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शाम ढल कर रात को गले लगाने लगी थी,हल्की बूंदबांदी इस वक़्त खौफ पैदा कर रही थी,कुछ गाँव वाले, एक घर के आस पास इकठ्ठा होकर छप चूप की उस आवाज की ओर देख रहे थे।पहाड़ी इलाका,शाम ढलने का वक़्त ऊपर से आकाश में मंडराते काले बादल!बिजली प्रत्येक घर में थी लेकिन शहर की तरह चकाचौंध यहाँ नहीं थी।इंसान चलते फिरते काले साए मालूम होते तो पेड़ पौधे किसी डरावनी आकृतियों जैसे प्रतीत होते थे। ऐसे में कुछ लोग उस काले साए को देख रहे थे जो इस वक़्त छप छुप की आवाज के साथ छत की मुंडेर पर चल रहा था।लंबा कोट,घुटने तक जूते सिर पर सफेद देहाती टोपी,इतना ही मालूम पड़ता था,सूरत ठीक से दिखाई नहीं दी।
कुछ कदम चलने के बाद वो साया लड़खड़ाया तो लोगों के मुँह से चीख निकल पड़ी,वो संभला जोर से हँसा! ऐसी हँसी इस वक़्त सब के रोएं खड़े करने के लिए काफी थी।
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आज भी बाहर बारिश हो रही थी तारा और उसकी माँ सोने के लिए अपने अपने कमरों में जा चुकी थीं। गंगा सिंह और कमु अंगीठी के पास बैठे इधर उधर की बातें कर रहे थे।
"चाचाजी आपकी बात अधूरी रह गई थी!क्या हुआ था जब आप सुजान सिंह के घर गए?!" कमु ने मन में कुलबुला रहे सवाल को गंगा सिंह की तरफ उछाल दिया।
सुजान सिंह ने एक लकड़ी से कोयले हिलाए कुछ देर न जाने क्या सोचते रहे। उन्होंने कमु की तरफ देखा और एक बार फिर उस काली रात के अँधेरे में जा पहुंचे......
"सुजान के घर के करीब पहुँच का सबसे पहले मैंने वहाँ के हालात समझने की कोशिश की मैं घर से कुछ दूर छिप कर खड़ा हो गया। थोड़ी देर तक मैं किसी आहट की फिराक में रहा। हरीश और चन्दन खेत पर दिखाई नहीं दिए थे,इसलिए सुजान के घर पर उनके होने कर मुझे शक था लेकिन काफ़ी देर तक ज़ब किसी तरह की कोई कोई आहट नहीं हुई तो मैं घर की तरफ गया। इधर उधर देखते हुए मैं सावधानी से सुजान के घर के दरवाज़े पर पहुंचा मैंने फुसफुसाहट भरी आवाज दी..
"रेवती.... रेवती मैं हुँ लम्बाड़ी गांव का गंगा सिंह!.. " मैंने तीन-चार बार आवाज दी लेकिन अंदर से कोई जवाब नहीं आया! फिर मैंने दरवाज़े पर हल्का सा धक्का दिया और दरवाजा खुल गया।
इस तरह दरवाजा खुलने पर मेरे अंदर एक डर ने घर कर लिया मैंने टॉर्च जलाई और घर में चारों तरफ घुमाई लेकिन वहाँ मुझे कोई दिखाई नहीं दिया। मैं घबरा गया, मेरा डर मुझे सच होता दिखाई दिया। मैंने बाकि के कमरों में भी रेवती को तलाश किया लेकिन वो न मिली।
उन्होंने शायद रेवती के साथ भी कुछ गलत कर दिया है ये सोच कर अब मुझे दिवान और तुम्हारी फ़िक्र होने लगी। पैर में चोट के बावजूद मैं तेजी से तुम्हारे घर की तरफ गया। पूरे रास्ते बस यही सोचता रहा न जाने उन्होंने रेवती के साथ क्या किया होगा।
तुम्हारे घर पहुंचा तो वहाँ का नजारा देखकर मैं लगभग होश खोते खोते बचा!तुम्हारी माँ अस्त व्यस्त हालत में जमीन पर पड़ी हुई थी। कुछ देर के लिए मैं सन्नाटे में चला गया। इतना कुछ एक ही रात में! मैं बुत बना बस आँखें खोले खड़ा था एक पल के लिए जैसे मैं कुछ भी समझ नहीं पाया लेकिन फिर अगले ही पल मैंने खुद को ही झकझोरा और तुम्हारी माँ के पास गया, "भाभी!....आँखें खोलो भाभी!देखो मैं हुँ!!" लेकिन वो कुछ न बोली मैं उठकर एक गिलास में पानी ले आया और भाभी के चेहरे पर पानी के छीटें मारे वो थोड़ा होश में आई, " ये सब कैसे हुआ भाभी? और बच्चे.. वो कहाँ है? "
"च...चन्दन... और..हरीश... " भाभी ज्यादा बोल न सकी लेकिन हाथ से कमरे की तरफ इशारा कर दिया और आँखें बंद कर ली तभी मुझे बाहर किसी की आहट सुनाई दी। मैं उस कमरे की तरफ दौड़ा जिस तरफ अभी अभी भाभी ने इशारा किया था।
बहुत ढूंढने पर भी मुझे वहाँ कोई नहीं मिला, एक डोरी का ढक्क्न खुला हुआ था! और वहाँ कपड़े बिखरे हुए थ!मैंने खिड़की की तरफ देखा उसकी दो सलाखों को निकाल दिया गया था, मैंने अंदाजा लगाया वहाँ से तुम दोनों ही भागे होंगे क्योंकि कोई बड़ा इंसान वहाँ से नहीं निकल सकता था। अभी मैं सोच ही रहा था ज़ब कमरे के बाहर कुछ आवाज हुई!मुझे लगा, ज्ञान सिंह या उसका कोई भाई वापस आया है, मैने जल्दी से उस खिड़की की दो सलाखें और निकाल दी और वहाँ से बाहर निकल गया।"
कमु भी अतीत की यादों में चला गया....
"थोड़ी सी ताकत लगा दोस्त हम ये कर सकते है!, थोड़ी और वरना हम मर जायेंगे, वो हमें मार देंगे!!" उनमें से एक बच्चा जिसका नाम सुजान है वो बोला।
"लेकिन मेरी माँ!!..." दूसरा बच्चा कमु बोला।
"अरे वो मर गई! मैंने खुद देखा दरवाज़े के छेद से!!अगर हम दोनों नहीं भागे तो ये बुरे चाचा लोग हमें भी मार देंगे!!" सुजान उसे समझाता हुआ बोला।
"मेरी माँ को क्यों मारा?? मुझे माँ को देखना है.." कमु लगभग रोनी सूरत बना कर बोला।
"क्यों मारा ये तो मुझे भी नहीं पता, लेकिन तू माँ को देखने जायेगा तो वो हमें भी मार देंगे, अभी हम छोटे है....
निकल गया! चल खिड़की से बाहर निकल.... अरे!उधर मत देख..जल्दी कर" सुजान ने कमु को पकड़ कर खिड़की से बाहर ले धकेल दिया और फिर खुद भी वहाँ से बाहर निकल आया।
"देख अभी हम बहुत छोटे है, ज़ब हम बड़े हो जायेंगे तब इन चाचा लोगों से जरूर पूछेंगे कि इन्होंने हमारे घरवालों को क्यों मारा?? " सुजान कमु से बोला।
"हाँ और तब हम भी इन्हें ऐसे ही मारेंगे!" कमु मुट्ठी को हवा में लहरा कर दूसरी हथेली पर मारते हुए गुस्से में बोला।
"जरूर मारेंगे..कर वादा! "सुजान ने अपनी हथेली आगे करते हुए कहा।
"पक्का वादा। " कमु ने उसके हाथ पर अपना हाथ रखते हुए कहा।
इतना बता कर कमु खामोश हो गया।
" लेकिन सुजान तो सोया था उसे कैसे पता कि उसके पिता को भी मार दिया गया है?!" गंगा सिंह ने हैरानी से पूछा।
"सुन लिया था उसने! ज़ब आप उसे बिस्तर पर लिटा कर पापा को सारी बात बता रहे थे तब उसकी नींद खुल चुकी थी, मैं भी जाग ही रहा था हम दोनों ने सब कुछ सुना था। " कमु ने बताया।
"अच्छा! मैंने बहुत ढूँढा तुम दोनों को लेकिन तुम नहीं मिले!पूरी रात मैं भटकता रहा। अगले कुछ दिनों तक मेरे कान खड़े ही रहे हर बात पर मैं तुम दोनों की किसी खबर के इंतजार में रहता लेकिन दिन, हफ्ते, महीने गुजर गए पर तुम दोनों का कुछ अता पता न चला। " गंगा सिंह बोला।
"आपको कैसे मिलते? हमें पापा मिल गए थे फिर रात ही रात हम जंगल के रास्ते सड़क तक पहुंचे और सुबह की पहली बस से शहर को रवाना हो गए।
"मुझे अफ़सोस रहा कि तुम्हारे पिता मुझसे आख़री बार मिल कर भी नहीं गए!" गंगा सिंह उदासी से बोला।
"पापा आपसे मिलते ही क्यों?"कमु गंगा सिंह की तरफ देखकर बोला।
"क्यों?? मुझसे क्यों नहीं मिलता?मुझसे से तो उसे जरूर मिलना चाहिए था पांच साल तक मैं उसे मरा हुआ ही समझता रहा!पांच साल बाद ज़ब तुम गांव आए तब मुझे पता चला कि तुम जिन्दा हो!सोबन जिन्दा है!.. चलो माना उस वक़्त ऐसी परिस्थिति नहीं होगी लेकिन बाद में चिठ्ठी भी तो लिख सकता था। " गंगा सिंह बोला।
"नहीं लिखते!क्योंकि उनकी नजरों में आप भी गुनहगार ही थे !"
"मैं!!लेकिन क्यों?? मैंने क्या किया था?!!" गंगा सिंह के चेहरे पर आश्चर्य के भाव साफ दिख रहे थे।
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अशोक और सुन्दर शाम होते ही अपने चाचा गणेश और हरीश के घर के आस पास ही रहते थे ताकि अगर वो नशे की हालत में घर से निकले या किसी भी कारण से बाहर निकले तो वो उन पर नजर रख सके और अगर उन्हें कोई मारने की कोशिश करें तब उसे रंगे हाथो पकड़ सके। अनजान कातिल के इंतजार में दो रातें गुजर चुकी थी। उन्होंने अपने इस प्लान में गणेश और हरीश के बेटों को भी शामिल कर लिया था, सारी रात जाग कर दो अलग अलग घरों पर पहरा देना, दो लोगों के बस की बात नहीं थी इसलिए गणेश के बड़े बेटे मोहन और हरीश के बेटे नरेश को भी उन्होंने सचेत कर दिया था वो लोग बारी बारी से जाग कर चारों तरफ नजर रखते थे।
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शाम ढल कर रात को गले लगाने लगी थी,हल्की बूंदबांदी इस वक़्त खौफ पैदा कर रही थी,कुछ गाँव वाले एक घर के आस पास एकत्रित होकर छप चूप की उस आवाज की ओर देख रहे थे।पहाड़ी इलाका,शाम ढलने का वक़्त ऊपर से आकाश में मंडराते काले बादल!बिजली प्रत्येक घर में थी लेकिन शहर की तरह चकाचौंध यहाँ नहीं थी।इंसान चलते फिरते काले साए मालूम होते तो पेड़ पौधे किसी डरावनी आकृतियों से प्रतीत होते थे,ऐसे में कुछ लोग उस काले साए को देख रहे थे जो इस वक़्त छप छुप की आवाज के साथ छत की मुंडेर पर चल रहा था।लंबा कोट,घुटने तक जूते सिर पर सफेद देहाती टोपी,इतना ही मालूम पड़ता था,सूरत ठीक से दिखाई नहीं दी।
कुछ कदम चलने के बाद वो साया लड़खड़ाया तो लोगों के मुँह से चीख निकल पड़ी,वो संभला जोर से हँसा! ऐसी हँसी इस वक़्त सब के रोएं खड़े करने के लिए काफी थी।
भीड़ में से कोई चिल्लाया,"अरे कोई जाकर उसे नीचे ले आओ"
जैसे किसी के कहने का ही इंतजार था एक नौजवान तुरन्त आगे आया उसके पीछे दो और लोग आ गए दोनों की मदद से नौजवान छत पर चढ़ा ।बड़ी मुश्किल से संभलते संभलते वो उस आदमी के पास गया और उसका हाथ थामते हुए बोला,"चाचा चलों हम नीचे चले।" वो नौजवान कोई और नहीं अशोक था और छत पर चलने वाला वो साया गणेश था!!उसने अशोक की तरफ देखा और उसे धक्का दे दिया!
अशोक लुढ़कते हुए छत से नीचे की तरफ आ गया।इधर नीचे कुछ लोगों की चीख निकल गई ।अभी अशोक संभला भी नहीं था जब गणेश सिंह उसके पास आया और दोनों हाथों से उसका गला पकड़ते हुए उसे ऊपर उठा लिया।
"तू बचाएगा!कब?कैसे?हैं.. बता!!... हा हा हा...." मोहन सिंह एक बार फिर से एक भयानक हँसी हँसने लगा।
नीचे खड़े लोगों की रूह कांप गई और फिर अचानक गणेश सिंह ने अशोक को छोड़ दिया,अशोक फिर से लुढ़कता हुआ छत के सिरे पर आ पहुँचा ।शायद अशोक नीचे ही गिर पड़ता लेकिन ऐन वक्त पर एक दूसरे शख्स यानि नरेश ने उसे पकड़ लिया और दोनों नीचे उतर आए।
"क्या कर रहे हो तुम सब यहाँ?मेला लगा है??बड़े आए मेरे हिमायती बनने!जाओ सब यहाँ से!" गणेश जोर से गुर्राया
लोग उसे आश्चर्य से देखने लगे,इस तरह की हरकत उसने पहले कभी नहीं की थी।
सारा गाँव इस वक़्त अजीब सी दहशत में था, बीमारी पूरे गाँव में फैल चुकी थी,दवा लेते,ठीक होती और फिर से अपनी पकड़ बना लेती ।आलम ये था कि इस बीमारी के चलते कुछ लोग अजीब सी हरकते करने लगे थे।लेकिन गणेश की ये हरकत सबसे ज्यादा अजीब थी।
अशोक हक्का-बक्का सा खड़ा ये सब देख रहा था। कुंती(गणेश की पत्नी ) गणेश को नीचे आने के लिए बोल बोल कर थक चुकी थी। उसे शायद विश्वास हो चला था कि उसके पति के अब कुछ ही पल शेष है, इसलिए वो फूट-फूट कर रोने लगी थी। गांव की दो चार औरतों ने कुंती को पकड़ कर बैठा दिया था।
गणेश ने शराब की बोतल छत पर ही दे मारी और जोर से हँसने लगा। फिर उन्ही कांच के टुकड़ो को अपने पैरों से चरमराता हुआ वो आगे बढ़ने लगा, उसके लड़खड़ाते है नीचे खड़े लोगों की चीख निकल जाती।
अशोक ने सुन्दर को हरीश पर नजर रखने को कहा, उसे शक था कि सबको यहाँ उलझा हुआ देखकर कातिल कभी भी हरीश को मार सकता था। हरीश शराब के नशे में धुत अपने भाई की हरकतों से बेखबर अपने घर में सोया हुआ था।
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अतीत की वो काली रात.....
चन्दन और हरीश बोरे लेकर जंगल में पहुंचे, बारिश भी न रुकने का संकल्प कर चुकी थी, रात भी अपने पूरे शबाब पर थी। बारिश का मौसम, घनघोर जंगल, रात का वक़्त। ये सबकुछ एक साथ बहुत भयानक लग रहा था लेकिन चंदन और हरीश न जाने किस मिट्टी से बने थे। उन्होंने वो बोरे नीचे पटके, बोरे खोल कर सुजान और सोबन की लाश बाहर निकाल दी। उन्हें पूरा विश्वाश था कि ये दोनों मर चुके है और अगर थोड़ी सी जान बची भी होगी तो वो भी सुबह तक निकल जाएगी या कोई जंगली जानवर ही निगल लेगा। लाश वहाँ छोड़कर वो दोनों वहाँ से आराम से निकल गए।
वो दोनों लाश बारिश में ही रही कुछ देर बाद उनमें से एक लाश हिली।
लाश!! नहीं! नहीं!वो लाश नहीं है वो तो सोबन है! सोबन ने आँखें खोली, आस पास एक नजर डाली और अचानक कहराते हुए उठ बैठा। अंधेरा होने के कारण उसे जंगल में कुछ नहीं दिखाई दिया वरना कुछ ही दूरी पर पड़ी लाश को वो जरूर देख लेता जो सुजान या उसका बहरूपिया था!
अंदर कमु और गंगा सिंह अतीत में डूबे थे और बाहर खिड़की से कान लगाए, रैनकोट पहने हुए एक साया उनकी सारी बातें सुन और समझ रहा था।
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अशोक गणेश को नीचे उतारने के बारे में सोच रहा था उसने उमा से अपने पिता को बातों में लगाने को कहा और मोहन को लेकर छत कि तरफ चल दिया। इधर उमा गणेश को बातों में लगाए रखती उधर अशोक और मोहन गणेश को पकड़ कर नीचे लाने की कोशिश करते। नरेश भी मदद के लिए तैयार था।
"पापा आपने खाना नहीं खाया है, पहले कुछ खा लीजिए !" उमा ने गणेश कर ध्यान अपनी तरफ खींचने की कोशिश की
"सही बात कही तूने!तू बना मेरे लिए खाना, तब तक मैं घूम कर आता हुँ!" गणेश छत पर लड़खड़ा कर चलते हुए बोला।
"आप नीचे आ जाइए, देखिए लाईट भी नहीं है!तब तक मैं आपके लिए चाय बना देती हुँ।
इसके आगे उमा कुछ बोल न सकी उलटा उसके मुँह से एक चीख निकल पड़ी। अब तक अशोक और मोहन छत पर पहुँच चुके थे। लेकिन!गणेश!! वो वहाँ नहीं था। अशोक और मोहन ने हैरानी से इधर उधर देखा और उन्हें गणेश दिखाई दिया। करीब दो तीन फ़ीट की दूरी पर बिजली कर एक खम्बा था, गणेश ने छत से उस पर छलांग लगा दी थी। उस वक़्त लाइट नहीं थी इसलिए उसे कुछ नहीं हुआ था। लेकिन लाईट किसी भी पल आ सकती थी।
"नहीं चाचाजी ! आप इधर आ जाइए !!देखिए मोहन भी आपको बुला रहा है। " अशोक ने मोहन की तरफ देखकर कहा।
"हाँ पापा आप तुरंत नीचे आ जाइए " मोहन की आवाज डर से कांप रही थी।
लेकिन गणेश पर उनकी बातों कर कोई असर नहीं हुआ वो बिजली के खम्बे पर और ऊपर चढ़कर तारों से खेलने लगा। नीचे खडे कुछ लोग ये सोच कर घर जा चुके थे कि गणेश ये सब शराब के नशे में कर रहा है, शराब कर नशा उतरते ही गणेश भी नीचे आ जायेगा। जो वहाँ पर थे उनकी सांस जैसे सीने में ही फंस गई थी !!ऐसा नजारा देख कर और तभी!!बिजली आ गई !!