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मधुर-मधुर मेरे दीपक जल

24 फरवरी 2022

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मधुर-मधुर मेरे दीपक जल!
युग-युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल
प्रियतम का पथ आलोकित कर!

सौरभ फैला विपुल धूप बन
मृदुल मोम-सा घुल रे, मृदु-तन!
दे प्रकाश का सिन्धु अपरिमित,
तेरे जीवन का अणु गल-गल
पुलक-पुलक मेरे दीपक जल!

तारे शीतल कोमल नूतन
माँग रहे तुझसे ज्वाला कण;
विश्व-शलभ सिर धुन कहता मैं
हाय, न जल पाया तुझमें मिल!
सिहर-सिहर मेरे दीपक जल!

जलते नभ में देख असंख्यक
स्नेह-हीन नित कितने दीपक
जलमय सागर का उर जलता;
विद्युत ले घिरता है बादल!
विहँस-विहँस मेरे दीपक जल!

द्रुम के अंग हरित कोमलतम
ज्वाला को करते हृदयंगम
वसुधा के जड़ अन्तर में भी
बन्दी है तापों की हलचल;
बिखर-बिखर मेरे दीपक जल!

मेरे निस्वासों से द्रुततर,
सुभग न तू बुझने का भय कर।
मैं अंचल की ओट किये हूँ!
अपनी मृदु पलकों से चंचल
सहज-सहज मेरे दीपक जल!

सीमा ही लघुता का बन्धन
है अनादि तू मत घड़ियाँ गिन
मैं दृग के अक्षय कोषों से-
तुझमें भरती हूँ आँसू-जल!
सहज-सहज मेरे दीपक जल!

तुम असीम तेरा प्रकाश चिर
खेलेंगे नव खेल निरन्तर,
तम के अणु-अणु में विद्युत-सा
अमिट चित्र अंकित करता चल,
सरल-सरल मेरे दीपक जल!

तू जल-जल जितना होता क्षय;
यह समीप आता छलनामय;
मधुर मिलन में मिट जाना तू
उसकी उज्जवल स्मित में घुल खिल!
मदिर-मदिर मेरे दीपक जल!
प्रियतम का पथ आलोकित कर! 

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रचनाएँ
महादेवी वर्मा की सुप्रसिद्ध कविताएं
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महादेवी वर्मा की कविताओं का केन्द्र बिन्दु दुःख है। उनमें जीवन, प्रेम और सौन्दर्य के लिए विह्वल आकांक्षा | वह मार्ग की कठिनाइयों से विचलित नहीं होती बल्कि उनसे टकराने की प्रवृत्ति उनमें दिखाई देती है । यह विरहानुभूति निराशाजन्य नहीं वरन् आशा से पूर्ण है । कवयित्री मानव का सांसारिक मायामोह, सुख-सुविधाओं, भोग-विलास, नाते-रिश्ते आदि के बंधनों से मुक्त होकर निरंतर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहने के लिए मानव को जागृति का संदेश दे रही है। 'जाग तुझको दूर जाना' हैं जो मानव को सन्देश कविताओं के माध्यम से दे रही है। उनके अनुसार मात्र आँसू कुछ नहीं कर सकते । यदि हम यह कहें कि महादेवी वर्मा के काव्य का मूल भाव प्रणय है तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। उनकी कविताओं में उदात्त प्रेम का व्यापक चित्रण मिलता है। अलौकिक प्रिय के प्रति प्रणय की भावना, नारी-सुलभ संकोच और व्यक्तिगत तथा आध्यात्मिक विरह की अनुभूति उनके प्रणय के विविध आयाम है।
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अलि! मैं कण-कण को जान चली

24 फरवरी 2022
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अलि, मैं कण-कण को जान चली सबका क्रन्दन पहचान चली जो दृग में हीरक-जल भरते जो चितवन इन्द्रधनुष करते टूटे सपनों के मनको से जो सुखे अधरों पर झरते, जिस मुक्ताहल में मेघ भरे जो तारो के तृण में उत

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जब यह दीप थके

24 फरवरी 2022
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जब यह दीप थके महादेवी वर्मा जब यह दीप थके तब आना। यह चंचल सपने भोले है, दृग-जल पर पाले मैने, मृदु पलकों पर तोले हैं; दे सौरभ के पंख इन्हें सब नयनों में पहुँचाना! साधें करुणा-अंक ढली है, सा

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पूछता क्यों शेष कितनी रात?

24 फरवरी 2022
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पूछता क्यों शेष कितनी रात? छू नखों की क्रांति चिर संकेत पर जिनके जला तू स्निग्ध सुधि जिनकी लिये कज्जल-दिशा में हँस चला तू परिधि बन घेरे तुझे, वे उँगलियाँ अवदात! झर गये ख्रद्योत सारे, तिमिर-वात्

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यह मंदिर का दीप

24 फरवरी 2022
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यह मन्दिर का दीप इसे नीरव जलने दो रजत शंख घड़ियाल स्वर्ण वंशी-वीणा-स्वर, गये आरती वेला को शत-शत लय से भर, जब था कल कंठो का मेला, विहंसे उपल तिमिर था खेला, अब मन्दिर में इष्ट अकेला, इसे अजिर का श

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जो तुम आ जाते एक बार

24 फरवरी 2022
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जो तुम आ जाते एक बार कितनी करूणा कितने संदेश पथ में बिछ जाते बन पराग गाता प्राणों का तार तार अनुराग भरा उन्माद राग आँसू लेते वे पथ पखार जो तुम आ जाते एक बार हँस उठते पल में आर्द्र नयन धु

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कौन तुम मेरे हृदय में

24 फरवरी 2022
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कौन तुम मेरे हृदय में? कौन मेरी कसक में नित मधुरता भरता अलक्षित? कौन प्यासे लोचनों में घुमड़ घिर झरता अपरिचित? स्वर्ण-स्वप्नों का चितेरा नींद के सूने निलय में! कौन तुम मेरे हृदय में? अनु

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मिटने का अधिकार

24 फरवरी 2022
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वे मुस्काते फूल, नहीं जिनको आता है मुरझाना, वे तारों के दीप, नहीं जिनको भाता है बुझ जाना! वे सूने से नयन,नहीं जिनमें बनते आँसू मोती, वह प्राणों की सेज,नही जिसमें बेसुध पीड़ा, सोती! वे नीलम

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मधुर-मधुर मेरे दीपक जल

24 फरवरी 2022
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मधुर-मधुर मेरे दीपक जल! युग-युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल प्रियतम का पथ आलोकित कर! सौरभ फैला विपुल धूप बन मृदुल मोम-सा घुल रे, मृदु-तन! दे प्रकाश का सिन्धु अपरिमित, तेरे जीवन का अणु गल-गल पु

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जाने किस जीवन की सुधि ले

24 फरवरी 2022
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जाने किस जीवन की सुधि ले लहराती आती मधु-बयार! रंजित कर ले यह शिथिल चरण, ले नव अशोक का अरुण राग, मेरे मण्डन को आज मधुर, ला रजनीगन्धा का पराग; यूथी की मीलित कलियों से अलि, दे मेरी कबरी सँवार।

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नीर भरी दुख की बदली

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मैं नीर भरी दु:ख की बदली! स्पंदन में चिर निस्पंद बसा, क्रन्दन में आहत विश्व हंसा, नयनों में दीपक से जलते, पलकों में निर्झरिणी मचली! मेरा पग-पग संगीत भरा, श्वासों में स्वप्न पराग झरा, नभ के

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तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना

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कम्पित कम्पित, पुलकित पुलकित, परछा‌ईं मेरी से चित्रित, रहने दो रज का मंजु मुकुर, इस बिन श्रृंगार-सदन सूना! तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना। सपने औ' स्मित, जिसमें अंकित, सुख दुख के डोरों से निर्

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तुम मुझमें प्रिय, फिर परिचय क्या

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तुम मुझमें प्रिय, फिर परिचय क्या! तारक में छवि, प्राणों में स्मृति पलकों में नीरव पद की गति लघु उर में पुलकों की संस्कृति भर लाई हूँ तेरी चंचल और करूँ जग में संचय क्या? तेरा मुख सहास अरूणोदय

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बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ

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बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ! नींद थी मेरी अचल निस्पन्द कण कण में, प्रथम जागृति थी जगत के प्रथम स्पन्दन में, प्रलय में मेरा पता पदचिन्‍ह जीवन में, शाप हूँ जो बन गया वरदान बंधन में कूल भी

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जाग तुझको दूर जाना

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चिर सजग आँखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना! जाग तुझको दूर जाना! अचल हिमगिरि के हॄदय में आज चाहे कम्प हो ले! या प्रलय के आँसुओं में मौन अलसित व्योम रो ले; आज पी आलोक को ड़ोले तिमिर की घोर छाया जाग

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पथ देख बिता दी रैन

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पथ देख बिता दी रैन मैं प्रिय पहचानी नहीं! तम ने धोया नभ-पंथ सुवासित हिमजल से; सूने आँगन में दीप जला दिये झिल-मिल से; आ प्रात बुझा गया कौन अपरिचित, जानी नहीं! मैं प्रिय पहचानी नहीं! धर कनक

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जीवन विरह का जलजात

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विरह का जलजात जीवन, विरह का जलजात! वेदना में जन्म करुणा में मिला आवास अश्रु चुनता दिवस इसका; अश्रु गिनती रात; जीवन विरह का जलजात! आँसुओं का कोष उर, दृग अश्रु की टकसाल, तरल जल-कण से बने घन-स

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मैं बनी मधुमास आली

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मैं बनी मधुमास आली! आज मधुर विषाद की घिर करुण आई यामिनी, बरस सुधि के इन्दु से छिटकी पुलक की चाँदनी उमड़ आई री, दृगों में सजनि, कालिन्दी निराली! रजत स्वप्नों में उदित अपलक विरल तारावली, जाग स

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मधुर-मधुर मेरे दीपक जल

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मधुर-मधुर मेरे दीपक जल! युग-युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल प्रियतम का पथ आलोकित कर! सौरभ फैला विपुल धूप बन मृदुल मोम-सा घुल रे, मृदु-तन! दे प्रकाश का सिन्धु अपरिमित, तेरे जीवन का अणु गल-गल पु

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बताता जा रे अभिमानी

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बताता जा रे अभिमानी! कण-कण उर्वर करते लोचन स्पन्दन भर देता सूनापन जग का धन मेरा दुख निर्धन तेरे वैभव की भिक्षुक या कहलाऊँ रानी! बताता जा रे अभिमानी! दीपक-सा जलता अन्तस्तल संचित कर आँसू के

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मेरा सजल मुख देख लेते

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मेरा सजल मुख देख लेते! यह करुण मुख देख लेता! सेतु शूलों का बना बाँधा विरह-वारीश का जल फूल की पलकें बनाकर प्यालियाँ बाँटा हलाहल! दुखमय सुख सुख भरा दुःख कौन लेता पूछ, जो तुम, ज्वाल-जल का देश

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मैं नीर भरी दुख की बदली

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मैं नीर भरी दुख की बदली! स्पन्दन में चिर निस्पन्द बसा क्रन्दन में आहत विश्व हँसा नयनों में दीपक से जलते, पलकों में निर्झारिणी मचली! मेरा पग-पग संगीत भरा श्वासों से स्वप्न-पराग झरा नभ के नव

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प्रिय चिरन्तन है

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प्रिय चिरंतन है सजनि, क्षण-क्षण नवीन सुहासिनी मै! श्वास में मुझको छिपाकर वह असीम विशाल चिर घन शून्य में जब छा गया उसकी सजीली साध-सा बन, छिप कहाँ उसमें सकी बुझ-बुझ जली चल दामिनी मैं। छाँह को

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अश्रु यह पानी नहीं है

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अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है! यह न समझो देव पूजा के सजीले उपकरण ये, यह न मानो अमरता से माँगने आए शरण ये, स्वाति को खोजा नहीं है औ' न सीपी को पुकारा, मेघ से माँगा न जल, इनको न भाय

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स्वप्न से किसने जगाया

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स्वप्न से किसने जगाया? मैं सुरभि हूं। छोड कोमल फूल का घर, ढूंढती हूं निर्झर। पूछती हूं नभ धरा से- क्या नहीं र्त्रतुराज आया? मैं र्त्रतुओं में न्यारा वसंत, मैं अग-जग का प्यारा वसंत। मेरी पग

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धूप सा तन दीप सी मैं

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धूप सा तन दीप सी मैं! उड़ रहा नित एक सौरभ-धूम-लेखा में बिखर तन, खो रहा निज को अथक आलोक-सांसों में पिघल मन अश्रु से गीला सृजन-पल, औ' विसर्जन पुलक-उज्ज्वल, आ रही अविराम मिट मिट स्वजन ओर समीप सी

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अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी

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आँधी आई जोर शोर से, डालें टूटी हैं झकोर से। उड़ा घोंसला अंडे फूटे, किससे दुख की बात कहेगी! अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी? हमने खोला आलमारी को, बुला रहे हैं बेचारी को। पर वो चीं-चीं कर्राती है घर

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मैं अनंत पथ में लिखती जो

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मै अनंत पथ में लिखती जो सस्मित सपनों की बाते उनको कभी न धो पायेंगी अपने आँसू से रातें! उड़् उड़ कर जो धूल करेगी मेघों का नभ में अभिषेक अमिट रहेगी उसके अंचल- में मेरी पीड़ा की रेख! तारों मे

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जो मुखरित कर जाती थीं

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जो मुखरित कर जाती थीं मेरा नीरव आवाहन, मैं नें दुर्बल प्राणों की वह आज सुला दी कंपन! थिरकन अपनी पुतली की भारी पलकों में बाँधी निस्पंद पड़ी हैं आँखें बरसाने वाली आँधी! जिसके निष्फल जीवन नें

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क्यों इन तारों को उलझाते?

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क्यों इन तारों को उलझाते? अनजाने ही प्राणों में क्यों आ आ कर फिर जाते? पल में रागों को झंकृत कर, फिर विराग का अस्फुट स्वर भर, मेरी लघु जीवन वीणा पर क्या यह अस्फुट गाते? लय में मेरा चिर करुण

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वे मधुदिन जिनकी स्मृतियों की

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वे मधु दिन जिनकी स्मृतियों की धुँधली रेखायें खोईं, चमक उठेंगे इन्द्रधनुष से मेरे विस्मृति के घन में! झंझा की पहली नीरवता- सी नीरव मेरी साधें, भर देंगी उन्माद प्रलय का मानस की लघु कम्पन में!

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अलि अब सपने की बात

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अलि अब सपने की बात- हो गया है वह मधु का प्रात! जब मुरली का मृदु पंचम स्वर, कर जाता मन पुलकित अस्थिर, कम्पित हो उठता सुख से भर, नव लतिका सा गात! जब उनकी चितवन का निर्झर, भर देता मधु से मानस-

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सजनि कौन तम में परिचित सा

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सजनि कौन तम में परिचित सा, सुधि सा, छाया सा, आता? सूने में सस्मित चितवन से जीवन-दीप जला जाता! छू स्मृतियों के बाल जगाता, मूक वेदनायें दुलराता, हृततंत्री में स्वर भर जाता, बंद दृगों में, चूम सजल

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क्या जलने की रीत

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क्या जलने की रीति शलभ समझा दीपक जाना घेरे हैं बंदी दीपक को ज्वाला की वेला दीन शलभ भी दीप शिखा से सिर धुन धुन खेला इसको क्षण संताप भोर उसको भी बुझ जाना इसके झुलसे पंख धूम की उसके रेख रही इस

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किसी का दीप निष्ठुर हूँ

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शलभ मैं शपमय वर हूँ! किसी का दीप निष्ठुर हूँ! ताज है जलती शिखा; चिनगारियाँ शृंगारमाला; ज्वाल अक्षय कोष सी अंगार मेरी रंगशाला ; नाश में जीवित किसी की साध सुन्दर हूँ! नयन में रह किन्तु जलती

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उर तिमिरमय घर तिमिरमय

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उर तिमिरमय घर तिमिरमय चल सजनि दीपक बार ले! राह में रो रो गये हैं रात और विहान तेरे काँच से टूटे पड़े यह स्वप्न, भूलें, मान तेरे; फूलप्रिय पथ शूलमय पलकें बिछा सुकुमार ले! तृषित जीवन में घिर

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जीवन दीप

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किन उपकरणों का दीपक, किसका जलता है तेल? किसकि वर्त्ति, कौन करता इसका ज्वाला से मेल? शून्य काल के पुलिनों पर- जाकर चुपके से मौन, इसे बहा जाता लहरों में वह रहस्यमय कौन? कुहरे सा धुँधला भविष्

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दीपक अब रजनी जाती रे

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दीपक अब रजनी जाती रे जिनके पाषाणी शापों के तूने जल जल बंध गलाए रंगों की मूठें तारों के खील वारती आज दिशाएँ तेरी खोई साँस विभा बन भू से नभ तक लहराती रे दीपक अब रजनी जाती रे लौ की कोमल दीप्त

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उर तिमिरमय घर तिमिरमय

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उर तिमिरमय घर तिमिरमय चल सजनि दीपक बार ले! राह में रो रो गये हैं रात और विहान तेरे काँच से टूटे पड़े यह स्वप्न, भूलें, मान तेरे; फूलप्रिय पथ शूलमय पलकें बिछा सुकुमार ले! तृषित जीवन में घिर

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अधिकार

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वे मुस्काते फूल, नहीं जिनको आता है मुर्झाना, वे तारों के दीप, नहीं जिनको भाता है बुझ जाना; वे नीलम के मेघ, नहीं जिनको है घुल जाने की चाह वह अनन्त रितुराज,नहीं जिसने देखी जाने की राह| वे सू

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क्या पूजन क्या अर्चन रे

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क्या पूजन क्या अर्चन रे! उस असीम का सुंदर मंदिर मेरा लघुतम जीवन रे! मेरी श्वासें करती रहतीं नित प्रिय का अभिनंदन रे! पद रज को धोने उमड़े आते लोचन में जल कण रे! अक्षत पुलकित रोम मधुर मेरी पीड़ा क

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फूल

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मधुरिमा के, मधु के अवतार सुधा से, सुषमा से, छविमान, आंसुओं में सहमे अभिराम तारकों से हे मूक अजान! सीख कर मुस्काने की बान कहां आऎ हो कोमल प्राण! स्निग्ध रजनी से लेकर हास रूप से भर कर सारे अंग,

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दीप मेरे जल अकम्पित

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दीप मेरे जल अकम्पित, घुल अचंचल! सिन्धु का उच्छवास घन है, तड़ित, तम का विकल मन है, भीति क्या नभ है व्यथा का आँसुओं से सिक्त अंचल! स्वर-प्रकम्पित कर दिशायें, मीड़, सब भू की शिरायें, गा रहे आंधी-

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बया हमारी चिड़िया रानी

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बया हमारी चिड़िया रानी! तिनके लाकर महल बनाती, ऊँची डाली पर लटकाती, खेतों से फिर दाना लाती, नदियों से भर लाती पानी। तुझको दूर न जाने देंगे, दानों से आँगन भर देंगे, और हौज़ में भर देंगे हम-

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तितली से

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मेह बरसने वाला है मेरी खिड़की में आ जा तितली। बाहर जब पर होंगे गीले, धुल जाएँगे रंग सजीले, झड़ जाएगा फूल, न तुझको बचा सकेगा छोटी तितली, खिड़की में तू आ जा तितली! नन्हे तुझे पकड़ पाएगा, डिब

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ठाकुर जी भोले हैं

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ठंडे पानी से नहलातीं, ठंडा चंदन इन्हें लगातीं, इनका भोग हमें दे जातीं, फिर भी कभी नहीं बोले हैं। माँ के ठाकुर जी भोले हैं। 

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कोयल

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डाल हिलाकर आम बुलाता तब कोयल आती है। नहीं चाहिए इसको तबला, नहीं चाहिए हारमोनियम, छिप-छिपकर पत्तों में यह तो गीत नया गाती है! चिक्-चिक् मत करना रे निक्की, भौंक न रोजी रानी, गाता एक, सुना करते

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आओ प्यारे तारो आओ

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आओ, प्यारे तारो आओ तुम्हें झुलाऊँगी झूले में, तुम्हें सुलाऊँगी फूलों में, तुम जुगनू से उड़कर आओ, मेरे आँगन को चमकाओ। 

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यह मेरा मिटने का अधिकार

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वे मुस्काते फूल नही, जिनको आता है मुरझाना, वे तारों के दीप नही, जिनको भाता ह बुझ जाना; वे नीलम के मेघ नही, जिनको है घुल जाने की चाह, वह अनंत रितुराज नही, जिसने देखि जाने की राह। वे सूने से नयन

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अश्रु यह पानी नहीं है

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यह न समझो देव पूजा के सजीले उपकरण ये, यह न मानो अमरता से माँगने आए शरण ये, स्वाति को खोजा नहीं है औ’ न सीपी को पुकारा, मेघ से माँगा न जल, इनको न भाया सिंधु खारा! शुभ्र मानस से छलक आए तरल ये ज्वाल

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