shabd-logo

नेता नहीं, नागरिक चाहिए

21 फरवरी 2022

136 बार देखा गया 136

सन उन्नीस सौ बीस-इक्कीस के जमाने में एक विज्ञापन पढ़ा था : 'क्या आप स्वराज्य चाहते हैं? तो लेक्चर देना सीखिए।' इश्तहार छपवानेवाला कोई पुस्तक विक्रेता था जो इस विज्ञापन के जरिए अपनी किसी किताब की बिक्री बढ़ाना चाहता था और सम्भवतः किताब में नेताओं के भाषणों का ही संकलन भी था।

तब से इस देश में व्याख्यानों की ऐसी झड़ी रही है, जैसी झड़ी अब मेघों की भी नहीं लगती। पिछले तीस वर्षों से अपने देश में व्याख्यान लगातार बरसते रहे हैं और उनकी वृद्धि करनेवाले नेताओं की तादाद भी बेशुमार रही है। आजादी की लड़ाई के दिनों में देश के सामने ले-देकर एक सवाल था कि विदेशी शासन कैसे हटाया जाए। मगर यह सवाल जरा टेढ़ा पड़ता था क्योंकि हुकूमत से लड़ने का अर्थ अपनी जान और माल पर संकट को आमन्त्रित करना था। इसलिए जो लोग भी अपनी थोड़ी या बहुत कुरबानी देने के लिए आगे आए, उन्हें जनता ने नेता कहकर पुकार दिया। जनता के पास और था ही क्या जिसे लेकर वह कुरबानी की इज्जत करती?

लेकिन आजादी के बाद जब देश के सारे काम नेताओं के हाथ में आ गए, तब उन्हें पता चला कि अभी तक इस देश ने नेता ही पैदा किए हैं, नागरिक नहीं। व्याख्यान सुनते-सुनते इस देश ने व्याख्यान देने की आदत डाल ली है। जहाँ तक व्याख्यान के मजमून पर अमल करने का सवाल है, वह परिपाटी स्वतन्त्रता के आगमन के साथ ही समाप्त हो गई। अब यहाँ के लोग कर्म को कम, वाणी को अधिक महत्त्व देते हैं। हर किसी की यही अभिलाषा है कि वह दूसरों को कुछ उपदेश दे, मगर खुद किसी भी उपदेश पर अमल करने को वह तैयार नहीं है। यों देश के नवनिर्माण के ज्यादा काम ठप पड़े हुए हैं; क्योंकि जो सचमुच देश के नेता हैं, वे काम करना नहीं जानते और जो काम करना जानते हैं, उन्हें हाथ-पाँव हिलाने की अपेक्षा जीभ की कैंची चलाने में ही अधिक आनन्द आता है। नेता बनने की धुन का यह पहला असर है जिसे हिन्दुस्तान आज बुरी तरह भोग रहा है।

फिर भी यह सच है कि देश के नेता, देश के शिक्षा विशेषज्ञ और बच्चों के माता-पिता सभी चाहते हैं कि स्कूलों, कॉलेजों में पढ़नेवाले हमारे सभी बच्चे और नौजवान किसी-न-किसी क्षेत्र में नेता बनने की तैयारी करें। लेकिन क्या किसी ने यह भी कभी सोचा है कि अगर सारा समाज नेता बनने की तैयारी में लग जाए तो नेताओं के पीछे चलनेवाले लोग कौन रह जाएँगे? और क्या नेताओं से भरा हुआ देश कोई अच्छा देश होता है?

कल्पना कीजिए कि देश का एक-एक आदमी जवाहरलाल हो गया, तो फिर यहाँ का एक-एक आदमी सोचेगा, योजना बनाएगा और बहस करेगा। लेकिन तब इन पैंतीस करोड़ जवाहरलालों को भोजन कौन देगा? उनके लिए कपड़े कौन बुनेगा? और मश्किल तो यह है कि उनकी मोटरें कौन चलाएगा? जवाहरलाल बनने में और सब ठीक है; कठिनाई सिर्फ इतनी ही है कि जवाहरलाल कुदाल नहीं चला सकता, हथौड़े नहीं उठा सकता और ज्यादातर वह अपनी मोटर भी आप नहीं हाँकता है।

'बड़ों की बात सुनो, उनकी नकल मत करो'-यह कहावत किसी भारी अक्लमन्द ने कही होगी। लेकिन अब तो बड़ा और छोटा, यह भेद सुनते ही लोगों को गुस्सा आ जाता है। जिस जमाने का एक ही नारा हो कि सब लोग समान हैं, उस जमाने में एक या दस को बड़ा और बाकी को छोटा बताना तंगनजरी नहीं तो और क्या है? हर आदमी सिर्फ बराबरी के सिद्धान्त पर आगे बढ़ने को अधीर है। नतीजा यह है कि जो जहाँ है, वह वहीं कुढ़ रहा है। वह वहीं जल रहा है। हर एक को शिकायत है कि उसकी वाजिब जगह उसको नहीं मिली है। उसे जिस पद पर होना चाहिए, उस पर कोई और बैठ गया है जो निश्चित रूप से उससे छोटा और कमजोर है। अखबारों के सहायक सम्पादक अपने प्रधान सम्पादक से जल रहे हैं। मिल का छोटा मैनेजर बड़े मैनेजर के खिलाफ है। और राजनीतिक दलों के भीतर जो द्वेष का धुआँ छूट रहा है, उसका भी कारण यही है कि आगे के नेता को पीछे ढकेलकर कोई दूसरा आदमी उसकी जगह ले लेना चाहता है।

सब लोग आपस में बराबर हैं, इस बात का लोगों ने गलत अर्थ लिया है। इसका मामूली अर्थ यह है कि सबको विकास का समान अवसर मिलना चाहिए, यह नहीं कि अवसर की प्रतीक्षा किए बिना जो जहाँ चाहे, वहाँ इच्छामात्र से पहुंच जाए। अवसर कोई ऐसी चीज नहीं है जो रोटी-दाल की तरह सबके सामने परोसा जा सके। उसे पाने के लिए अपने गुणों का विकास करना होता है; तत्परता, मुस्तैदी और धीरता भी सीखनी होती है और उम्र तथा अनुभवों का भी इन्तजार करना पड़ता है। मगर नेतागिरी का चस्का लग जाने के कारण लोगों की इन्तजारी की लियाकत घट गई. है और जिस जगह पर आदमी धीरे-धीरे और बड़ी कोशिशों के बाद पहुँचता है, उस जगह पर अब लोग छलाँग मारकर पहुँच जाना चाहते हैं।

मगर जो लोग छलाँग मारकर आगे बढ़ना चाहते हैं, उसका कारण क्या है? कुछ तो यह कि कभी-कभी दूसरों को उन्होंने छलाँगें मारकर आगे बढ़ते देखा है और अधिकतर यह कि वे काम करना नहीं; हक्म चलाना चाहते हैं। वे मानते हैं कि जिन्दगी का असली मजा मेहनत करने में नहीं, अपने मातहतों को हिदायत भेजने में है। वे इस बात को भूल जाते हैं कि हिदायत भेजने की योग्यता काम करने से ही आती है। और हिदायत भेजने का काम इतना आसान भी नहीं है कि उसे जो भी चाहे, पूरा कर दे। योजना बनाने और आदेश भेजने की सही जिम्मेदारी को वही निभा सकता है जो उन सभी कामों के अनुभव प्राप्त कर चुका है, जिनकी देख-रेख का भार अब उसे सौंपा गया है। इसलिए जो आदमी अनुभव के दौर से होकर गुजरने से इनकार करता है और मेहनत से भागकर आराम की जगह पर पहुँचने के लिए बेचैन है, उसकी यह बेचैनी ही इस बात का सबूत है कि वह अपने संगठन का अच्छा नेता नहीं बन सकता। जिसके चरित्र में धीरता नहीं, उससे बड़े दायित्व के योग्यतापूर्वक निर्वाह की आशा नहीं की जा सकती। चूँकि कुछ अधीर लोग भी संगठनों के नेता बन गए हैं, इससे अधीरता नेतृत्व का गुण नहीं बन जाती। उलटे इन तथाकथित नेताओं के आचरण से यही शिक्षा निकलती है कि जो समय से पूर्व नेता बन जाने को बेचैन है, उसे नेता की जगह पर कभी भी मत आने दो।

नेता का पद आराम की जगह है, इससे बढ़कर दूसरा भ्रम भी नहीं हो सकता। अंग्रेजी में एक कहावत है कि किरीट पहननेवाला मस्तक बराबर चक्कर में रहता है। तब जो आदमी मेहनत और धीरज से भागता है, उससे यह कैसे उम्मीद की जाए की वह आठ पहर के इस चक्कर को बर्दाश्त करेगा और जिनमें धीरज नहीं, सबसे अधिक वे ही इस चक्कर को अपने माथे पर लेने को क्यों बेकरार हैं? दुनिया के सामने संगठनों से निकली हुई तैयार चीजें ही आती हैं, नेताओं के हस्ताक्षरों से भूषित कागज के पुर्जे नहीं। और कागज के इन निर्जीव पुों को लेकर दुनिया करेगी भी क्या? लोग तो कपड़े पहनना चाहते हैं। उन्हें यह जानने की कब इच्छा है कि मिलों के पीछे हुक्म किसका काम करता है? हम अखबारों में लेख और संवाद पढ़ना चाहते हैं; जिस चीज पर कलम उठाने को सहायक सम्पादक बेचैन हैं, उस सम्पादकीय को तो कोई पूछता भी नहीं।

जो अपने काम को प्यार करता है, वह कभी भी नाखुश नहीं होता और न उसे यही रोग सताता है कि घड़ी-घड़ी मेरा अपमान हो रहा है। जहाँ तक ताकत और . अधिकार का सवाल है, नेता चाहे कोई भी हो, अधिकार बराबर उसकी मेज पर विराजता है जो मेहनती और ईमानदार है। सारी दुनिया मेहनती और ईमानदार व्यक्ति की खोज में है, क्योंकि हर नेता चाहता है कि वह अपनी थोड़ी-बहुत जिम्मेदारी किसी ईमानदार आदमी पर डाल दे। अधिकार भोगने का जो असली सुख है, वह नेताओं नहीं, मेहनती सहायकों के हाथ में है। जो भी परिश्रमी और ईमानदार है, दफ्तर के अधिकार उसकी कुर्सी के इर्द-गिर्द घूमा करते हैं। और जब अधिकार भोगने का यह सीधा रास्ता मौजूद है, तब लोग नेता बनने के फेर में क्यों पड़ते हैं? यह भी है कि नेता कोई एक ही व्यक्ति हो सकता है, लेकिन ईमानदारी और मेहनत के जरिए बहुत से लोग अधिकार का स्वाद ले सकते हैं। इस प्रकार अधिकार भी विकेन्द्रित होता है और संगठन की भी तत्परता बढ़ती है।

एक तस्वीर यह है कि कारखाने के मैनेजर को अपदस्थ करके कई लोग उसकी कुर्सी पर अधिकार जमाना चाहते हैं। दूसरी तस्वीर यह है कि बहुत से कार्यकर्ता घोर परिश्रम करके अधिक-से-अधिक अधिकारों को अपने कब्जे में रखना चाहते हैं। अब यह चुनाव करना आसान हो जाता है कि देश की जनता और विश्व की मानवता का कल्याण किसमें है? उस तस्वीर में, जिसमें छल, छद्म और साजिश का बोलबाला है या उस तस्वीर में, जिसमें हर आदमी सच्चाई और परिश्रम के बल पर आदर और अधिकार पाना चाहता है?

नेतागिरी का लोभ एक दूसरी दृष्टि से भी मनुष्य को पतित बनाता है। जीवन की विशाल कर्मभूमि की ओर जरा नजर दौड़ाइए। सारा संसार नेतृत्व की अभिलाषा का शिकार हो रहा है। जो व्यापार में हैं, वे मुनाफाखोरी और चोरबाजारी करके धन में सबसे आगे निकल जाना चाहते हैं। जो नौकरी में हैं, वे अपने ऊपरवाले अफसर को ढकेलकर आगे आने को बेचैन हैं। और जो सामाजिक या राजनीतिक क्षेत्र में काम कर रहे हैं, वे भी ऊपर के नेताओं को हटाकर खुद उसकी जगह ले लेना चाहते हैं। भाषण, गर्जन, तिकड़म और छद्म, झूठे वायदों और धोखे की कसमों से सारा सार्वजनिक जीवन कोलाहलपूर्ण है। ये सब-के-सब नेतृत्व की अभिलाषा के दोष हैं। जब मनुष्य यह ठान लेता है कि अपने क्षेत्र में मुझे सबसे आगे बढ़ना है, तब साध्य का आकर्षण उसके भीतर प्रबल हो उठता है और साधन की महत्ता गौण हो जाती है। साधन की महिमा समझनेवाला आदमी गलत राह से चलकर आगे आना नहीं चाहेगा। और नेतृत्व का लोभ साधन की महिमा को कम करता है, इसमें सन्देह नहीं।

अपनी रेखा को बड़ी करने के बदले, दूसरे की रेखा को छोटी बनाने का कुत्सित भाव भी नेतृत्व को आकांक्षा से जन्म लेता है और इस कोशिश में वे सभी लोग आसानी से लग जाते हैं, अपनी योग्यता के बारे में जिनकी भावना अतिरंजित होती है अथवा जो यह सोचकर जलते रहते हैं कि मैदान जिनके हाथ में है, असल में उन्हीं लोगों के चलते हमारी बढ़ती नहीं हो रही है।

आए दिन विद्वानों, चिन्तकों और नेताओं से हम यह सुनते ही रहते हैं कि समाज बहुत ही कुरूप हो गया है और इसके सुधार में अब विलम्ब नहीं किया जाना चाहिए। मगर दुनिया क्यों कुरूप है और उसे सुन्दर बनाने का सही तरीका क्या है? प्रतिद्वन्द्विता की भावना मनुष्य के स्वभाव में दाखिल है, क्योंकि यह हमारी जीवधारी-प्रवृत्ति से निकलती है। लेकिन पशुओं के समान मनुष्य में केवल जीने की ही प्रवृत्ति नहीं होती। दिमाग का मालिक होने के कारण वह सोच भी सकता है और हृदय तथा आत्मा रखने के कारण वह अपने विचार को निर्मल भी बना सकता है। क्या उसे इसका ज्ञान नहीं हो सकता कि केवल पशु-प्रवृत्ति को लेकर चलने से वह मानवता से दूर और पशुता के समीप पहुँच जाएगा? जो भी मनुष्य मानवीय आनन्द में वृद्धि करे और जहाँ भी ईर्ष्या और द्वेष की लपटें उठ रही हैं, उन लपटों को नीचे लाए। व्यक्ति आगे बढ़ना चाहता है, यह न तो अस्वाभाविक है और न निन्दनीय ही। सिर्फ उसे यह देखते चलना है कि खुद को आगे बढ़ाने की कोशिश में कहीं वह उन मूल्यों को तो नहीं कुचल रहा है, जो एक मनुष्य के वैयक्तिक विकास से कई गुणा अधिक मूल्यवान हैं?

लोगों के भीतर दिन-रात नेतृत्व की आकांक्षा जगाते फिरना खतरनाक काम है। और नेता बनने की कोशिश में लगे रहने से हर आदमी नेता बन भी नहीं सकता। बात कड़वी हो या मीठी, लेकिन आदमी वहीं तक जाता है जहाँ तक जाने की उसमें मौलिक शक्ति होती है। ऐसा भी हुआ है कि इस नियम को तोड़कर लोग नेता के पद पर जा पहुंचे हैं। लेकिन ऐसे अपवादों के नतीजे अच्छे नहीं हुए, क्योंकि या तो वे जल्दी लुढ़ककर नीचे आ गए अथवा उनका नेता बना रहना इंसानियत के लिए . हानिकारक साबित हुआ है।

समाज का असली सुधार उसमें रहनेवाले व्यक्ति का सुधार है। व्यक्तियों के ही बुरे या भले होने से हम समाज को बुरा या भला कहते हैं। मुख्य बात यह नहीं है कि हम दूसरों को सुधरने का उपदेश दें, बल्कि यह कि सुधार की जो भी बातें हमारे मन में उठती हों, पहले हम उन्हें अपने चरित्र और स्वभाव पर लागू करें। समाज की सुन्दरता दो-चार नेताओं पर नहीं, बल्कि लाखों-लाख व्यक्तियों के सुधार पर निर्भर करती है।

और नेता होता कौन है? अकसर वह मनुष्य जो उन मूल्यों को अपने चरित्र और व्यक्तित्व में व्यावहारिक रूप देता है जिन मूल्यों की समाज को जरूरत होती है। . सभ्यता के मूल्य में परिवर्तन करनेवाले लोग पहले उन मूल्यों को स्वयं बरतते हैं। और जो ऐसा नहीं करते, उन्हें समाज का हार्दिक सम्मान भी प्राप्त नहीं होता है। इसलिए उचित यही है कि समाज की जिन कुरीतियों से हमारी नाराजी है, उन्हें सबसे पहले हम स्वयं छोड़ दें और जिन मूल्यों को हम समाज में लाना चाहते हैं, उन्हें भी अपने वैयक्तिक जीवन में सबसे पहले हमीं बरतना शुरू करें। समाज को योग्य नागरिकों की जरूरत है, नेताओं की नहीं।

('रेती के फूल' पुस्तक से) 

15
रचनाएँ
रेती के फूल
0.0
ज़िन्दगी के असली मजे उनके लिए नहीं हैं जो फूलों की छांह के नीचे खेलते और सोते हैं । बल्कि फूलों की छांह के नीचे अगर जीवन का कोई स्वाद छिपा है तो वह भी उन्हीं के लिए है जो दूर रेगिस्तान से आ रहे हैं जिनका कंठ सूखा हुआ, होंठ फटे हुए और सारा बदन पसीने से तर है ।
1

हिम्मत और ज़िन्दगी

21 फरवरी 2022
1
0
0

ज़िन्दगी के असली मजे उनके लिए नहीं हैं जो फूलों की छांह के नीचे खेलते और सोते हैं । बल्कि फूलों की छांह के नीचे अगर जीवन का कोई स्वाद छिपा है तो वह भी उन्हीं के लिए है जो दूर रेगिस्तान से आ रहे हैं जि

2

ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से

21 फरवरी 2022
0
0
0

मेरे घर के दाहिने एक वकील रहते हैं,जो खाने पीने में अच्छे हैं दोस्तों को भी खूब खिलाते हैं और सभा सोसाइटियों में भी भाग लेते हैं। बाल बच्चों से भरा पूरा परिवार नौकर भी सुख देने वाले और पत्नी भी अत्यन्

3

कर्म और वाणी

21 फरवरी 2022
0
0
0

महाकवि अकबर सर सैयद अहमद खाँ के कड़े आलोचकों में से थे । मगर जब सर सैयद का देहान्त हो गया , तब अकबर साहब ने बड़ी ही ईमानदारी के साथ लिखा :- हमारी बातें ही बातें हैं , सैयद काम करता था , न भूलो फर्क

4

विजयी के आँसू

21 फरवरी 2022
0
0
0

[ महाभारत के अनन्तर महाराज युधिष्ठिर के परिताप की कल्पना ] कुरुक्षेत्र का युद्ध समाप्त हो गया । लड़ाई के पहले वीरों की श्रेणी में जो भी गिने जाने के योग्य थे , वे प्रायः सब - के - सब युद्ध भूमि में स

5

भविष्य के लिए लिखने की बात

21 फरवरी 2022
0
0
0

रामचरितमानस के मंगलाचरण में तुलसीदास जी ने कहा है कि रामायण की रचना मैं अपने अन्त:सुख के लिए कर रहा हूँ। प्रत्येक कलाकार यही कहता है और यह ठीक भी है; क्योंकि रचना की प्रक्रिया से आनन्द नहीं मिले तो को

6

हिन्दी कविता में एकता का प्रवाह

21 फरवरी 2022
0
0
0

अकसर देखा गया है कि किसी देश के लोगों में राष्ट्रीयता का भाव उस समय पैदा होता है, जब वह देश किसी और देश का गुलाम हो जाता है। जब मुसलमान हिन्दुस्तान के शासक हुए, तब इस देश में राष्ट्रीयता को जन्म देनेव

7

भगवान बुद्ध

21 फरवरी 2022
0
0
0

एक बार सर हरिसिंह गौड़ ने गांधीजी को यह परामर्श दिया था कि हिन्दू धर्म के उसी रूप का प्रचार किया जाना चाहिए, जिसका आख्यान बुद्धदेव ने किया है। इस परामर्श को मैं तनिक भी अस्वाभाविक नहीं मानता, क्योंकि

8

भारत एक है

21 फरवरी 2022
0
0
0

अक्सर कहा जाता है कि भारतवर्ष की एकता उसकी विविधताओं में छिपी हुई है, और यह बात जरा भी गलत नहीं है, क्योंकि अपने देश की एकता जितनी प्रकट है, उसकी विविधताएँ भी उतनी ही प्रत्यक्ष हैं। भारतवर्ष के नक्शे

9

चालीस की उम्र

21 फरवरी 2022
0
0
0

चालीस की उम्र कहते हैं , जवानी शरीर में नहीं , शरीर के भीतर कहीं दिल में रहती है । भीतर से फूटनेवाला उमंगों का फव्वारा जिनका ताजा और जवान है , वे उम्र के उतार के मौसम में भी जवान ही रहते हैं । फिर भी

10

हृदय की राह

21 फरवरी 2022
0
0
0

मनुष्य दूरवीक्षण - यन्त्र से तारों को देखता तथा गणित के नियमों से उनकी पारस्परिक दूरी को मापता है । यह है मनुष्य की बुद्धि । मनुष्य रात की निस्तब्धता में आकाश की ओर देखते - देखते स्वयं अपने हाथ से से

11

खड्ग और वीणा

21 फरवरी 2022
0
0
0

बहुत दिनों की बात है । एक बार भूकम्प और अग्निकांड - दोनों का धरती पर साथ ही आक्रमण हुआ । महल गिर गए ; झोपड़ियाँ जलकर खाक हो गईं । कहीं नई जमीन पानी में से निकल आई ; कहीं बसे - बसाए नगर समुद्र में समा

12

कला, धर्म और विज्ञान

21 फरवरी 2022
0
0
0

हिन्दी-प्रान्तों में आजकल साहित्य-सभाओं की धूम है। यह अच्छी बात है, क्योंकि इससे मालूम होता है कि देश की जनता राजनीति से ऊब रही है अथवा राजनीति को वह अब काफी नहीं समझती। हम छिलके से बीज की ओर, कर्म से

13

राष्ट्रीयता और अंतर्राष्ट्रीयता

21 फरवरी 2022
0
0
0

सामान्य मनुष्य को हम जिस गज से मापते हैं, महापुरुषों की ऊँचाई और विस्तार उसी गज से मापे नहीं जा सकते । दूसरी बात यह है कि महापुरुषों का मस्तिष्क इतना विशाल होता है कि उसमें एक साथ दोनों ध्रुव निवास कर

14

नेता नहीं, नागरिक चाहिए

21 फरवरी 2022
0
0
0

सन उन्नीस सौ बीस-इक्कीस के जमाने में एक विज्ञापन पढ़ा था : 'क्या आप स्वराज्य चाहते हैं? तो लेक्चर देना सीखिए।' इश्तहार छपवानेवाला कोई पुस्तक विक्रेता था जो इस विज्ञापन के जरिए अपनी किसी किताब की बिक्र

15

संस्कृति है क्या ?

21 फरवरी 2022
1
0
0

संस्कृति एक ऐसी चीज है जिसे लक्षणों से तो हम जान सकते हैं, किन्तु उसकी परिभाषा नहीं दे सकते। कुछ अंशों में वह सभ्यता से भिन्न गुण है। अंग्रेजी में कहावत है कि सभ्यता वह चीज है जो हमारे पास है, संस्कृत

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए