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हमारा संविधान खतरे में है, हमें संविधान को बचाना है|

23 अक्टूबर 2024

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 मित्रों जैसा की आप और हम वर्ष २०१४ से लगातार अपने देश में एक शोर सुन रहे हैं, खासकर विपक्ष का हर नेता और उनकी पार्टी का हर कार्यकर्ता चीख चीख कर जनता को बता रहा है कि “हमारा संविधान खतरे में है, हमें संविधान को बचाना है”।अब प्रश्न ये है विपक्षी नेता और उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओ को ही केवल दिखाई दे रहा है की “संविधान खतरे में है” पर आम जनता को तो जैसे लगता है इसमें कोई दिलचस्पी ही नहीं है या फिर वो अच्छी तरह समझती है की संविधान खतरे में नहीं बल्कि भ्रष्टो का भ्रष्टाचार खतरे में है, लुटेरों का लूट खसोट खतरे में है, माफियाओ की माफियागिरी खतरे में है, गुंडों की गुंडागर्दी, दंगाइयों के दंगे फसाद, हुड़दंगियों का हुड़दंग और दलालो की दलाली खतरे में है। 

दरअसल संविधान तो केवल दो बार खतरे में आया (१) जब जम्मूकश्मीर में अनुच्छेद ३७० और ३५अ लगाकर उसे भारत से अलग कर दिया गया जबकि उसके विकास के लिए पूरा पैसा भारत से भेजा जाता था और वंहा अपना विधान और अपना निशान दे दिया गया (२) जब देश परआपातकाल थोपकर संविधान में ४२वा  संसोधन करके उसके उद्देशिका में चोरी छुपे “सेक्यलर और सोशल” शब्द डाल दिया गया। 

आइये देखते है वर्ष १९४७ से लेकर  अब तक राज्य की चुनी हुई व्यवस्था को संविधान का सहारा लेकर किस प्रकार अवैधानिकता से बरखास्त कर दिया गया। मित्रों संविधान का अनुच्छेद ३५६ बहुत ही बदनाम अनुच्छेद है अरे कहने का अर्थ ये है की इस अनुच्छेद का नेहरू जी  से लेकर मनमोहन सिंह तक इतनी बार दुरुपयोग किया गया है की इसके हिस्से में बदनामी यूँ ही आ गयी जबकि ये लोकतंत्र को मजबूती देने के लिए बनाया गया था। अनुच्छेद ३५६ अर्थात राज्य में राष्ट्र्रपति साशन। 

आमतौर पर, राष्ट्रपति शासन तब लगाया जाता है जब जनता द्वारा चुनी गयी किसी राज्य की राज्य सरकार अपना बहुमत खो देती है या सत्तारूढ़ दल के भीतर विभाजन या गठबंधन सहयोगी द्वारा समर्थन वापस लेने की स्थिति में वो अल्पमत में आ जाती है। पर आपको ऐसे उदाहरण भी मिलेंगे, विशेष रूप से १९७० और १९८० के दशक में, जहां राज्यसरकारों को विधानसभा में बहुमत होने के बावजूद बर्खास्त कर दिया गया।चुनाव के बाद के परिदृश्य की स्थिति में राष्ट्रपति शासन भी लागू होता है, जहां कोई भी दल या गठबंधन नई सरकार बनाने की स्थिति में नहीं होता है। ऐसी स्थितियां भी हैं जहां एक मुख्यमंत्री ने अदालतों द्वारा अयोग्यताअयोग्य करार कर  दिए जाने पर या अरविंद केजरीवाल के मामले में फरवरी २०१४ में जनलोकपाल विधेयक पारित करने में विफल रहने जैसे विभिन्न कारणों से अपना इस्तीफा दे दिया है।इसके अलावा, राज्य के भीतर मौजूदा (अक्सर बिगड़ती) कानून व्यवस्था की स्थिति पर भी विचार किया जाता है। इसमें अलगाववादी विद्रोह (पंजाब, जम्मूऔर कश्मीर, पूर्वोत्तर राज्य), जातीय संघर्ष (असम, त्रिपुरा) और सांप्रदायिक दंगे (उत्तर प्रदेश) के कारण हिंसा शामिल हैं। 

संविधान के निर्माता भारतीय राजनीति की प्रकृति, चाल, चलन और चरित्र का अनुमान करने में सक्षम नहीं थे, अत: उनको ये कल्पना भी नहीं थी की संविधान को केवल एक विशेष राजनीतिक दल को लाभ पहुंचाने के लिए संशोधित (अमेंड) किया जा सकता है या किया जायेगा। विडंबना (आईरोनिक) यह है कि संविधान लागू होने के एक वर्ष पश्चात ही १९५१  में, अनुच्छेद ३५६ का दुरुपयोग  नेहरू जी   के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोपीचंद भार्गव को बर्खास्त करके कर दिया था, वो भी जब उनके पास राज्य में बहुमत थी और उनकी विफलता की कोई स्थिति नहीं थी। नेहरू जी   ने एक बार  फिर से, १९५४  में, आंध्र प्रदेश की चुनी हुई सरकार को उखाड़ फेंका था क्योंकि केंद्र सरकार को राज्य पर एक कम्युनिस्ट शासन की संभावना की आशंका व्याप्त थी। 

अनुच्छेद ३५६ को भारतीय संविधान में शामिल किया गया था ताकि केंद्र सरकार संवैधानिक तंत्र की विफलता के कारण कानून और व्यवस्था की गड़बड़ी जैसी गंभीर परिस्थितियों से राज्यों की रक्षा कर सके, क्योंकि भारत जैसे बड़े देश में ऐसी स्थिति के बढ़ने की संभावना हमेशा बनी रहतीहै। अनुच्छेद ३५६ के आधार पर दी गईअसाधारण शक्ति राज्यों को उनकी चुनी हुई सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए नहीं,  बल्कि उन्हें बचाने के लिए थी। 

जैसा कि हम सब जानते हैं कि, “संघीय ढांचा भारतीय संविधान की मूल संरचना का एक हिस्सा है” और जनता द्वारा किसी राज्य की चुनी हुई राज्य सरकार की व्यवस्था को उखाड़ फेंकने और विधानसभा को निलंबित करनेका कोई भी अनुचित या मनमाना कार्य संविधान की मूल संरचना और दिए गए अधिनियम में बाधा उत्पन्न करता है अत: इस तरह के कार्य को किसी भी परिस्थिति में बढ़ावा नहीं देना चाहिए। 

आइये देखते हैं कि अनुच्छेद ३५६ की मूल प्रकृति और उसका दायरा क्या है?  अनुच्छेद ३५६ की प्रकृति और दायरे का विश्लेषण करे तो हम पाएंगे कि अनुच्छेद ३५६ के दो आवश्यक कारकहैं, जो निम्नवत है:- 

१) राष्ट्रपति, जो किहमारे देश का प्रथम नागरिक होता है, सम्बंधित राज्य के राज्यपाल द्वारा भेजी गई रिपोर्ट के आधार पर उक्त राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा सकता है। राष्ट्रपति शासनकई अन्यपरिस्थितियों में भी लगाया जा सकता है जो राज्य की रक्षा के लिए मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर राष्ट्रपति को संतुष्टिकारक लगता है। 

२) दूसरा, जब संवैधानिक तंत्र किसी राज्यमें विफल हो जाता है तब उस राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू  किया जा सकता है। संवैधानिक तंत्र की विफलता उस स्थिति को संदर्भित करती है जब राज्य सरकार संविधान के प्रावधानों का पालन करते हुए अपने कार्यों/दायित्वों को पूरा नहीं कर पा रही है। 

किसी राज्य का राज्यपाल, राष्ट्रपति के अधीन कार्य करता है और राष्ट्रपति केंद्र में शाशन कर रहे दल से संबंधित मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर कार्य करता है, इसलिए, ये माना जाता  है कि “राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति को प्रेषित की गयी रिपोर्ट के केंद्र में रह रहे दल के हितों और एजेंडे से प्रभावित होने की बहुत अधिक संभावना रहती है” और १९४७ से लेकर अब तक का भारत का इतिहास इसका साक्षी है। अब अगर हम उदाहरण के तौर पर देखे तो, पीएम के रूप में स्व. श्रीमती इंदिरा गांधी के पास सबसे अधिक बार राष्ट्रपति शासन लगाने का रिकॉर्ड है और ९०% परिस्थितियों में,
राष्ट्रपति शासन, स्व. श्रीमती इंदिरा गाँधी जी द्वारा उन राज्यों में लगाया गया था जो विपक्षी दलों द्वारा शासित थे या उन राज्यों में जो उनकी पार्टी के हितों के अनुसार नहीं चल रहे थे। 

S.R. Bommai vs Union Of India on 11 March, 1994(1994 AIR 1918, 1994 SCC (3) 1) 

भारतीय संविधान कानूनी और सामाजिक दोनों स्वरूप को धारण करने वाला दस्तावेज है। यह देश के शासन के लिए एक मशीनरी प्रदान करता है। इसमें राष्ट्र द्वारा अपेक्षित आदर्श भी शामिल हैं। संविधान द्वारा निर्मित राजनीतिक तंत्र इस आदर्श को प्राप्त करने का एक साधन है। बोम्मई मामले में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अनुच्छेद ३५६ के दुरुपयोग को लेकर गंभीर सवाल उठाए गए थे।इस मामले में, कर्नाटक के मुख्यमंत्री को राज्यपाल द्वारा फ्लोर टेस्ट में बहुमत साबित करने का मौका देने से पहले बर्खास्त कर दिया गया था और बाद में, राज्य पर राष्ट्रपति शासन लगाया गया था। 

अत: उपर्युक्त केस पर निर्णय देते हुए आदरणीय सर्वोच्च न्यायालय की खंड पीठ ने ये कहा कि “अनुच्छेद ३५६ का सूक्ष्मविश्लेषण स्पष्ट रूप से इंगित करता है किअनुच्छेद ३५६ के प्रावधान द्वारा प्रदत्त शक्ति“राज्यों में संवैधानिक तंत्र की विफलता के मामले में” प्रयोग करने योग्य है। यह राष्ट्रपति को इस बात से संतुष्ट होने पर शक्ति प्रदान करता है कि, “एक ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है”जिसमें राज्य की सरकार को संविधान के प्रावधानों के अनुसार ‘नहीं’ चलाया जासकता है और यह कार्रवाई उसे संबंधित राज्य के राज्यपाल से रिपोर्ट प्राप्त होने पर ही करनी चाहिए या, अन्यथा’, यदि वह संवैधानिक तंत्र की विफलता के बारे में संतुष्ट है। 

अनुच्छेद ३५६ (१ ) राष्ट्रपति को असाधारण शक्तियाँ प्रदान करता है, जिसका उसे संयम से और बड़ी सावधानी के साथ प्रयोग करना चाहिए, यदि वह सरकार की रिपोर्टसे संतुष्ट हो या अन्यथा कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है जिसमें राज्य की सरकार नहीं चलाई जा सकती है संविधान के प्रावधानों के अनुसार। इसमें जुड़े शब्द ‘अन्यथा’ का बहुत व्यापक महत्व है और इसे केवल कानून की अदालतों में साक्ष्य की स्वीकार्यता के लिए प्रासंगिक सिद्धांतों पर परीक्षण करने योग्य सामग्री तक सीमित नहीं किया जा सकता है। अनुच्छेद ३५६ (१) के तहत कार्रवाईकरने से पहले राष्ट्रपति के सामने रखी जा सकने वाली सामग्रीकी प्रकृति के बारे में भविष्यवाणी करना अत्यंत ही मुश्किल है।इसके अलावा, चूंकि राष्ट्रपति से अपनी व्यक्तिपरक संतुष्टि के लिए अपने कारणों को दर्ज करने की उम्मीद नहीं की जाती है, इसलिए न्यायालय के लिए यह पता लगाना भी उतना ही मुश्किल होगा कि उक्त प्रावधान के तहत शक्ति के प्रयोग के लिए राष्ट्रपति को क्या आधार दिए गए। 

न्यायालय ने कहा कि आम तौर पर राष्ट्रपति की संतुष्टि संदिग्ध नहीं होती है लेकिन राज्यपाल की रिपोर्ट की जांच राष्ट्रपति की संतुष्टि के आधार का पता लगाने के लिए की जा सकती है। 

आइये देखते हैं कि  वर्ष १९५० से लेकर अब तक कांग्रेस ने और विपक्ष ने  कितनी बार अनुच्छेद ३५६ का उपयोग या दुरुपयोग किया:-  

१) जवाहर लाल नेहरू इनका कार्यकाल ८अगस्त १९४७ से लेकर मई १९६४ तक रहा और इन्होने कुल ८ बार अनुच्छेद ३५६ का उपयोग किया। २) स्व. श्रीमती इंदिरा गाँधी इनका कार्यकाल जनवरी १९६६ से मार्च १९७७ तक तथा जनवरी १९८० से अक्टूबर १९८४ तक रहा और इस दौरान इन्होने कुल ५० बार अनुच्छेद ३५६ का उपयोग किया | ३) स्व. श्री  राजीव गाँधी, इनका कार्यकाल अक्टूबर १९८४ से लेकर दिसंबर १९८९ तक रहा और इस दौरान इन्होने ६ बार अनुच्छेद ३५६ का उपयोग किया। ४) स्व. श्री पी. वी. नरसिम्हाराव, इनका कार्यकाल जून १९९१ से मई १९९६ तक रहा इस दौरान इन्होने ११ बार अनुच्छेद ३५६ का उपयोग किया। ५) मनमोहनसिंह इनका कार्यकाल मई २००४ से मई २०१४ तक रहा और इस दौरान इन्होने १२ बार अनुच्छेद ३५६ का उपयोग किया। 

विपक्ष का भी देख लो आप मोरारजी देसाई ने १६ बार, श्री चौधरीचरण सिंहने ४ बार, वि.पि. सिंह ने २ बार, चंद्रशेखर सिंह ने ५ बार, देवगौड़ा ने १ बार, स्व. श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ने ५ बार अनुच्छेद ३५६ का उपयोग किया। अब दोस्तों मजे की बात ये है की वर्ष १९५० से लेकर अब तक करीब करीब १२४ बार राष्ट्रपति शासन लगाकर राज्य की सरकारों को बर्खास्त किया जा चूका है और इसमें से करीब ८७ बार अकेले कांग्रेस की सरकार ने  किया तो अब आप समझ सकते हैं की संविधान को बचाने की आवश्यकता किसके शासन काल में अत्यधिक होनी चाहिए।  

स्पष्ट है की "संविधान खतरे में है , संविधान   बचाना है " का   नारा केवल और केवल जनता जनार्दन को गुमराहकर अपना उल्लू सीधा करने का एक तरीका भर है, क्योंकि वर्तमान समय में ना तो संविधान खतरे में है और ना जनता इस नारे को महत्व देती है | मित्रों याद रखें "संविधान खतरे में है " का नारा देने वाले वास्तव में हमारे राष्ट्र के शत्रु हैं और इन शत्रुओं से सावधान करते हुए हमारे शास्त्र कहते हैं :- 

सुसूक्ष्मेणापि रंध्रेण प्रविश्याभ्यंतरं रिपु:नाशयेत् च शनै: पश्चात् प्लवं सलिलपूरवत्

अर्थात : नाव में पानी पतले छेद से भीतर आने लगता है और भर कर उसे डूबा देता है, उसी तरह शत्रु को घुसने का छोटा रास्ता या कोई भेद मिल जाए तो उसी से भीतर आ कर वह कबाड़ कर ही देता है। अत: हमें ऐसे शत्रुओं को अवसर नहीं प्रदान करना है , हमें सदैव सचेत रहना है |                                                                                          

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रचनाएँ
वो नहीं तो कौन ?
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मित्रों ये किताब उस व्यक्ति विशेष को समर्पित है जिसके सद्चरित्र, अनुशाशन, ईमानदारी, शांतिप्रियता, कर्मठता और अपने राष्ट्र और राष्ट्जनो के प्रति अथाह प्रेम और समर्पण का कायल सम्पूर्ण विश्व है | आप में से बहुत लोग मेरे विचार से असहमत हो सकते हैं परन्तु वर्तमान में भारत की स्थिति और विश्व के अन्य देशों की स्थिति का तुलनात्मक विशेलषण करने के पश्चात आपकी असहमति कुछ सिमा तक सहमति में परिवर्तित हो सकती है | हमारे शास्त्रों केअनुसार "विदेशेषु धनं विद्या व्यसनेषु धनं मति:। परलोके धनं धर्म: शीलं सर्वत्र वै धनम्॥" अर्थात विदेश में विद्या धन है, संकट में बुद्धि धन है, परलोक में धर्म धन है और शील(अच्छा चरित्र ) सर्वत्र ही धन है! इसी को चरितार्थ करता वो महापुरुष विश्व का सबसे लोकप्रिय जनप्रतिनिधि बन कर उभर चूका है| वृतं यत्नेन संरक्षेद वित्तमेति च याति च | अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः!" अर्थात चरित्र की यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए। धन तो आता-जाता रहता है। धन के नष्ट होने पर भी चरित्र सुरक्षित रहता है, लेकिन चरित्र नष्ट होने पर सबकुछ नष्ट हो जाता है। और उस महापुरुष के पावन जीवन से इसी तथ्य की शिक्षा मिलती है | वो महा व्यक्तित्व जानता है कि "येषां न विद्या न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः । ते मृत्युलोके भुवि भारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति! अत: वोअपने ज्ञान के प्रकाश से विश्व को रोशन करता है और अपना सर्वस्य दान कर देता है | वो एक तपस्वी का जीवन जीता है और कर्म को अपने जीवन का आधार बना के ही जीता है | वो यह भी जानता है कि "मानं हित्वा प्रियो भवति। क्रोधं हित्वा न सोचति।।कामं हित्वा अर्थवान् भवति। लोभं हित्वा सुखी भवेत्।।" इसीलिए हर प्रकार के अहंकार को त्याग कर सबका प्रिय बन चूका है| उसने क्रोध, कामेच्छा तथा लोभ को त्याग कर स्वयं को सुखी बना लिया है और सबको प्रेरित कर रहा है। "यथा चित्तं तथा वाचो यथा वाचस्तथा क्रियाः ! चित्ते वाचि क्रियायांच साधुनामेक्रूपता !!" वो अच्छा है इसलिए उसके ह्रदय में जो है उसे ही वो प्रकट करता है, वो जो कहता है वही करता है , उसके मन, वचन और कर्म में समानता होती है | और जब ऐसे व्यक्ति का विरोध कोई करता है तो मैं उससे केवल एक प्रश्न पूछता हूँ कि "वो नहीं तो कौन ?"
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