ईर्ष्या के बल पर कभी कोई धनवान नहीं बनता है। ईर्ष्या के डंक को कोई भी शांत नहीं कर सकता है।। लोहे के जंग जैसा ईर्ष्या मनुष्य को भ्रष्ट करती है। ईर्ष्यालु अपने बाणों से अपनी हत्या कर देती है।।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसके अस्तित्त्व की अहमियत समाज में ही है, इसलिए वह संसार में अकेला नहीं रह सकता है । उसके लिए सभी परिवार जनों और बन्धुजनों का सहयोग आवश्यक होता है । वह कभी दूसरों से अपेक्षा करता है और कभी दूसरे उससे अपेक्षा करते हैं । यह क्रम लगातार चलता ही