मनुष्य दूरवीक्षण - यन्त्र से तारों को देखता तथा गणित के नियमों से उनकी पारस्परिक दूरी को मापता है । यह है मनुष्य की बुद्धि ।
मनुष्य रात की निस्तब्धता में आकाश की ओर देखते - देखते स्वयं अपने हाथ से से छूट जाता है । यह है उसका हृदय ।
शायद वर्ड्सवर्थ ने दावा किया था कि कवि की नई सूझ भी उतनी ही कीमती समझी जानी चाहिए जितना कि किसी वैज्ञानिक के द्वारा किया गया किसी नए नक्षत्र का अनुसन्धान । किन्तु गणित की प्रामाणिकता पर भूले हुए संसार ने इस दावे को अंगीकार नहीं किया ।
तो भी क्या यह सच नहीं है कि बाहर की दुनिया में खोज और अनुसन्धान के जितने विशाल क्षेत्र फैले हुए हैं , उतने ही अथवा उनसे भी कहीं बड़े क्षेत्र आदमी के भीतर मौजूद हैं जहाँ अनादि काल से अनुसन्धान के जारी रहते हुए भी नई सूझों का भंडार रिक्त नहीं हुआ है ?
जो कुछ मनुष्य के बाहर मौजूद है , विज्ञान का आधिपत्य सबसे पहले उसी पर हुआ । पीछे विज्ञान ने मनोविज्ञान का रूप धरकर मनुष्य के भीतर वाले समुद्र में डुबकी लगाई और जो कुछ उसके हाथ लगा , उसे लेकर वह बाहर आया और कहने लगा कि जैसा बाहर है , वैसा ही भीतर भी समझो । यानी धर्म मनुष्य की आदतों में से एक है , यानी प्रेम यौन - भावना को कहते हैं , यानी आस्तिकता और श्रद्धा अन्धविश्वास के नाम हैं ।
विज्ञान स्थूलता चाहता है । विज्ञान को ठोस दलील चाहिए जो उसकी मुट्ठी की पकड़ में आ सके । फूलों की सुन्दरता तो असत्य कल्पना है । ठोस चीज है रंग और हरियाली पर की जानेवाली रासायनिक क्रिया । और विज्ञान से जिनकी बुद्धि परिपक्व हो गई है , वे सत्य उसको समझते हैं , जो मुट्ठी में आने योग्य और उपयोगी हो । जो चीजें मन के परदों पर रंग छिड़ककर उड़ जाती हैं , जो वस्तुएँ आनन्द की गुदगुदी पैदा करके निकल जाती हैं , बुद्धि उन्हें ग्रहण करने के योग्य नहीं समझती ।
बुद्धि कहती है , आदमी सुख की खोज में है और सुख कहते हैं रोटी , कपड़े और मोटरकार को। भला तर्क जहाँ इतना ठोस हो, हृदय वहाँ पर क्या जवाब दे सकता है ?
बुद्धि अपनी प्रयोगशाला में औजार लेकर घूम रही है । जो तत्त्व उसके औजार की पकड़ में नहीं आ सकते , उनका धरती पर क्या काम है ?
लेकिन यह धारणा क्या ठीक है ? हम हर चीज को यही सोचकर तो ग्रहण नहीं करते कि वह हमारे जीवन की बाह्य सुविधाओं के लिए आवश्यक है । फूल , पक्षी , नदी , पहाड़ , मेघों की छटा , चाँदनी के सरोवर में हंस के समान मन्द - मन्द तैरता हुआ चाँद और दूबों पर चमकती हुई ओस की बूंदें तथा घर में खेलते हुए निष्कलुष शिशु हमें इसीलिए प्यारे नहीं लगते कि हम उनके उपयोग पर आँख लगाए हुए हैं । वे सहज ही सुन्दर हैं और उनके बिना जीवन कुछ - कुछ बेस्वाद हो जाएगा । जरा सोचिए कि किसी दिन भोर को सोकर उठते ही आपको ऐसा मालूम हो कि धरती पर जितने पक्षी और फूल थे , वे रात में ही अचानक उड़ गए हैं , तो आपको दुनिया कैसी लगेगी ? इसी प्रकार अगर आपका सारा साहित्य , प्रेम और शूरता के सारे गान कहीं लुप्त हो जाएँ और आप में से किसी को भी वे याद न रहें , तो आपकी जिन्दगी कितना सूनी लगेगी ? कविता का जीवन में वही स्थान है जो फूलों , पक्षियों , इन्द्रधनुष और शिशुओं का है । मनुष्य के भीतर की भावनाएँ बाहर आकर इन्हीं सुषमाओं में अपनी प्रतीक और अपनी अभिव्यक्ति ढूँढ़ती हैं । सामने के फूल और मन के भीतर की कल्पना के बीच ( केवल रम्भा और मेनका ही नहीं , बल्कि परब्रह्मम की कल्पना को लेकर भी ) एक अगोचर तार है , जो मनुष्य - मनुष्य को बाँधे हुए हैं । जब तक मनुष्य कल कारखानों , स्टॉक - एक्सचेंजों और दफ्तरों की रुक्षता में अपने को विलीन करके सन्तुष्ट होने को तैयार नहीं है , जब तक कारखानों से बाहर निकलकर सजल आकाश की ओर देखने की प्रवृत्ति उसमें शेष है , जब तक शरीर के सुख की प्राप्ति के बाद वह मन के लिए भी कुछ ढूँढ़ना चाहता है तब तक उसे फूलों , नदियों और चाँदनी के साथ - साथ कल्पना - प्रसूत साहित्य की भी आवश्यकता बनी रहेगी ।
इतना ही नहीं , बल्कि कविता तो जीवन की शॉर्टकट यानी सबसे छोटी राह है । एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य तक जाने की जितनी भी पगडंडियाँ हैं , उनमें बुद्धि की पगडंडी सबसे कठिन और हृदय का रास्ता सबसे आसान है । बुद्धि जब देने चलती है , तब वह यह सोचने लगती है कि जिसे ग्रहण करना है , उसमें कौन - कौन - सी शंकाएँ उठ सकती हैं । और ग्रहण करनेवाली बुद्धि जब सामने आती है , तब वह भी सजग रहती है कि न जाने , दाता के इस दान के पीछे कौन - सा रहस्य हो । इसलिए बुद्धि का दान शायद ही कभी पूरा होता हो । उसमें से हम कुछ को लेते हैं और कुछ को यों ही छोड़ देते हैं । किन्तु हृदय - हृदय के बीच ऐस शंकाओं के लिए जगह नहीं होती । हृदय के आसन पर से हम जब कुछ देने को उठते हैं , तब या तो वह सम्पूर्ण दान होता है अथवा सम्पूर्ण कार्पण्य । आधा दान और आधा कार्पण्य-यह हृदय का स्वभाव नहीं है।
मस्तिष्क , मस्तिष्क से दूर ; किन्तु हृदय , हृदय से समीप होता है । मस्तिष्क कभी - कभी वर्ग की बपौती बन जाता है , किन्तु हृदय सर्वसाधारण के मिलन की सामान्य भूमि है । चन्द्रशेखर रमण और रमुआ तथा जवाहरलाल नेहरू और जदुआ के बीच मस्तिष्क को लेकर बड़ा भेद है , मगर हृदय को लेकर वे बहुत समीप हैं । प्रेम और घृणा , दया और क्रोध को चारों पहचानते हैं । मस्तिष्क की वाणी कभी - कभी मस्तिष्क की भी पहचान में नहीं आती है ; किन्तु हृदय की आवाज को हृदय आसानी से समझ लेता है ।
हृदय की राह यद्यपि जोखिम से खाली नहीं , लेकिन वह आशु - सिद्धि की राह है । जिस तलवार से कलकत्ते और नोआखाली तथा बिहार में पाकिस्तान की लड़ाई लड़ी गई , वह बुद्धि के कारखाने या अक्ल की भाथी पर नहीं गढ़ी गई थी । वह तो कविता की फौलादी भावनाओं के बीच तपकर तैयार हुई थी ।
मगर ऐसा क्यों होता है ? विज्ञान तो कहता है कि सबसे बड़ी शक्ति बुद्धि है । फिर बुद्धिवादियों की विजय - वैजयन्ती का दंड कवि के हृदय में क्यों गाड़ा जाता है ?
ऐसा क्यों है कि गैरीबाल्डी की तलवार मैजिनी की कलम के योग के बिना नहीं चमकती , रोबसपियर की बगावत के कदम रूसो का ध्यान किए बिना नहीं उठते और जिन्ना की सीधी कार्रवाई इकबाल की प्रेरणा के बिना नहीं पूरी हो सकती ?
बात स्पष्ट है । दलीलों और तर्कों के सहारे हम जिस देवता को सन्तुष्ट करना चाहते हैं , उसका निवास मस्तिष्क के कोठे पर नहीं बल्कि हृदय के उपवन में है ।
दलील और तर्क उगलकर सामने के मनुष्य को पराजित करना विज्ञान का धर्म है । कविता तो मात्र विश्वास उगलती है ।
मस्तिष्क सिद्धान्त बनाता है , हृदय उस सिद्धान्त के प्रति आस्था उत्पन्न करता है ।
मस्तिष्क आदर्श की रचना करता है , हृदय लोगों को उसकी ओर चलने की प्रेरणा देता है ।
मस्तिष्क विज्ञान है , वह रोज नई - नई मूर्तियों की रचना करता है ।
हृदय कवि है , वह उन मूर्तियों को जीवित और चैतन्य बनाता है ।
जड़ मूर्तियों के फेरे में पड़कर आपस में लड़नेवाले मनुष्यो ! मस्तिष्क को छोड़कर हृदय की राह पकड़ो ।
('रेती के फूल' पुस्तक से)