जी हाँ मित्रों आज तक आपने मुसलमानो के केवल “शिया” या “सुन्नी” नामक दो बड़े भागो में विभक्त देखा होगा या फिर इन्हें “हनफि”, “अहमदीया”, “देवबन्दी”, “देहलवी”, ” बरेलवी”, “बहावी” और कई प्रकार की जमातो में बटा देखा होगा। परन्तु क्या आप जानते हैं की इन भारतीय मुसलमानो की कौम कई जातियों और उपजातियो में विभाजित है, नहीं ना, चलीये आज मैं आपको अवगत कराता हूँ, मुसलमानो में फैली जातीय व्यवस्था के बारे में, साथ हि मैं ये भी बताऊंगा कि, ” पसमांदा मुस्लमान” कीन्हे कहते हैं।
मित्रों मुसलमानो में जातीय व्यवस्था निम्न प्रकार से तीन भागो में विभक्त की गई है:-
१:- अशराफ:- ये वो मुसलमान है जो अफगानिस्तान और मध्य एशिया से आए। इसमें वो मुस्लमान हैं जो हिन्दुओ में अपर कास्ट से सम्बन्धित थे और धर्म बदलकर मुस्लमान बन गए। इन्ही में मुगलो को भी शामिल किया जाता है। ये मिर्जा, खान, शेख, सैयद और मुग़ल आते हैं। भारत में मुसलमानो की कुल जनसंख्या का १५-२०% हिस्सा इनका है।
२:-अजलाफ:- हिन्दुओ में बैकवर्ड कास्ट के हिन्दू जो अपना धर्म परिवर्तन कर मुस्लमान बन गए, उन्हें अजलाफ कहा जाता है। अज़लाफ़ मे दर्जी, धोबी, धुनिया, गद्दी, फाकिर, बढई-लुहार, हज्जाम (नाई), जुलाहा, कबाड़िया, कुम्हार, कंजरा, मिरासी, मनिहार, तेली समाज के लोग आते हैं।
३:-अरजाल:- हिन्दुओ के अति-पिछड़ी जातियों और दलित वर्ग के हिन्दू जो अपना धर्म परिवर्तन करके मुस्लमान बन गए वो अरजाल कहे जाते हैं।अरज़ाल में वे दलित हैं जिन्होंने इस्लाम कबूल किया। जैसे कि हलालखोर, भंगी, हसनती, लाल बेगी, मेहतर, नट, गधेरी आदि।
पसमांदा मुस्लमान:-
मित्रों इन्ही अजलाफ और अरजाल वर्ग से आने वाले मुसलमानो को पसमांदा मुस्लमान कहा जाता है, जो भारत के कुल मुसलमानो की जनसंख्या का ८०-८५% हिस्सा हैं। पसमांदा मुसलमानो की जनसंख्या अधिक होने के पश्चात भी इनका दुर्भाग्य है कि, इन पर १५-२०% की जनसंख्या वाले अशराफ मुसलमानो ने अपना प्रभुत्व बनाये रखा और खुद तो कांग्रेस के मुसलिम तुष्टिकरण की निति का लाभ उठाकर सत्ता और शक्ति की मलाई खाते रहे पर पसमांदा मुसलमानो के मुलभुत विकास पर भी ध्यान नहीं दिया।आपको जानकर आश्चर्य होगा की देश को स्वतन्त्रता मिलने के दिन से लेकर १४वी लोकसभा के गठन तक मुसलमानो के कौम से लगभग ४०० सांसद बने परन्तु इनमे से केवल ६० सांसद ही पसमांदा मुसलमानो में से थे।
स्वतन्त्रता केसमय के जितने भी बड़े नेता थे, जैसे मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, खान अब्दुल गफ्फार खान, मोहम्मद अली जिन्ना, अली बंधु, डॉ जाकिर हुसैन इत्यादि जितने भी बड़े नाम आपको मिलेंगे सब के सब अपर कास्ट के मुसलमान थे जिन्हें “अशराफ” कहते हैं।आज भी गुलाम नबी आज़ाद, सलमान खुर्शीद, फारुख अब्दुल्ला, ओवैसी बंधू, मेहबूबा मुफ़्ती, मुख्तार अब्बास नकवी व नजमा हेप्तुल्ला इत्यादि सब के सब अशराफ वर्ग अर्थात अपर कस्ट के हि मुस्लमान, मुसलमानो का नेता बने राजनीती में अपने ताल ठोक रहे हैं।
मित्रो आज हर अशराफ वर्ग का मुस्लमान आर्थिक और समाजिक रूप से मजबूत है, उदाहरण के लिए यदि केवल असुद्दीन ओवैसी की बात करें तो उनके द्वारा चुनाव आयोग को प्रेषित किये गए शपथ पत्र के अनुसार कुल २९ से ३१ करोड़ की सम्पत्ति है, क्या आप कल्पना भी कर सकते हैं की पसमांदा मुसलमानो के वर्ग में आने वाले किसी कुरैशी (कसाई) या जुलाहे, या धोबी या मेहतर या लोहार या दलित वर्ग से आने वाले मुस्लमान के पास इतनी संपत्ति होगी, नहीं ना।
असल में कांग्रेस और अशराफ वर्ग के मुसलमानो के स्वार्थपरक नीतियों के कारण पसमांदा वर्ग के मुसलमानो का कभी विकास हो हि नहीं पाया, जबकि कांग्रेस और असराफ वर्ग के मुसलमानो ने पसमांदा वर्ग में आने वाले देश के ८५% मुसलमानो के कंधे पर पैर रखकर वर्षो तक सत्ता और शक्ति का सुख भोगा, खुद तो धनवान और सामर्थ्यवान होते रहे परन्तु पसमांदा मुसलमानो को गरीबी और अभाव की जिन्दगी से उबरने हि नहीं दिया, केवल उन्हें सपने दिखाते रहे।
पसमांदा आंदोलन:-
जब पसमांदा समाज के लोगों की राजनीतिक भागीदारी का सवाल सामने आता है तो जेहन में अब्दुल क़य्यूम अंसारी (जिनका जनम दिनांक १ जुलाई, १९०५ को हुआ था और पसमांदा समाज के लिए संघर्ष करते हुए दिनांक १८ जनवरी, १९७३ को इनका देहावसान हो गया) का नाम सबसे पहले आता है। जब देश भर में “दो राष्ट्र” को लेकर गहमागहमी थी तब जिन्ना खुद को मुसलमानों के नेता के रूप में पेश कर रहे थे। उन्हें माना भी यही जा रहा था कि वह मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करते हैं। लेकिन मुसलमानों की ओर से उठ रही आवाजों में एक आवाज़ ऐसी थी जिसमें जिन्ना का खुला विरोध था। यह आवाज अब्दुल कय्यूम अंसारी की थी, जिन्होंने न सिर्फ जिन्ना के “दो राष्ट्र” मसौदेको ठुकराया था, बल्कि खुलेआम जिन्ना का विरोध करते हुए कांग्रेस को समर्थन भी दिया था।
अब्दुल क़य्यूम अंसारी के राजनीति में आने की कहानी बहुत रोचक है। जिसका वर्णन अली अनवर साहेब ने अपनी किताब “मसावत की जंग” मे कुछ इस प्रकार की है:- “बकौल खालिद अनवर अंसारी (क़य्यूम साहब के बड़े बेटे) उन्होंने एक बार अपने अब्बा से पूछा कि वह चुनावी राजनीति में कैसे आए? उन्होंने बताया कि १९३८ में पटना सिटी क्षेत्र की सीट के लिए उपचुनाव होने वाला था। उन्होंने सोचा क्यों न इस सीट से अपनी किस्मत आजमाई जाए। इस सीट के लिए उम्मीदवार तय करने हेतु बाहर से कई मुस्लिम लीग के नेता भी आये थे। स्थानीय नेता तो थे ही। पटना सिटी के नवाब हसन के घर पर प्रत्याशियों से इसके लिए दरखास्त ली जा रही थी। वह [अब्दुल कय्यूम अंसारी] भी दरखास्त देने वहां गये। दरखास्त जमा कर अभी वह दरवाजे तक लौटे ही थे कि अन्दर से कहकहे के साथ आवाज आयी कि अब जोलाहे भी एमएलए बनने का ख्वाब देखने लगे। इतना सुनना था कि वह फौरन कमरे के अन्दर गये और कहा कि ‘मेरी दरखास्त लौटा दीजिए, मुझे नहीं चाहिए आपका टिकट”!
(आपको बता दे की अली अनवर अंसारी के, जो राज्यसभा सांसद रहे हैं। राज्यसभा के सांसद रहने के अलावा उनकी एक बहुत बड़ी पहचान ये भी है कि उन्होनें “मसावात कीजंग” जैसी बेहतरीन किताब लिखी है, जो देश के भर के मुस्लिमों से वह सवाल करती है, जो वह खुद से नहीं करना चाहते हैं।)
इस घटना को जैसे घटित ही इसलिए होना था ताकि अब्दुल क़य्यूम अंसारी सक्रिय रूप से राजनीति में आयें। मोमिन कॉन्फ्रेंस के उम्मीदवार के रूप में 1946 के चुनाव में उन्होंने जीत हासिल किया और पसमांदा समाज से आने वाले बिहार के पहले मंत्री भी बने।
पसमांदा आंदोलन के दूसरे इतिहास पुरुष हैं मौलाना अली हुसैन जिनका जन्म १५ अप्रैल, १८९० को हुआ था और् पसमान्दा समाज के उत्थान के लिए संघर्ष करते करते दिनांक ६ दिसम्बर, १९५३ को उनका देहावसान हो गया। उन्हें आसिम बिहारी के नाम से भी जाना जाता है। अब्दुल कय्यूम अंसारी के जैसे ही उन्होंने भी न सिर्फ मुल्क की आजादी के लिए जंग में हिस्सा लिया बल्कि मुसलमानों में पिछड़ों और अति पिछड़ी कौमों की आवाज़ भी बनने का काम किया।। उन्हें पसमांदा आंदोलन की बुनियाद डालने वाला माना जाता है। कलकता में मामूली सी नौकरी करने के साथ ही वह जंग-ए-आजादी और गरीब-मजलूम लोगों के लिए सियासत में भी सक्रिय थे। इसलिए सिर्फ २४ वर्ष की उम्र में ही १९१४ में मौलाना आसिम ने दारुल मुज़ाक़रा (चर्चा स्थल) आरंभ किया था, जो ज़िला नालंदा के मोहल्ला खाँसगंज में था। यहां उन्होंने एक पुस्तकालय का आगाज भी किया था। उनका मकसद था कि पसमांदा समाज के बच्चे पढाई-लिखाई के साथ ही उन सवालों पर बहस में भाग लें जो उनसे जुड़े थे।
इसकेबाद जमीयतुल मोमिनीन नामक संगठन बनाने का श्रेय भी मौलाना आसिम को ही जाता है जो उन्होंने १९२० में शुरू किया था और इसके पहले अधिवेशन में मौलाना आज़ाद जैसे नेताओं ने हिस्सा लिया था।
पसमांदा और श्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी:-
पसमांदा मुसलमानो के समाज का विकास वर्ष २०१४ के पश्चात सही अर्थो में आरम्भ हुआ, जब:-
१:- प्रधानमंत्री जन धन योजना के तहत इन के बैंक अकाउंट खोल दिए गए;
२:- प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत लगभग इनको अपना घर मिला;
३:- किसान सम्मान निधि योजना के तहत इन के खातों में वर्ष के ६ हजार रुपए डाले गए।
४:- स्वच्छता अभियान के तहत शौचालय प्राप्त हुआ।
५:- उज्ज्वला योजना के अंतर्गत इन्हें गैस चूल्हे और सिलेंडर की प्राप्ति हुई।
६:-प्रधानमंत्री मुद्रा रोजगार योजना द्वारा इन्हें आसान किस्तों और आसान ब्याज दर पर बैंको से लोन प्राप्त हुए।
७:- इनके घर की बेटियों के द्वारा स्नातक कि उपाधि प्राप्त कर लेने के पश्चात शादी शगुन योजना के आधार पर ₹५१०००/-
की प्रोत्साहन राशि प्रदान कि जाने लगी।
८:- नई मंजिल निर्माण योजना के तहत इनके अंदर कौशल विकास हेतु आर्थिक और समाजिक सहायता प्रदान कि गई।
९:- आयुष्मान योजना के अंतर्गत इन्हें ₹ ५लाख तक का चिकित्सकीय बीमा प्रदान किया गया।
१०:-पूरे कोरोना काल के दौरान इन्हें मुफ्त राशन दिया गया।
११:- पसमांदा समाज के लोगों को राजनीती भागीदार बनने के लिए प्रोत्साहित किया गया उदहारण के लिए उत्तर प्रदेश की सरकार में श्री दानिश अंसारी को मंत्री बनाया जाना, इसी दिशा में उठाया गया एक कदम था।
१२:- पसमांदा समाज के लोगों के आर्थिक, समाजिक और राजनितिक विकास के लिए अल्पसंख्यक आयोग के बजट में अभूतपूर्व वृद्धि की गई, जिसे आसानी से अल्पसंख्यक आयोग के वेबसाइट पर देखा जा सकता है।और यही कारण है की आदरणीय श्री नरेंद्र दामोदरदास मोदीजी ने पसमांदा समाज के मुसलमानो से जुड़ने और उन्हें बराबरी का दर्जा दिलाने कि वकालत की और समुचित सलाह दिया।
मित्रों पसमांदा मुसलमानो और हमारे सर्वाधिक लोकप्रिय प्रधानमंत्री के मध्य जो रिश्ता है , उसे हम अपने शास्त्रों के माध्यम से कुछ इस प्रकार व्यक्तकर सकते हैं :- कराविव शरीरस्य नेत्रयोरिव पक्ष्मणी। अविचार्य प्रियं कुर्यात्तन्मित्रं मित्रमुच्यते।। अर्थात:- जैसे दोनों हाथ शरीर का बिना विचारे हित करते हैं, दोनों पलकें आँखों का बिना विचारे ध्यान रखती हैं, वैसे ही जो मित्र, मित्र का बिना विचारे प्रिय करता है वही मित्र (वास्तव में) मित्र होता है। हमारे प्रधानमंत्री जी इन पसमांदा मुसलमानों के ऐसे ही सच्चे मित्र हैं |