‘आप’ के एक विधायक ने अरविन्द केजरीवाल को पत्र लिख कर कहा है कि उन्हेंलोगों को बताना चाहिए की हमारा[ अर्थात आम आदमी पार्टी का] विश्वास है की हम राजनीति को बदल देंगे.आज से लगभग २५०० वर्ष पहले प्लेटो ने कहा था की जब तक दार्शनिक राजा नहींबनते या वह जिन्हें हम राजा मानते
देखा जाए तो क्या फर्क है अंगूठा लगाने और सिर्फ तीन-चार अक्षरों का नाम लिख लेने में, जबकि अपने हस्ताक्षर करने वाले को यही मालुम न हो कि वह जिस कागज़ पर अक्षर जोड़-जोड़ कर अपना नाम लिख रहा है उसका मजमून क्या है। आज छात्रों को College और Collage या Principal और Principle में फर्क नहीं पता। अंग्रेजी को तो
शिक्षक दिवस एवं गणेश चतुर्थी की सभी शिक्षकों एवं शब्दनगरी के सभी मित्रों व सदस्यों को बहुत-बहुत बधाईआज शिक्षक दिवस पर पुत्री ने हैप्पी टीचर डे का मैसज भेजा और मुझसे जो सीखा उसके लिए धन्यवाद दिया। मेरी डांट और गुस्से को लेकर नाराजगी प्रकट करने के बाद भी धन्यवाद दिया।उसके प्रत्युत्तर में मैंने उसे ज
आवा बन्धु,आवा भाई सुना जो अब हम कहने जाए।सुना ज़रा हमरी ये बतिय, दै पूरा अब ध्यान लगाय।कहत हु मैं इतिहास हमारा जान लै हो जो जान न पाए।जाना का था सच वह आपन जो अब तक सब रहे छुपाय।जाना का था बोस के सपना,जो अब सच न है हो पाए।जान लो का था भगत के अपना, जो कीमत मा दिए चुकाय।जाना काहे आज़ाद हैं पाये वीर गत
तेरी तरहा मैं हो नहीं सकता नहीं ये करिश्मा हो नहीं सकतामैंने पहचान मिटा दी अपनी भीड़ मे अब खो नहीं सकताबहुत से काम याद रहते है दिन मे मैं सो नहीं सकताकि पढ़ लूँ पलकों पे लिखी इतना सच्चा हो नहीं सकतासमीर कुमार शुक्ल
धूप मे धूप साये मे साया हूँ बस यही नुस्का आजमाया हूँएक बोझ दिल से उतर गया कई दिनों बाद मुस्कुराया हूँदीवारें भी लिपट पड़ी मुझसेमुद्दतों के बाद घर आया हूँउसे पता नहीं मेरे आने का छुप कर के उसे बुलाया हूँ समीर कुमार शुक्ल
बोध कथाएं प्रेरक होती हैं और वे एक सीख देती हैं। उस सीख को जीवन में अपनाने से जीवनपथ उन्नति की ओर अग्रसर होता है। वस्तुतः बोध कथाओं की सीख को जीवन में व्यवहार में लाने पर वे सार्थक हो जाती हैं और पढ़ने वाले का जीवन सार्थक हो जाता है। बोधामृत नामक पुस्तक में प्रेरक व जीवनोपयोगी 101 बोधकाथाएं आपके उपय
जानू ! क्या तुम नही चाहते, मैं पार्टी में सबसे अलग दिखूं ! मेरी सारी ड्रेसेस ओल्ड फैशन की हो गयीं हैं, तो प्लीज़! मेरे लिए नई ड्रेस ला दो। शीतल ने राहुल से प्यार भरे अंदाज़ में कहा। ऐसा अक्सर होता था, जब भी शीतल को अपनी कोई बात मनवानी होती, तो वह किसी न किसी तरह से अपनी बात मनवा कर ही रहती, राहुल ज
रोजगार अगर अपने गांव-शहर में ही मिल जाए तो भला कौन परदेश जाना चाहता है। और जब बात गांव के सामान्य तबके की हो तो उसके लिए यह किसी मजबूरी से कम नहीं होता है। दो उदाहरण देता हूं। पहला, याद कीजिए वह दौर जब रोजी-रोटी की तलाश में पलायन कर उत्तरप्रदेश से बड़ी तादाद में लोग महाराष्ट्र और दिल्ली की ओर जाते थे