक ही मन है,

और शब्दगुण गगन रोकता रव का नहीं गमन है ।

निश्चय, विरहाकुल पुकार से कभी स्वर्ग डोलेगा;

और नीलिमापुंज हमारा मिलन मार्ग खोलेगा ।

मेरे अश्रु ओस बनकर कल्पद्रुम पर छाएँगे,

पारिजात वन के प्रसून आहों से कुम्हलाएँगे ।

मेरी मर्म पुकार् मोहिनी वृथा नहीं जायेगी,

आज न तो कल तुझे इन्द्रपुर में वह तड़पाएगी ।

और वही लाएगी नीचे तुझे उतार गगन से

या फिर देह छोड़ मै ही मिलने आऊंगा मन से.”

सह्जन्या

यह कराल वेदना पुरुष की ! मानव प्रणय-व्रती की !

चित्रलेखा

यही समुद्वेलन नर का शोभा है रूपमती की ।

सुन्दर थी उर्वशी ! आज वह और अधिक सुन्दर है ।

राका की जय तभी, लहर उठता जब रत्नाकर है ।

सह्जन्या

महाराज पर बीत रहा इतना कुछ? तब तो रानी

समझ गई होंगी, मन-ही-मन, सारी गूढ़ कहानी ।

चित्रलेखा

कैसे समझे नहीं ! प्रेम छिपता है कभी छिपाए?

कुल-वामा क्या करे, किंतु, जब यह विपत्ति आ जाए?

प्रिय की प्रीति हेतु रानी कोई व्रत साध रही है,

सुना, आजकल चन्द्र-देवता को आराध रही है ।

सह्जन्या

तब तो चन्द्रानना-चन्द्र में अच्छी होड़ पड़ी है ।

मेनका

यह भी है कुछ ध्यान, रात अब केवल चार घड़ी है ।

रम्भा

अच्छा, कोई तान उठाओ, उड़ो मुक्त अम्बर में,

भू को नभ के साथ मिलाए चलो गीत के स्वर में ।

समवेत गान

बरस रही मधु-धार गगन से, पी ले यह रस रे !

उमड़ रही जो विभा, उसे बढ़ बाहों में कस रे !

इस अनंत रसमय सागर का अतल और मधुमय है,

डूब, डूब, फेनिल तरंग पर मान नहीं बस रे !

दिन की जैसी कठिन धूप, वैसा ही तिमिर कुटिल है,

रच रे, रच झिलमिल प्रकाश, चाँदनियों में बस रे !

[सब गाते-गाते उड़ कर आकश में विलीन हो जाती हैं]

प्रथम अंक समाप्त

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रचनाएँ
उर्वशी
5.0
उर्वशी रामधारी सिंह 'दिनकर' द्वारा रचित काव्य नाटक है। ... पुरुरवा के भीतर देवत्व की तृष्णा और उर्वशी सहज निश्चित भाव से पृथ्वी का सुख भोगना चाहती है। उर्वशी प्रेम और सौन्दर्य का काव्य है। प्रेम और सौन्दर्य की मूल धारा में जीवन दर्शन सम्बन्धी अन्य छोटी-छोटी धाराएँ आकर मिल जाती हैं।
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पात्र परिचय

21 फरवरी 2022
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पात्र परिचय पुरुष पुरुरवा: वेदकालीन, प्रतिष्ठानपुर के विक्रमी ऐल राजा, नायक महर्षि च्यवन: प्रसिद्द; भृगुवंशी, वेदकालीन महर्षि सूत्रधार: नाटक का शास्त्रीय आयोजक, अनिवार्य पात्र कंचुकी: सभासद: प

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तृतीय अंक

21 फरवरी 2022
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 तृतीय अंक आरम्भ पुरुरवः ! पुनरस्तं परेहि, दुरापना वात इवाहमस्मि -ऋग्वेद हे पुरुरवा ! तुम अपने घर को लौट जाओ मैं वायु के सामान दुष्प्राप्य हूँ (गंधमादन पर्वत पर पुरुरवा और उर्वशी) पुरुरवा जब स

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चतुर्थ अंक

21 फरवरी 2022
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चतुर्थ अंक आरम्भ विस्मृताअभिनयं सर्वं यत्पुरातन-वेदितम्, शशाप भरत: कोपात् वियोगात्तस्य भूतले -पद्म्पुराण् एष दीघायुरायुर्जात्मात्र एव उर्वश्या किमपि निमित्तमवेक्ष्य मम् हस्ते न्यासीकृत: -विक्रम

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पंचम अंक

21 फरवरी 2022
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 पंचम अंक आरम्भ  अहमपि तव सूनावद्य विन्यस्य राज्यम्  विचरित्मृग्यूथान्याश्रयिष्ये वनानि  -विक्रमोर्वशीयम्  क्रन्दंस देशदेशेषु बभ्राम नृपति: स्वयं।  -देवीभागवत  अवेत्य शापदोषं तं सोअथ गत्वा पुरुर

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प्रथम अंक

25 मार्च 2022
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प्रथम अंक आरम्भ साधारणोंअयमुभ्यो: प्रणयः स्मरस्य, तप्तें ताप्त्मयसा घटनाय योग्यम._ विक्रमोर्वशीयम राजा पुरुरवा की राजधानी, प्रतिष्ठानपुर के समीप एकांत पुष्प कानन; शुक्ल पक्ष की रात; नटी और सूत्रधा

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द्वितीय अंक

25 मार्च 2022
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द्वितीय अंक आरम्भ प्रियवचनशतोअपि योषितां दयितजनानुनयो रसादृते, प्रविशति हृदयं न तद्विदां मणिरिव कृतिमरागयोजित: -विक्रमोर्वशीयं [प्रतिष्ठानपुर का राजभवन : पुरुरवा की महारानी औशीनरी अपनी दो सखियों

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