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प्रेम एक है या दो

22 फरवरी 2022

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प्लेटो के ‘सिम्पोजियम’ को पढ़ने से ऐसा लगता है कि प्रेम एक नहीं, दो हैं। हीन कोटि का प्रेम वह है, जो नर और नारी के बीच होता है। प्लेटो के अनुसार, इस प्रेम का एकमात्र लक्ष्य संतानोत्पत्ति है। किन्तु इससे अधिक श्रेष्ठ प्रेम वह है, जो नर को नर से होता है। रचना, सर्जन अथवा उत्पादन तो इस प्रेम का भी ध्येय है, किन्तु जब दो पुरुष आपस में प्रेम करते हैं, तब उस प्रेम से बच्चे नहीं जनमते, बल्कि कला, ज्ञान और दर्शन उत्पन्न होते हैं।

प्लेटो का विचार है कि मनुष्य में अपने–आपको अमर बनाने की इच्छा अत्यन्त बलवती है। प्रेम इसी इच्छा का क्रियाशील रूप है। किन्तु अमरता तो अलभ्य आदर्श है, इसलिए प्रेम से प्रेरित मनुष्य संतान उत्पन्न करता है और संतानोत्पादन का कार्य अपने को भविष्य तक खींच ले जाने का ही प्रयास है।

किन्तु यह प्रेम का शारीरिक धरातल है और इस धरातल पर वे ही लोग कार्य करते हैं, जिनकी सारी प्रेरणा शारीरिक है। इसके विपरीत, जो लोग शरीर से ऊपर उठना चाहते हैं, वे अपने को अमर बनाने के लिए दीर्घायु सुयश की खोज करते हैं अथवा कला और ज्ञान की साधना करते–करते उस महासौन्दर्य की ओर बढ़ते हैं, जिसका सामीप्य छोड़कर मनुष्य मर्त्यलोक में आता है। जन्म के पूर्व मनुष्य जहाँ रहता है, वह महासौन्दर्य का लोक है। आत्मा धरती पर उसी सौन्दर्य की खोज में है। उस सौन्दर्य की झाँकी नारियों में भी मिलती है और नरों में भी। इसीलिए मनुष्य इन दोनों सुन्दरताओं से आकृष्ट होता है। किन्तु नर के सौन्दर्य की ओर बढ़ना अधिक श्रेयस्कर है, क्योंकि वह निरापद है। प्लेटो का ‘सिम्पोजियम’ नारियों पर विश्वास नहीं करता। ‘रिपब्लिक’ में प्लेटो ने नर और नारी को परस्पर समान माना है, किन्तु प्रेम के विषय में उनका विचार यह दिखता है कि प्रेम में जो आध्यात्मिक प्रेरणा है, उसकी सिद्धि नारी–प्रेम से नहीं हो सकती, क्योंकि नारियों की रचनात्मक शक्ति शरीर के धरातल से ऊपर नहीं जाती है।

‘सिम्पोजियम’ में कुछ व्याख्यान ऐसे भी हैं, जिनसे काम के अप्राकृतिक रूप का समर्थन होता है, किन्तु प्लेटो का अपना विचार यह है कि प्रत्येक प्रकार के सम्बन्ध में वासना निंद्य है। श्रेष्ठ प्रेम दो स्वरूपवान और मेधावी नरों के बीच उत्पन्न होनेवाला वह मधुर सम्बन्ध है, जिससे दोनों को आध्यात्मिक प्रेरणा प्राप्त होती है और दोनों कला, ज्ञान एवं आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में उत्तरोत्तर ऊपर उठते जाते हैं। सुकरात को प्लेटो ने ऐसे प्रेम की साकार प्रतिमा माना है।

किन्तु आज हमारे सोचने की पद्धति कुछ और हो गई है। प्लेटो के श्रेष्ठ प्रेम का आधार आज की दुनिया में अप्राकृतिक अपराध माना जाएगा, और यदि यह कहें कि सुकरात आदि का युवकों से जो प्रेम था, उसमें वासना नहीं थी, तो भी यह विचारने की बात हो जाती है कि वैसे सम्बन्ध को प्रेम और मैत्री में से किस कोटि में रखा जाए? और आज के चिन्तक प्लेटो की इस धारणा से भी असहमत होंगे कि नारी की प्रेरणा केवल शरीर के धरातल तक सीमित होती है तथा वह कला, ज्ञान और अध्यात्म तक नहीं जा सकती।

जहाँ तक संतानोत्पत्ति अथवा प्रजा–वृद्धि का प्रश्न है, इस विषय में भारतीय परम्परा की भी वही मान्यता है, जो प्लेटो की रही होगी। किन्तु अब तो इस मान्यता के भी पाँव उखड़ रहे हैं, क्योंकि ट्यूब–क्रिया से संतान प्रेमानुभूति के बिना भी उत्पन्न की जा सकती है और जो नर–नारी संतान नहीं चाहते, प्रेम का दोल उनके हृदयों में भी चलता है। गर्भ–निरोधक यंत्र प्रेम में बाँधा नहीं डालते हैं।

बात घूम–फिरकर नैतिकता पर आ जाती है। समाज में उल्लंघ्य कामाचार न बढ़े, इसलिए शास्त्रों ने प्रेम पर अंकुश लगाया और यह निर्णय दिया कि नर–नारी का दैहिक मिलन पाप है–यदि वह प्रजोत्पत्ति के लिए न किया गया हो। और, अजब नहीं कि नैतिकता की ही किसी व्याप्ति से भीत होकर प्लेटो को भी प्रेम की दो श्रेणियाँ बनानी पड़ी हों। प्रेम के भीतर अच्छी और बुरी, अनेक प्रकार की प्रवृत्तियाँ काम करती हैं, इसलिए इस लता को किसी–न–किसी बाड़े में घेर रखना ही ठीक है। किन्तु यहीं कथा की इत्ति नहीं हो जाती। समझने की बात यह है कि प्रेम है क्या और वह कैसे अपना काम करता है?

प्लेटो ने ज्ञान, सत्य और अध्यात्म को भी प्रेम का ही विषय माना है, किन्तु मेरे जानते ये प्रेम के विषय नहीं हैं। हाँ, वे प्रेम के परिणाम हो सकते हैं। काम की सनातन व्याख्या यह है कि प्रकृति उसके द्वारा जीव–सृष्टि को कायम रखती है। किन्तु काम की सारी व्याप्तियाँ इतनी ही नहीं हैं। काम केवल शरीर का धर्म नहीं है, उसके अनेक कार्यों में प्रेमियों की आत्मा भी साथ होती है। नारी का शरीर निरी वासना का क्षेत्र नहीं है। नारी जब अपने सौन्दर्य से पुरुष को आकृष्ट करती है, तब वह उसके हृदय में किसी कवि को भी जाग्रत कर देती है। प्रेम शारीरिक कृत्य भी है, किन्तु शरीर की क्रियाएँ प्रेम को उतना उत्तेजित नहीं करतीं, जितनी उत्तेजना काम के मानसिक उपसर्गों से आती हैय शब्द, चिन्तन ध्यान और समाधि से आती है। प्रेम का आरम्भ भौतिकता में और परिपाक अध्यात्म में है। प्रेम पहले ‘फिजिक्स’ और तब ‘मेटाफिजिक्स’ होता है। प्लेटो ने प्रेम की जो श्रेणियाँ बनाईं, वे वस्तुत: परस्पर भिन्न नहीं हैं। एक ही प्रेम दोनों श्रेणियों में विहार करता है।

यदि केवल प्रजनन की आवश्यकता को ही सत्य मानें, तो मनुष्य और पशु में कोई भेद न रह जाएगा और तब मनुष्य का प्रेम भी वैसा ही अनगढ़ और कुरूप होगा, जैसा वह पशु–जगत में पाया जाता है। किन्तु मनुष्य और पशु के कृत्य एक समान नहीं होते। पशु केवल पेट भरने को भोजन करते हैं, मनुष्य भोजन में स्वाद भी चाहता है। पशु अपनी नग्नता से संतुष्ट रहते हैं, मनुष्य भाँति–भाँति की पोशाकों से अपने सौन्दर्य में वृद्धि करता है। प्रेम के आवेग से विचलित पशु उछलते–नाचते और कूदते हैं। किन्तु इस आवेग से आक्रान्त मनुष्य मुख से कोई मनोरम शब्द निकालता या कविता करता है और शब्द विचारों की अभिव्यक्ति होते हैं। मनुष्य की काम–भावना केवल शरीर को ही नहीं, मन और आत्मा को भी आन्दोलित करती है। काम जब मन और आत्मा के धरातल पर पहुँचता है, तब उसके भीतर रहस्यपूर्ण अर्थों का समावेश होने लगता है। प्रेम प्रजनन भी है और मान–सोल्लास भी। प्रेम सामाजिक कृत्य भी है और रहस्यवाद भी।

हौवा का जन्म कैसे हुआ? कहते हैं, एक दिन जब आदम सोए हुए थे अर्थात् रहस्य–चिन्तन अथवा ईश्वर की समाधि में लीन थे, तभी देवताओं ने उनके हृदय के पास की एक हड्डी निकाल ली और उसी अस्थि–तन्तु पर हौवा के व्यक्तित्व की नींव पड़ी, अर्थात् नारी नर की अस्थि से बनी है, यानी वह शारीरिक सम्बन्ध के लिए है। यह भी कि नारी नर की प्रार्थनामयी समाधि से निकली हैय अर्थात् वह आध्यात्मिक प्रेरणाओं का स्रोत है।

जिन देशों में विवाह वर और वधू की इच्छा के अनुसार किया जाता है, वहाँ नर विवाह में केवल इसलिए प्रवृत्त नहीं होता कि उसे संतान की आवश्यकता होती है अथवा वह नारी को फलवती बनाना चाहता है, प्रत्युत् ऐसे सभी विवाहों का एकमात्र ध्येय प्रेम होता है और प्रेम के सामने कोई उपयोगी लक्ष्य है या नहीं, यह नहीं जाना जा सकता। शायद प्रेम उपयोगिता के वृत्त से बाहर की चीज है।

कला के विषय में रवीन्द्रनाथ ने कहा है कि जब तक मनुष्य उपयोगिता के वृत्त में है, वह कला की सृष्टि नहीं कर सकता, क्योंकि कला का उपयोग से कोई सम्बन्ध नहीं है। कला का आनन्द एक ऐसा आनन्द है, जिसका कोई लक्ष्य या उद्देश्य नहीं होता। मेरे जानते, प्रेम का भी प्रेम के सिवा कोई और उद्देश्य नहीं है। प्रकृति भी कदाचित् यही मानती है। मानवीय प्रेम के विषय में प्रकृति की दृष्टि व्यष्टि पर रहती है, समष्टि पर नहीं। उसका भाव शायद यह है कि व्यष्टि की आवश्यकता की पूर्ति से समष्टि की आवश्यकता आप–से–आप पूर्ण हो जाती है। किन्तु इसके बाद प्रेम का जो एक विशाल साम्राज्य बच जाता है, उसमें व्यक्ति ही विहार करते हैं।

केवल शारीरिक मिलन को प्रेम कहना चाहिए या नहीं, यह विषय संदिग्ध माना जाना चाहिए। शायद वह प्रेम नहीं है। प्रेम की सार्थकता दम्पती के तन, मन और आत्मा के एकाकार होने में है। और प्रेमियों में भी श्रेष्ठ वे हैं, जो केवल काम पर बस न मानकर सबसे अधिक रस उन झंकारों का लेते हैं, जिन्हें प्रेम प्रेमियों की आत्मा में उत्पन्न करता है। प्रेम वासना है, किन्तु यह वासना आत्मा में विलक्षण उमंग, अप्रतिम प्रसार और अद्भुत उत्तेजना जाग्रत करती है। प्लेटो की यह उक्ति ठीक है कि प्रेम एक प्रकार के आनन्दोन्माद का माध्यम होता है। प्रेम उस लोक की ओर उड़ने की प्रेरणा देता है, जो अतीन्द्रिय सुषमाओं का लोक है। प्लेटो ने जिस आनन्दोन्माद की ओर संकेत किया है, उसकी अनुभूति सबको होती है। उन्हें भी, जो सुसंस्कृत और सुरुचिसम्पन्न हैं और उन्हें भी, जो भौंडे और गँवार हैं। किन्तु भौंडे और गँवार लोग इस स्फुरण को ठीक से नहीं पहचान पाते, यद्यपि अनुभव उन्हें भी होता है कि आनन्द की यह किरण अपरलोक से आ रही है।

ऐसा दीखता है कि प्रेम और कला में निकट का सम्बन्ध होगा। इसके कई प्रमाण दिये जा सकते हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि प्रेम का आनन्द बहुत कुछ कला के आनन्द के समान होता है और आदमी चाहे कितना भी अकलात्मक क्यों न हो, उसे जीवन में एक बार इस आनन्द की अनुभूति अवश्य होती है। प्रेम से कई प्रकार की चिंगारियाँ छिटकती हैं। इनमें से सबसे अधिक तेज वाली वे होती हैं, जिनसे कला को प्रेरणा मिलती है। इसीलिए कलाकार नारी रूप की ओर सहज ही खिंच जाता है। पंडित, मूर्ख, धनी और निर्धन–प्रेम, प्राय: सभी प्रकार के लोग करते हैं, किन्तु प्रणय–भावना की जैसी अनुकूलता योद्धाओं और कलाकारों से है, वैसी और लोगों से नहीं। यह शायद इसलिए कि योद्धा में बलिदान के आवेग अधिक होते हैं और कलाकार उन आध्यात्मिक किरणों को कुछ अधिक समझ सकता है, जो नारियों के सौन्दर्य से नि:सृत होती हैं।

प्रेम की सहज भूमि उस हृदय को मानना चाहिए, जिसमें अतृप्त प्रवृत्तियों की भरमार है और जो यह अनुभव करता है कि वह उपेक्षित, रीता और असंतुष्ट है। कलाकारों में इच्छाएँ और प्रवृत्तियाँ असंख्य होती हैं और वे सदैव एक प्रकार की तृषा से चंचल, एक प्रकार की रिक्तता से आक्रान्त रहते हैं। इसीलिए सौन्दर्य को देखते ही कलाकार के हृदय में हलचल–सी मचने लगती है, जो प्रेम और कला, दोनों की पहली पहचान है।

जिसके भीतर प्रवृत्तियाँ कम हैं और जो हैं भी, वे संतृप्त हैं, वह व्यक्ति प्रेम शायद ही कर सके। जो सुखी है, जो संतुष्ट है, प्रेम का सारा तेज उसमें प्रकट नहीं होता। इसी प्रकार, जिसके अन्तर में वेदना नहीं, पीड़ा और अतृप्ति नहीं, वह व्यक्ति भी प्रेम की क्षमता से विहीन होगा। कलाकार चूँकि जीवनभर अपनी रिक्तता और तृषा से बेचैन रहता है, इसीलिए प्रेम वह उस उम्र में भी कर सकता है, जब इतर जन सौन्दर्य से आँखें चुराने लगते हैं। नारी जिस प्रेम को सदा जगाए रखना चाहती है, नरों में वह प्रेम केवल कलाकारों में अधिक–से–अधिक काल तक जीवित रहता है। प्रेम से एक प्रकार के अमृत की वृष्टि होती है, जिसे पीकर प्रेमी मन से जवान रहते हैं। जिस व्यक्ति को सांसारिक सफलता मिलने लगी, वह इस अमृत से दूर होने लगता है। किन्तु चिरन्तन तृषा से पीड़ित रहनेवाला कलाकार इस अमृत की खोज आजीवन करता रहता है। कला की सर्वाधिक प्रेरक शक्ति सौन्दर्य और प्रेम है।

और वासना से भी सर्वाधिक मुक्त केवल कलाकार का प्रेम होता है। कला प्रेम को जीव–विज्ञान, समाज और ऐन्द्रियता के धरातल से उठाकर ऊपर ले जाती है। कला का ध्येय प्रेम का, स्वप्न की भाषा में, अनुवाद है। कविताओं में हम जिस नारी का बखान सुनते हैं, वह किसी की भी बेटी, बहन या भार्या नहीं होती। वह तो अनामिका, अशरीरी कल्पना की प्रतिमा है, जिसके अंग पर उम्र के दाग नहीं लगते, जो स्पर्श से परे खड़ी हमारे सपनों पर राज करती है। चूँकि वह कोई एक नारी नहीं है, इसीलिए वह सभी नारियों का प्रतिनिधित्व करती है।

नर–नारी के शारीरिक मिलन का संधान शास्त्रकार वात्स्यायन ने किया। किन्तु शरीर के धरातल से ऊपर नर–नारी के मिलन की महिमा कालिदास और लारेंस का अनुसंधान है। प्रेम से आनन्द की एक प्रकार की अशरीरी लहर उठती है, जो बहुत–कुछ रहस्यवादी कल्पना की लहर के समान है। कविता इस लहर के लिए राह बनाती है। कला इस लहर का अनुकरण करती है। प्रेम से प्लेटो ने एक प्रकार की अतीन्द्रिय अनुभूति की माँग की थी। कला इस माँग की सबसे समीपवर्ती पूर्ति है।

सूफी–परम्परा में एक कहावत चलती है कि इश्कमिजाजी इश्कहकीकी का सोपान है अर्थात् शारीरिक सोपान पर प्रेम करते–करते मनुष्य आध्यात्मिक सोपान की ओर बढ़ने लगता है। प्रेम के भीतर आध्यात्मिक प्रसार की शक्ति है, यह निश्चित बात है। किन्तु क्या प्रत्येक व्यक्ति शारीरिक सोपान से, स्वभावतया, अध्यात्म की ओर बढ़ सकता है? काश, यह बात होती! किन्तु वह है नहीं। शरीर प्रेम की जन्मभूमि है और जैसे सब लोग जन्मभूमि से प्यार करते हैं, वैसे ही प्रेम को भी अपनी जन्मभूमि अन्य सभी भूमियों से अधिक पसन्द है :

प्रेम की मादकता का भेद

छिपा रहता भीतर मन में,

काम तब भी अपना मधु वेद

सदा अंकित करता तन में।

[नए सुभाषित]

शरीर से ऊपर उठने के लिए सब्लिमेशन अथवा उदात्तीकरण की प्रक्रिया पर अधिकार होना चाहिए, किन्तु यह अधिकार अधिक लोगों को प्राप्त नहीं होता। प्रत्येक युग में कुछ थोड़े–से ही लोग उदात्तीकरण की क्षमता से सम्पन्न होते हैं, और उनसे भी कम संख्या उनकी होती है, जो प्रयासपूर्वक अपने को उदात्तीकरण के अनुरूप बनाने में सफलता प्राप्त करते हैं। सबसे बड़ी बाधा यहाँ प्रेम से ही आती है, क्योंकि प्रेम शरीर को छोड़ना नहीं चाहता, वह उड्डयन के क्रम में आधी राह से भी बार–बार नीचे लौट आता है। प्रेम की बाधाओं से घबराकर लोग अक्सर यती–मार्ग पर जा पड़ते हैं, किन्तु यह ‘सब्लिमेशन’ नहीं है। केवल शरीरव्रती हो, इससे क्या होता है? व्रत की पवित्रता तो मन के भीतर रहनी चाहिए। सच्चा सब्लिमेशन वह है, जिसमें मन तो शरीर के रस से आप्यायित रहता है और शरीर मन के व्रतों का साथ देता है। उदात्तीकरण में सिद्धि उसे मिलती है, जो ‘विरागलोक का रसिक’ और ‘मधुवन का संन्यासी’ है।

सब्लिमेशन की प्रक्रिया काम के सर्वथा त्याग की प्रक्रिया नहीं, उसकी शारीरिक अभिव्यक्ति के त्याग की प्रक्रिया है। और यह त्याग देह–दंडन के भाव से नहीं, मधुरता के साथ किया जाना चाहिए। सब्लिमेटेड अथवा उदात्त पुरुष काम से सर्वथा मुक्त नहीं होता, केवल उसकी स्थूलताओं से परे होता है। वीणा को गोद में रखकर उसे बजाने का काम वह प्रेम है, जिसे प्लेटो ने हीन कोटि में रखा है। किन्तु वीणा से निकलने वाली झंकारों का सेवन वह प्रेम है, जो उच्चकोटि में आता है। प्रेम का जन्म काम में होता है, किन्तु उसकी परिणति काम के अतिक्रमण में होनी चाहिए। यही नहीं, प्रत्युत प्रेमिका के सौन्दर्य पर चकित रहनेवाले चिन्तनशील प्रेमी के मन में भी यह भावना उठा करती है कि वह सौन्दर्य कहाँ है, जो इससे भी अधिक महान होगा? प्रेम में पवित्रता धर्म के भय से नहीं लाई जाती, पवित्रता प्रेम का अपना गुण है।

किन्तु यह साधना अत्यन्त कठोर है। प्रेम के भीतर भ्राँतियाँ और मरीचिकाएँ एक–दो नहीं, अनन्त हैं। प्रेम और काम एक नहीं हैंय किन्तु उन्हें दो करके देखना अत्यन्त दुष्कर कार्य है। प्रेम भ्रामक होता है, प्रेम चंचल होता है, प्रेम अक्सर विकृत हो जाता है, वह पंडितों के उपदेशों से चिढ़ता और सामाजिक बन्धनों की अवज्ञा करता है। वह उड़कर आकाश की सैर करता है और मौका मिलते ही पंक में धँस जाना चाहता है। उसकी प्रेरणाएँ दिव्य भी हैं और राक्षसी भी। प्रेम अपने–आपको न्योछावर भी करता है और दूसरों के वह प्राण भी लेता है। इसलिए व्यक्ति और समाज, दोनों उसके प्रति सावधान रहें, इसी में कल्याण है। क्योंकि वन के हिंस्र जन्तुओं से लड़कर मनुष्य जीत भी जाए, किन्तु प्रेम के आवेगों से लड़कर जीतना दु:साध्य है। कबीर साहब ने सत्य कहा है :

चढ़ै सो चाखे प्रेम–रस, गिरै सो चकनाचूर।

किन्तु यह प्रेम–रस है क्या चीज? प्रेम और काम को दो करके देखना कठिन है, किन्तु उनकी भिन्नता सदैव अदृश्य नहीं रहती। प्रेम भावनाओं की तृप्ति, आनन्द की लहर, शारीरिक कृत्य, सामाजिक यज्ञ और मनोवैज्ञानिक समाधान–सब कुछ है और इन सारे कृत्यों में काम उसके साथ रहता है। किन्तु एक कार्य है जिसमें प्रेम वासना से अलग खड़ा होता है। प्रेम बलिदान है। प्रेम त्याग है। प्रेम अपने–आपको दान में दे देना है और बिना यह सोचे दे देना है कि इसका कोई प्रतिदान भी है या नहीं। और यह दान उस वस्तु का नहीं है, जो हमारे पास है, बल्कि उस हमारे पास है, बल्कि उस सम्पूर्ण अस्तित्व का, जो हम स्वयं हैं। प्रेम का सबसे बड़ा कार्य पाने में नहीं, देने में है। और यहीं वासना प्रेम से भिन्न हो जाती है। वासना वह प्रेम है, जिसने आत्मदान से अपने को पूर्ण नहीं किया है। सिद्ध प्रेम उस व्यक्ति का है, जिसने अपना सर्वस्व चढ़ा दिया है :

यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं।

सीस काटि भुइयाँ धरे, तब पैठे घर माहि॥

-कबीर साहब ।

समाज में, अनन्त काल से, प्रेम के प्रति संतों, चिन्तकों और शास्त्रकारों का व्यवहार पुलिस का-सा रहा है। और उन्हीं के भय से मनुष्य ने अपने चेहरे पर पवित्रता का नकाब लगाना मंजूर कर लिया, यद्यपि इस नकाब का उसे अभ्यास नहीं था। अथवा यों कहें कि यह नकाब जितने अच्छे सत का है उतने बारीक और महीन सूत आदमी की भीतरी जिन्दगी में नहीं काते जाते।

लोग बड़ी आसानी से कह देते हैं (और मैंने भी ऊपर कहीं कहा है) कि मनुष्य को पशु से भिन्न होना चाहिए, क्योंकि पशुओं से वह कहीं श्रेष्ठ है। मनुष्य पशुओं से श्रेष्ठ तो है, किन्तु इसी श्रेष्ठता से उसकी बहुत-सी दुर्बलताएँ भी उत्पन्न होती हैं। विशेषतः, काम के विषय में मनुष्य को उतनी भी स्वाधीनता नहीं है जितनी पश्-जगत में दिखाई देती है। पशुओं का मस्तिष्क अविकसित है, यह उनके लिए इस प्रसंग में फायदे की बात है। इसके प्रतिकूल, मनुष्य का मन अत्यन्त विकसित और सतत क्रियाशील है। उसके भीतर भावना की अनेक तरंगें उठती-गिरती रहती हैं और इनमें से प्रत्येक तरंग के साथ मानव की काम-भावना सम्बद्ध है। यह भावना जब मनुष्य के अवचेतन में प्रवेश करती है, उसका सारा व्यक्तित्व उत्तेजना से भर जाता है और उसमें से नई-नई शाखाएँ फूटने लगती हैं। जो मनुष्य सुस्वादु भोजन का प्रेमी होता है, वह धीरे-धीरे खुरदुरे वस्त्रों को छोड़ देता है और उसकी रुचि रेशम और मलमल की ओर जाने लगती है। नारी को जब दर्शकों की आँखों से झरने वाले प्रशंसा के रस का स्वाद मिलता है, वह प्रसाधन का महत्त्व समझने लगती है और तब उसकी बातचीत, हाव-भाव और सामाजिक आचारों में भी एक नया सम्मोहन भरने लगता है। और नारी-सौन्दर्य पर रीझनेवाली कलाकार की आँखें केवल नारी-सौन्दर्य तक ही सीमित नहीं रहतीं, वे वनों की हरियाली और पर्वतों के अवाक् सौन्दर्य पर भी देर तक बिरमना चाहती हैं। इसी प्रकार, रमणी-रूप की चोट खाकर जगनेवाला हृदय अदृश्य सौन्दर्य के संधान में भी तत्पर हो जाता है :

विस्मृति के जिस सुधा-सिंधु में तुम्हें कविता और दर्शन पहुँचाते हैं, वहाँ मैं नारी-प्रेम की नाव पर चढ़कर गया हुआ हूँ। रूप साकार कवित्व है। और सौन्दर्य की लहर दर्शन की लहर से मिलती-जुलती है। उठता है। किन्तु ये सारे कम्पन काम के कम्पन नहीं होते, यद्यपि यह सत्य है कि इनका आरम्भ काम के सचेत होने पर ही होता है।

मनुष्य के भीतर शायद ही कोई प्रवृत्ति हो, जो काम की प्रवृत्ति से प्रभावित न होती हो। इसीलिए जितनी सावधानी अन्य प्रवृत्तियों को राह पर रखने के लिए बरती जाती है, उससे बहुत अधिक सावधानी प्रेम के विषय में बरती जानी चाहिए। किन्तु यह सावधानी क्या है? नीत्शे ने कहा है कि धर्म ने काम को मारने के लिए उसे जहर पिलाने की कोशिश की, किन्तु काम मरा नहीं, वह जहरीला होकर रह गया। और योगियों ने उसे दमित करने की शिक्षा दी, किन्तु काम दमन में भी न लाया जा सका। अब मनोविज्ञान आया है कि काम को वह फुसलाकर बस में लाएगा। किन्तु कहा नहीं जा सकता कि मनोविज्ञान को कितनी सफलता मिलेगी। हाँ, यह आशा अवश्य होती है कि मनोविज्ञान का प्रयोग पहले के प्रयोगों से अधिक सफल होगा।

जब मनुष्य आदिम अवस्था में था, जब सामाजिक आचार प्रचलित नहीं थे, तब प्रेम का स्वरूप क्या रहा होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है। काम के विषय में पशुओं को जो स्वाधीनता है, वही स्वाधीनता उस समय मनुष्य को भी रही होगी अर्थात् नारी किसी एक नर की और नर किसी एक नारी का न रहता होगा। साथ ही, काम जीवन में प्रधान भी न रहा होगा, जैसे वह आज भी पशु-जगत में प्रधान नहीं है। किन्तु ज्यों-ज्यों मनुष्य के मन का विकास होने लगा, त्यों-त्यों काम भी मनुष्य के मानसिक आवेग के रूप में बढ़ने लगा। धर्म की उत्पत्ति के समय काम मनुष्य की बहुत बड़ी समस्या बन गया था, यह तो इसी बात से प्रत्यक्ष है कि संसार के सभी धर्मों ने सबसे अधिक दंड काम को ही दिया है। और जब रोमांटिक जागरण का काल आया, लोग यह तो मानने लगे कि नारी पाप की प्रतिमा नहीं, शोभा का समुद्र है, किन्तु धर्म ने काम के प्रति जिस भय को जगा दिया था, वह भय रोमांटिक चिन्तकों में भी मौजूद मिलता है। उस भय का रूप यह है कि नारी भोग नहीं, पूजा की पात्री हैय वह छूने नहीं, देखने की चीज है।

इस दृष्टि से विचार करने पर प्रेम की बीसवीं सदी की धारणा मुझे अधिक श्रेष्ठ दिखाई देती है, क्योंकि वह सत्य पर आधारित है, क्योंकि वह स्वाभाविक और निसर्गसिद्ध है। किन्तु धारणा के श्रेष्ठ होने पर भी इस सदी का कामाचार सर्वथा निर्दोष नहीं कहा जा सकता। हमारा सबसे बड़ा अपराध कदाचित यह है कि धर्म ने जिस वस्तु को अत्यन्त दुर्लभ बना रखा था, उसे

_[उजली आग]

इससे ज्ञात होता है कि प्रेम के जागरण से चेतना के प्रत्येक कूप में लहरें उठती हैं, कामना की कोई मंद वायु समस्त इन्द्रियों की गहराई में बहने लगती है तथा मन और आत्मा का प्रत्येक शिखर किसी लालिमा से उद्भासित हो हमने जरूरत से ज्यादा सस्ता कर दिया है। और यह प्रक्रिया गर्भ-निरोधक यंत्रों के प्रचार से दिनोंदिन अधिक आसान होती जा रही है। वृक्ष का पता फलों से चलता है। तो जब फल ही नहीं हैं, तब वृक्ष के होने का प्रमाण क्या है? इसलिए प्रेम भय से मुक्त हो गया और प्रेमियों की घबराहट बिलकुल जाती रही। इससे अच्छे और बुरे, दोनों ही परिणाम निकले हैं। भय से मुक्ति मिली, यह अच्छी बात है। किन्तु सस्ता होना तो स्पष्ट ही बुरी बात है। नोट जब बहुत छापे जाते हैं, तब रुपयों का मूल्य घट जाता है। कामाचार चूँकि बहुत निरापद हो गया, इसलिए प्रेम की ज्योति मंद हो गई है।

बड़ी झील तभी तैयार होती है, जब उसके बाँध बड़े और मजबूत हों। प्रेम में भी महत्ता तभी आती है, जब काम के ज्वारों से उसके पाँव नहीं उखड़ते। उपवास केवल धार्मिक कृत्य नहीं है। उससे भूख में भी तीव्रता आती है और चबाने के समय रोटी का स्वाद भी बढ़ जाता है। ऐसा लगता है कि प्रेम को सस्ता बनाने की जो पद्धति आरम्भ हुई है, वह टिकाऊ नहीं होगी, क्योंकि जो चीज बहुत सस्ती है, वह हमारे आदर का विषय नहीं हो सकती।

[1958 ई.]

('विवाह की मुसीबतें' पुस्तक से) 

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विवाह की मुसीबतें
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विवाह की मुसीबतें यह पुस्तक राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के चिन्तनपूर्ण, लोकोपयोगी निबन्धों का श्रेष्ठ संकलन है। दिनकर जी के चिन्तन-स्वरूप का विस्मयकारी साक्षात्कार करानेवाले ये निबन्ध पाठक के ज्ञान-क्षितिज का विस्तार भी करते हैं। इन निबन्धों में जहाँ एक ओर विवाह, प्रेम, काम, नैतिकता और शिक्षा जैसे विषयों पर विद्वान कृतिकार का सन्तुलित दृष्टिकोण उद्घाटित होता है, वहीं दूसरी ओर लोकतंत्र, धर्म और विज्ञान तथा मूल्य-ह्रास जैसे ज्वलन्त प्रश्नों पर उनकी प्रगतिशील दृष्टि मार्गदर्शक की भूमिका निभाती है।
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