मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसके अस्तित्त्व की अहमियत समाज में ही है, इसलिए वह संसार में अकेला नहीं रह सकता है । उसके लिए सभी परिवार जनों और बन्धुजनों का सहयोग आवश्यक होता है । वह कभी दूसरों से अपेक्षा करता है और कभी दूसरे उससे अपेक्षा करते हैं । यह क्रम लगातार चलता ही रहता है । मनुष्य जीवन के दौरान वह अपनों से, समाज से और परायों से, हम सब से कुछ न कुछ चाह रखता है । जीवन भर आदमी को केवल दो ही चीजें अक्सर परेशान करती रहती है प्रथम ‘अपेक्षा’ और दूसरी है ‘उपेक्षा’ । जब मनुष्य अपने माता-पिता, मित्रों-सम्बन्धियों अथवा सहयोगियों की अपेक्षाओं पर खरा उतरता है तब वह सबका प्रिय बन जाता है और सभी उसकी निष्ठा और कार्यशैली की तारीफों के पुल बाँधते नहीं थकते । दूसरी ओर हम सबसे ज्यादा आहत केवल इस बात से अधिक होते है कि, कोई हमे उपेक्षित करके छोड़ दे और हम उस उपेक्षा के लिए कुछ न कर सके ।
मनुष्य को जीवन के हर मोर्चे पर अनेक कड़ी परीक्षाओं में उत्तीर्ण होना पड़ता है । जहाँ पर उससे कोई चूक हो गई अथवा वह असफल हो गया, वहीं उसकी टीका-टिप्पणी आरम्भ हो जाती है । उसकी बुराई करने का विशेषाधिकार लोगों को मिल जाता है । ऐसे समय में कोई व्यक्ति अपने गिरेबान में झाँककर नहीं देखना चाहता कि, उसकी सफलता का प्रतिशत कितना है । लोग तो बस दूसरे की कमियों को लपकने के लिए तैयार बैठे रहते हैं । इसका कारण है कि ऐसा करने से बिना जेब ढीली किए उनका मनोरंजन हो जाता है और मौकापरस्त लोग इस प्रकार के अवसरों का भरपूर लाभ उठाते ही हैं । कोई भी व्यक्ति शत-प्रतिशत दूसरों की अपेक्षाओं पर न तो खरा उतर सकता है और न ही सभी की अपेक्षाओं को पूरा कर सकता है । इसके पीछे मनुष्य की आर्थिक, शारीरिक, धार्मिक, मानसिक स्थितियों का हाथ होता है । कभी-कभी मनुष्य की मजबूरी होती है और कभी आलस्यवश, हीनभावना या कमजोर इच्छा शक्ति के कारण वह जीवन की रेस में पिछड़ जाता है ।
मानव का स्वभाव है कि किसी के भी द्वारा की गई उपेक्षा को वह सहन नहीं कर पाता है । उसका अहम... उसे उन सबसे दूर कर देता है जो उसकी अवहेलना करते है । वह अपनों द्वारा उपेक्षित किए जाने को सहन नहीं कर पाता और उस स्थिति में वह मन ही मन टूटने लगता है । उन सबसे अपना सम्बन्ध विच्छेद तक कर लेता है और कई अवस्थाओं में वह आजन्म, उन सबका चेहरा भी नहीं देखना चाहता, जिनके द्वारा उसके अहम को चोट पहुंची हो । ‘अपेक्षा’ और ‘उपेक्षा’ दोनों ही भाव बड़ी ही खूबसूरती से सम्बन्धों को तोड़ने के लिए 'आग में घी' डालने का काम करते है । ये दोनों ही भावनाएँ सहृदय मनुष्य के लिए सदा ही घातक रही है । मनुष्य के अहम को जब चोट पहुँचती है तब वह क्रोधित होता है और क्रोध एक मानसिक मनोवेग / विकृति है । क्रोध अधिकतर अपेक्षा से जन्म लेता है और वह उपेक्षा के कारण विकसित होकर ईर्ष्या को जन्म देता है । इसके विपरीत जब वह दूसरों की उपेक्षा करता है तो स्वयं को सही ठहराने के लिए, उस समय सौ-सौ बहाने ढूँढ लेता है । उस समय वह भूल जाता है कि, जैसी पीड़ा उसे अपनी अवहेलना झेलते समय हुई थी, वैसी ही मनोव्यथा उन लोगो को भी हो रही होगी, जो जाने-अनजाने उसके तिरस्कार के भागीदार बने हैं । हमारे देश की युवाशक्ति सामाजिक परिवर्तन लाने में सक्षम है । युवाशक्ति किसी समाज संस्कृति और सभ्यता की नींव होता है, उसमे अपरिमित शक्ति होती है और वह तूफ़ानों को मोड़ने की शक्ति भी रखता है किन्तु पिछले कुछ दशकों में हताशावश युवाओं द्वारा आत्महत्याएं किए जाने के अविश्वसनीय आंकड़े चौकने वाले देखने को मिले है, जो वास्तव मे बुद्धिजीवियों के साथ-साथ हमारे लिए भी चिंतन का विषय है ।
‘अपेक्षा’ पूरी न हो अथवा उसे ‘उपेक्षा’ का शिकार बनना पड़े, दोनों ही विपरीत स्थितियों के समय मनुष्य को अपना धैर्य कदापि नहीं खोना चाहिए । उसे डटकर, साहस के साथ सीना तानकर, शांतचित्त मन के साथ इन विरोधी परिस्थितियों का सामना करना चाहिए । उचित समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए और मेरा अनुभव है कि, ऐसा कठिन समय भी आखिरकार गुजर ही जाता है । उसके बाद सब अनुकूल हो जाता है और लोग पिछली बातों को ही भूल जाते है । तब उसके जीवन में एक नया सवेरा मुस्कुराते हुए खुशहाली लेकर आ जाता है । अतः सदैव ‘अपेक्षा’ और ‘उपेक्षा’ की चिंता किए बिना, प्रसन्नचित्त से अपना कार्य करते रहना चाहिए ।