**माँ, मुझे कोख में रहने दो**
*(माँ-बेटी का संवाद)*
"माँ, मुझे कोख में रहने दो,
मैं भी देखना चाहती हूँ दुनिया की रौशनी को।
मैं भी जीना चाहती हूँ,
तेरी गोद में खेलना चाहती हूँ।"
एक नन्ही सी आवाज़ आई,
माँ के दिल में गहराई से समाई।
उस नन्ही जान ने पुकारा,
जीने की चाह ने हृदय को झंझोरा।
"माँ, क्यों दुनिया मुझे नहीं अपनाती?
क्यों मेरी राह में अंधेरे ही अंधेरे सजाती?
क्या मैं बोझ हूँ इस दुनिया पर,
क्या मेरे आने से होता है सबका डर?"
माँ ने अश्रुपूरित आँखों से जवाब दिया,
"बिटिया, ये समाज बहुत क्रूर है,
यहाँ तेरा जन्म आसान नहीं,
यहाँ हर कदम पर मुश्किलें हैं घनी।"
"तू प्यारी है, मेरे दिल का टुकड़ा है,
पर समाज तुझसे मुंह मोड़ता है।
तुझे जीने का अधिकार नहीं देता,
तेरे अस्तित्व को ही मानने से इंकार करता।"
बेटी ने फिर धीरे से कहा,
"माँ, क्यों मेरा आना इतना भारी है?
क्यों बेटियों को मानते हैं अभिशाप?
क्या मैं भी नहीं बन सकती तेरी ताकत,
क्या मैं नहीं दे सकती समाज को कोई नया आकार?"
माँ ने कांपते होठों से कहा,
"बिटिया, समाज की ये धारा गलत है,
बेटियों को मानते हैं वो दुर्बल,
पर मैं जानती हूँ तू है अजेय, अमरबल।"
"तेरी आने वाली हंसी की कल्पना से ही,
मेरे दिल में हजारों सपने जगते हैं।
तेरी मासूमियत की छवि से,
मेरे जीवन में नए रंग सजते हैं।"
पर समाज ने फिर आवाज लगाई,
"बेटी का जन्म है बोझ की परछाई।
उसे आने से पहले ही रोक दो,
बोझ से पहले ही मुक्ति पा लो।"
बिटिया ने फिर माँ से प्रार्थना की,
"माँ, मुझे कोख में रहने दो,
मैं भी तुझसे लिपटकर सोना चाहती हूँ,
तेरी ममता की छांव में पलना चाहती हूँ।"
"मैं भी पढ़ना चाहती हूँ किताबों के पन्ने,
मैं भी देखना चाहती हूँ सुबह की किरणें।
मैं भी चलना चाहती हूँ अपने पाँव पर,
मैं भी पाना चाहती हूँ जीवन का उपहार।"
माँ का हृदय अब और टूट गया,
उसने देखा, कैसे समाज ने बेटी को ठुकराया।
उसकी ममता से जंग हो रही थी,
पर समाज की जंजीरें उसे रोक रही थीं।
बेटी ने फिर कहा, "माँ, मुझसे डर मत,
मैं तेरा सहारा बनूंगी, तेरा साथ दूंगी।
मैं भी बन सकती हूँ तेरा अभिमान,
बस मुझे एक मौका दे, माँ, मुझे दे पहचान।"
"देख, दुनिया को बदल सकते हैं हम,
तू मुझे जीने दे, दिखाएंगे हम एक नया गगन।
तू मेरी ताकत है, मैं तेरी हूं संतान,
हम मिलकर बनाएंगे समाज में नया स्थान।"
माँ ने अपनी आँखें बंद की,
उसकी आत्मा ने बेटी की पुकार सुनी।
अब और सहन नहीं कर सकती थी वो,
ममता की जीत हो गई, समाज को हार मानना पड़ा।
"बिटिया, मैं तुझे जन्म दूंगी,
तेरी हर सांस को अपनी ममता से सींचूंगी।
मैं तुझे दुनिया के सामने लाऊंगी,
तेरी हर हंसी को अपने जीवन में बसाऊंगी।"
"अब समाज को बदलने का समय आ गया है,
बेटियों का नहीं, अब उनका दौर आ गया है।
तू जीएगी, तू चमकेगी, तू बनेगी मिसाल,
तेरे कदमों से खुलेगा नारी का नया जाल।"
माँ की ममता ने जंग जीत ली,
अब बेटी का भविष्य सामने खड़ा था, रोशनी से भरा।
समाज का चक्र बदलने लगा,
बेटियों की धारा फिर से चलने लगी।
"माँ, मुझे कोख में रहने दो,
मैं भी इस दुनिया का हिस्सा बनना चाहती हूँ।
तेरी ममता से सींचा हुआ एक सपना,
मैं भी बनूंगी समाज का उज्ज्वल गहना।"
अब माँ-बेटी की लड़ाई थी समाज के खिलाफ,
जहां बेटियों का जन्म होगा हर आंगन में साफ।
माँ ने समाज को नई दिशा दिखलाई,
अब कोई बेटी न रोकेगी, हर नारी को नई रौशनी मिल जाएगी।
**समाप्त**
यह कविता एक माँ और उसकी अजन्मी बेटी के बीच भावनात्मक संवाद को दर्शाती है, जिसमें बेटी समाज की कठोरताओं और अस्वीकार्यता के बावजूद जीवन के लिए अपने अधिकार की पुकार करती है।