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विवाह की मुसीबतें

22 फरवरी 2022

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एक लड़की से प्रेम किर्केगार्ड ने भी किया था, किन्तु उससे विवाह करना उन्होंने यह कहकर टाल दिया था कि ‘लड़की से उम्र में मैं बहुत बड़ा हूँ’, गर्चे बात ऐसी नहीं थी। फिर शादी उन्होंने कभी की ही नहीं। और जब उस लड़की का ब्याह हुआ, किर्केगार्ड ने अपनी डायरी में ये शब्द लिखे : ‘और अब वह–मुरदा नहीं–सुख–सम्पन्नतापूर्वक विवाहिता है।’

क्या यह सच है कि सुख–सम्पन्नतापूर्वक विवाहिता नारी भी जीवित नहीं रहती, वह साँस लेनेवाला शव बन जाती है?

हम लोग अपनी पत्नियों के सिवा उन अनेक विवाहिताओं को जानते हैं, जिनसे हमारी भेंट–मुलाकात होती है अथवा जिनके चढ़ते–उतरते मिजाज की कहानियाँ हमारे कानों में पड़ा करती हैं। इस सारी जानकारी से यह मजे में कहा जा सकता है कि समाज की आधी से अधिक पत्नियाँ दुखी हैं, खीजी हुई, विवश और लाचार हैं। और जिन्हें हम अपेक्षया सुखी और शान्त समझते हैं, उनमें से कुछ देवियाँ तो वे हैं, जिन्होंने जीवन के जहर को गुमसुम ही पीकर बाहर से अपने होंठ पोंछ लिये हैंय और कुछ वे हैं, जो वेदना को वेदना नहीं समझतीं, शायद इसलिए कि परम्परा ने उन्हें यही सिखाया है, शायद इसलिए कि उनकी अनुभूतियों के वातायन अभी बन्द हैं अथवा दर्द की टीस महसूस करनेवाली शिराएँ अभी जागी नहीं हैं। कुछ ऐसी भी हो सकती हैं, जिनका दाम्पत्य जीवन इसलिए सुशान्त है कि वे दोनों प्राणी समझदार हैं और उदारतापूर्वक उन्होंने एक–दूसरे को उतनी छूट दे रखी है, जितनी छूट से एक ओर जहाँ रथ के भीतर बाहरी वायु की कुछ थोड़ी फुरेरी आती रहती है, वहाँ दूसरी ओर चक्कों की गति में अनुपात का भेद नहीं पड़ता, न रथ के आगे बढ़ने में कोई व्याघात उत्पन्न होता है।

खलील जिब्रान ने विवाह पर दो–एक सूक्तियाँ कही हैं, जो अत्यन्त अर्थपूर्ण हैं : ‘एक शराब पियो, मगर एक ही प्याले से मत पियो।’...‘दोनों पास–पास रहो, मगर, इतनी दूरी तब भी रहने दो कि तुम दोनों के बीच स्वर्ग की वायु आसानी से आ–जा सके।’

जिब्रान ने बात तो बहुत सोच–समझकर कही होगी, लेकिन परम्परा इन सूक्तियों से बिदकती है। और पति इन सूक्तियों से प्रसन्न इसलिए होते हैं कि ये उनकी अपनी आजादी की दलीलें हैं, उनके पार्टनर की स्वाधीनता का समर्थन नहीं। और पत्नियाँ भी चाहती हैं कि उन सूक्तियों का सहारा हम लें तो लें, हमारे पतियों को नहीं लेना चाहिए।

किन्तु यह चल नहीं सकता, क्योंकि पुरुष और स्त्री प्रकृति की जिस प्रेरणा के अधीन हैं, वह नर–नारी का भेद नहीं मानती। समाज बार–बार प्रकृति को बाँधकर मनचाहे नैतिक मूल्यों की स्थापना करता है, किन्तु प्रकृति हर बार बन्धन को तोड़कर समाज के ऊपर छा जाती है। फिर भी यह सच है कि संस्कृति और नैतिकता का विकास प्रकृति के साथ चलनेवाले इन्हीं संघर्षों से होता है।

किन्तु यह भी क्या सच है कि विवाह से जितनी मुसीबतें पैदा होती हैं, उन सबका एकमात्र कारण काम है? काम–विज्ञान पर खोज करनेवाले पंडितों ने बताया है कि जहाँ पति–पत्नी काम के धरातल पर संतुष्ट हैं, वहाँ कलह होने पर भी बातें विवाह–विच्छेद तक कम पहुँचती हैंय किन्तु प्रमाण इस बात के भी हैं कि काम के धरातल पर संतुष्ट रहनेवाली पत्नियों के जीवन में भी अशान्ति का अभाव नहीं होताय खीज, परेशानी और घुलन की कमी नहीं होती।

यदि वैवाहिक अशान्ति का कारण काम–लिप्सा अथवा कामजनित कोई अन्य मनोविकार हो, तो समझना चाहिए कि यह अशान्ति वहाँ कम होगी, जहाँ लोग अशिक्षित, अजाग्रत और दरिद्र हैं। जिसके हाथों में कोई ठोस काम है, उसके मन को निरुद्देश्य भटकने की फुरसत नहीं होतीय जिसका मन अजाग्रत है, वह भी दु:खों को अतिरंजित करके नहीं देखता, न सुखों में काल्पनिक रंग भरकर बेचैन होता है।

वैवाहिक कठिनाइयों की भीषणता, असल में वहाँ सबसे अधिक है, जहाँ शिक्षा, संस्कृति, चिन्तन और एक हद तक धन का प्राचुर्य है। जिन देवियों को भाग्य ने इस ऊँचे धरातल पर आसीन किया है, वैवाहिक व्यथा का दु:खदायी दंश सबसे अधिक वे ही जानती हैं।

सभ्यता जब सीमित थी, विवाह आज की अपेक्षा कहीं अधिक सुखमय और संतोषपूर्ण थे। सभ्यता ज्यों–ज्यों प्रगति करती गई, पत्नियाँ अपनी कठिनाइयों से अधिकाधिक अवगत होती गई हैं और शिक्षा का आलोक एवं चिन्तन की शक्ति, ज्यों–ज्यों विस्तृत होती है, विवाह की असफलताओं की कहानियाँ उतनी ही बढ़ती जाती हैं।

गांधर्व विवाह स्पष्ट ही प्रेम की प्रेेरणा से किए जाते हैं। अन्य प्रकार के विवाहों से भी यह आशा तो की ही जाती है कि पति और पत्नी में परस्पर प्रेम होगा, किन्तु मनुष्यता का अनुभव यह है कि प्रेम और विवाह, इनमें नित्य सम्बन्ध नहीं है। प्रेम स्वत:स्फूर्त भावना है और विवाह एक निश्चय, एक कठोर कर्तव्य। इसीलिए प्रेमी भी पति बन जाने के बाद प्रेमी का–सा बर्ताव नहीं करता, न प्रेमिका पत्नी बन जाने पर प्रेमिका रह जाती है। अमरीका में अब इस प्रश्न पर विपुल साहित्य तैयार किया जाने लगा है कि प्रेम और विवाह की एकता कैसे कायम रखी जाए। उन्नत देशों में कुछ लोगों ने पति–पत्नी को परामर्श देते रहने का धन्धा ही निकाल लिया है। पत्नियों को कामानन्द की प्राप्ति कैसे कराई जाए, डॉक्टर अब पतियों को इसके भी तरीके सिखाने लगे हैं।

यह सभ्यता स्थूल को अधिक, सूक्ष्म को कुछ कम महत्त्च देती है। इसकी शल्य–चिकित्सा का विकास खूब हो गया, किन्तु काय–चिकित्सा की तरक्की कम हुई है, क्योंकि उसका सम्बन्ध सूक्ष्म से पड़ता है। विवाह के मामले में भी विशेषज्ञ स्थूल की सँभाल में लग गए हैं। वस्तुत: समस्या इतनी स्थूल, इतनी सुस्पष्ट नहीं है। विवाह की उलझनें केवल काम–कला के विकास से नहीं, समाज में आमूल परिवर्तन लाने से सुलझेंगीय या सम्भव है, विवाह की गुत्थियाँ कभी सुलझे ही नहीं।

समाज–रचना का दोष यह है कि उसमें निर्माण के सारे काम पुरुषों के हाथ में हैं। नारियों को हमने बर्तन धोने, झाड़ू लगाने, रसोई बनाने और घर को सँवारकर रखने के काम पर छोड़ दिया है। वैसे, एक काम बड़ा और दूसरा बहुत छोटा नहीं होता, फिर भी काम–काम में भेद है। पुरुष के कार्य प्राय: ऐसे होते हैं, जिनमें विविधता होती है, जो कर्मी के पूरे ध्यान को अपने में खींच सकते हैं और जिनके सम्पादन में रचना का भी कुछ आनन्द होता है। यही कारण है कि कर्मक्षेत्र में खड़े पुरुष का मन इधर–उधर नहीं भटकता, न वह एकरसता की मार सहता है। किन्तु इसके विपरीत नारियाँ जो काम करती हैं, उनमें रचना का आनन्द नहीं होता, न वे नारियों के मन को खींचकर अपने में लीन कर सकते हैं। बरतन धोना, रसोई पकाना, बच्चों को स्कूल भेजना और घर की सफाई करना–ये सारे–के–सारे काम ऐसे हैं, जिनमें नवीनता नहीं होती, जिनका सम्बन्ध विश्व के गतिशील जीवन से नहीं पड़ता, जो भविष्य से असम्बद्ध होते हैं। पुरुष का अन्तर्मन, कहीं–न–कहीं इस भाव से संतोष पाता है कि वह संसार को पहले से अधिक श्रेष्ठ बनाने में लगा हुआ है। वह जो काम कर रहा है, उसका विश्व–जीवन से महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध है। किन्तु घर में बैठकर नारियाँ जो काम करती हैं, वे जरूरी होने पर भी नगण्य होते हैं, और उनके महत्त्व की समाज में चर्चा ही नहीं होती।

विश्व को श्रेष्ठतर बनानेवाले कार्यों से वंचित होने के कारण नारी अपने को अधम और पुरुष को श्रेष्ठ समझती है। रोज–रोज एक ही काम में लगे रहने के कारण उसकी प्रेरणा समाप्त हो जाती है और धीरे–धीरे, उसके भीतर कुंठाएँ उत्पन्न होने लगती हैं। किन्तु मानसिक दृष्टि से इससे भी बुरा हाल उन नारियों का होता है जो बर्तन भी नहीं धोतीं, न घर की सफाई और रसोईघर का काम करती हैं। ऐसी पत्नियों की सबसे बड़ी विपत्ति यह है कि जब उनके पति दफ्तर और बच्चे स्कूल चले जाते हैं, तब समय उन्हें काटने को दौड़ता है। कहते हैं, उन्नत देशों में अब ये विज्ञापन भी निकलने लगे हैं कि समय काटने के लिए हमें साथी की आवश्यकता है : दो घंटों का साथी, एक घंटे का साथी, आधे दिन का साथी।

और घर पर पास–पास बैठकर भी दम्पती क्या प्यार की बातें करते हैं? पहले जो दीप्ति एक को दूसरे में दिखाई पड़ती है, विवाह के बाद धीरे–धीरे उसका लोप हो जाता है और रस इतना अधिक सूख जाता है कि दम्पती यह भी नहीं जानते कि वे बातें करें भी तो किस सन्दर्भ की। कोई–कोई पति तब भी ढूँढ़–ढाँढ़कर कुछ–न–कुछ जरूर बोलते हैं, किन्तु उन बातों की नीरसता और अस्वाभाविकता पत्नी से छिपी नहीं रहती।

ऐसा क्यों होता है? बात असल में यह है कि प्रेम के तूफान में पड़कर पुरुष कुछ दिनों के लिए चाहे जितनी भी भावुकता दिखा ले, किन्तु भावुकता का स्थान उसके जीवन में अपेक्षाकृत कम है। उसके चारों ओर कर्म का आह्वान गूँजता है और इस आह्वान को अनसुना करके कोई भी पुरुष सुखी नहीं हो सकता। बड़े–बड़े प्रेमियों का कहना है कि प्रेम से बढ़कर आनन्द और किसी वस्तु में नहीं है। किन्तु इस आनन्द का मूल्य अपरिमित समय नष्ट करके चुकाना पड़ता है, जो पुरुष की दृष्टि में बहुत बड़ा बलिदान है। पुरुष के लिए समय का अर्थ है : कीर्ति, सम्पत्ति, आनन्द, वैभव और बीसियों प्रकार की अन्य सफलताएँ, किन्तु नारी का समय काटे नहीं कटता। वह प्रसन्नता तब मानती है, जब समय काटने का कोई जरिया उसके हाथ आ जाए।

पुरुष नहीं चाहता कि कामानन्द के लिए भी जरूरत से अधिक समय नष्ट किया जाए। किन्तु नारी पुरुष के इस कालकार्पण्य को उसके स्वभाव की अनुदारता समझती है। प्रेम से उद्वेलित नारी उस नदी के समान होती है, जिसकी धारा उमड़कर किनारों से ऊपर बहना चाहती हो। किन्तु पुरुष उस बाढ़ को पसन्द नहीं करता। उसे लगता है कि इस बाढ़ को कबूल करने की अपेक्षा यह कहीं श्रेष्ठ है कि नदी के किनारे से ही भाग चला जाए। प्रेमाकुल पत्नियाँ पतियों का अत्यधिक समय तो चाहती ही हैं, वे इस बात को भी आसानी से बर्दाश्त नहीं करतीं कि वे तो जगी रहें और पति को नींद आ जाए। प्रेम का स्वाद पुरुष को भी उतना ही सुख देता है, जितना नारी को। भेद केवल यह है कि प्रेम को जगाकर पुरुष उसके तूफानों का सामना नहीं कर सकता, क्योंकि उसके जीवन में और भी काम हैं, जिनके रुकने से गार्हस्थ्य का शकट अवरुद्ध होता है, विश्व की कर्मधारा मंद पड़ जाती है। इसीलिए नारी पुरुष के जीवन के अनेक उपकरणों में से मात्र एक उपकरण का स्थान लेती है, उसकी अनन्त प्रेरणाओं में से केवल एक प्रेरणा का प्रतिरूप होती है। किन्तु पुरुष नारी–जीवन का सबसे प्रमुख केन्द्र कदाचित् उसका एकमात्र आधार है।

नारी का लालन–पालन माता–पिता इस भाव से करते हैं, मानो अपना बोझ उसे आप नहीं उठाना हैय मानो उसकी सारी सार्थकता लता बनकर वृक्ष को छा लेने में है। किन्तु विवाह के बाद जब वृक्ष ऊँघने लगता है, तब लता को विफलता–बोध की पीड़ा महसूस होती है और उसका मन खिन्न होने लगता है। बड़ी–से–बड़ी नारी भी बुद्धि से कम, भावना से अधिक परिचालित होती है। वह सोचती है कम, सपने अधिक देखना चाहती है। और सपने उससे कहते हैं : ‘नारी, तेरी सारी सार्थकता पुरुष को लेकर है। तेरी सारी जिन्दगी इन्तजारी में कटेगी और हर बात के लिए तुझे पुरुष का मुँह जोहना पड़ेगा। और मुँह जोहना केवल रोटी और कपड़े के लिए ही नहीं है, बल्कि यह जानने के लिए भी कि तू सुन्दर है या नहीं, कि तेरा बनाव–सिंगार पसन्द किया जाता है या नहीं, कि तेरे प्रेम का अर्घ्य व्यर्थ है अथवा उसे कोई स्वीकार भी करता है।’

नारी सचमुच ही प्रतीक्षा की साकार प्रतिमा होती है।

कर्मसंकुल संसार में पुरुष दिन–भर बाहर काम करता है, नारी घर में बैठकर उसकी राह देखती है।

प्रेम के संसार में जिस साहस और बलिदान का परिचय प्रेमिका देती है, वह साहस और बलिदान पुरुष बहुत कम दिखा पाता है। फिर भी मिलना कब होगा, इसका निर्णय प्रेमिका नहीं, प्रेमी की सुविधा से होता है। पुरुष तब आएगा, जब कामों से उसे तनिक छुट्टी मिलेगी। प्रतीक्षा यहाँ भी नारी का पीछा नहीं छोड़ती। और प्रतीक्षा में रत होने के कारण स्वप्न कुछ और अधिक चंचल हो जाते हैं, भावुकता चिन्तन पर कुछ और अधिक छा जाती है।

और सबसे बड़ी लाचारी तो यह है कि काम–कक्ष में भी इच्छा पुरुष की ही प्रधान होती है। नारी केवल उसकी राह देख सकती है और नर की इच्छा यदि आन्दोलित रह गई, तो नारी उस सुख को भी प्राप्त नहीं कर सकती, जिसका प्रतीक होने के कारण वह कामिनी कहलाती है।

इन सारी परिस्थितियों का स्वाभाविक परिणाम यह होता है कि नारी के भीतर एक प्रकार का आक्रोश उत्पन्न हो जाता है। वह अपनी हार को जीत में बदलने का उपाय सोचने लगती है और प्रत्येक क्षण ऐसे अवसरों की खोज में रहने लगती है, जब वह पुरुष से प्रतिशोध ले सके, उसे नीचा दिखाकर अपने अस्तित्व की महिमा बता सके। पुरुष समझता है कि शाम को वह थका–माँदा बाहर से घर लौटता है, किन्तु दिनभर की प्रतीक्षा से थकी एवं नाना दिवास्वप्नों से पीड़ित पत्नी उसे सुख देने के बदले अनख और तानों से बेधने लगती है। नारी समझती है कि पुरुष उसके पूरे वश में तब होता है, जब वह भोजन कर रहा हो अथवा रात में वह प्रेम की मनोदशा में हो। और इन्हीं अवसरों का लाभ उठाकर पत्नी अप्रिय कथाएँ सुनाने लगती है। पुरुष को यह महसूस कराने लगती है कि उसके मित्र झूठे हैं, उसकी मान्यताएँ गलत हैं और जिन मूल्यों में वह विश्वास करता है, वे फिजूल हैं। और इन कटूक्तियों को भी पुरुष यदि सह गया, तो पत्नी उससे अकारण मुँह फुला लेती है। मुँह फुलाकर पत्नी चाहती है कि पति उसकी खुशामद करे, लेकिन अगर पति की सहनशक्ति समाप्त हो गई और पत्नी की उसने उपेक्षा कर दी, तब पत्नी कराल नागिनी बन जाती है और वह पति पर ऐसे लांछन लगाने लगती है, जो निराधार हैं और पति जिनका जवाब नहीं दे सकता।

कम ही पत्नियाँ ऐसी होंगी, जो विवाह की आरम्भिक वर्षों के बाद पति के प्रति कुछ परुष न हो जाती हों। अकारण रूठना, अकारण रो पड़ना, अकारण गुस्से से ठुमककर इधर–से–उधर चल पड़ना, पति को मानसिक पीड़ा देने के लिए बच्चों को पीटना अथवा नौकरों पर बरस पड़ना और बात–बात में यह दिखाने की कोशिश करना कि खान–पान, वसन–प्रसाधन और जीवन के विभिन्न आनन्दों में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है–ये ऐसे कर्म हैं, जिनके सम्पादन में अनेक पत्नियों को रस आता है। पति को नीचा दिखाने के कितने ही उपाय और भी हैं, जिन्हें सीखना नहीं पड़ता, जो पत्नी–धर्म के स्वाभाविक अंगों के समान आप–से–आप उत्पन्न होते हैं। पति जब सिनेमा चलने को तैयार हो, तब पत्नी काफी विलम्ब किए बिना घर से बाहर नहीं निकलती। पति अपने कक्ष में बैठा पत्नी का इन्तजार कर रहा हो, तब पत्नी को अधिक–से–अधिक विलम्ब करने में अधिक–से–अधिक आनन्द आता है। और पति जब इस स्थिति में गिरफ्तार हो कि पत्नी की राय लिये बिना वह अगला कदम नहीं उठा सकता, तब पत्नी अक्सर राय देने से मुकर जाती है। यह इसलिए नहीं कि देवी के मन में कहने योग्य कोई बात नहीं है, बल्कि इसलिए कि जैसे पुरुष बात–बात में नारी को इन्तजारी में रखता है, वैसे ही अब पत्नी भी उसे इन्तजारी का मजा चखाना चाहती है। पत्नी जब भी विलम्ब से आती है, तब यह संयोग की बात नहीं होती, बल्कि जान–बूझकर किया गया प्रतिशोध का कार्य होता है।

और इन छोटे–मोटे अत्याचारों से पुरुष यदि विचलित नहीं हुआ, तो पत्नी नपुंसक विद्रोह को आँसुओं में व्यक्त करती है, रो–चीखकर पुरुष का धैर्य नष्ट करना चाहती है और बीसियों ऐसे अन्य काम कर डालती है, जिनसे पति का मन खिन्न, पीड़ित अथवा क्षुब्ध हो उठे। काम–वैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि बहुत–सी पत्नियाँ विवाहबाह्य गुप्त सम्बन्धों की ओर इसलिए नहीं झुकतीं कि घर में वे असंतुष्ट रही हैं अथवा वैविध्य का लोभ उन्हें नीचे खींचता है, बल्कि इसलिए कि वे अपने पतियों से प्रतिशोध लेना चाहती हैं, चोरी–चोरी उनकी इच्छा की अवहेलना करके वे अपने अहंकार को दुलराना चाहती हैं। इस प्रकार की कुंठाओं की स्वाभाविक परिणति आत्मघात में हो सकती है। किन्तु सफल आत्मघात करनेवालों में पुरुषों की संख्या अधिक, नारियों की हमेशा कुछ कम रही है। आत्मघात से मिलनेवाली वस्तु नारियों को आत्मघात के अभिनय से ही प्राप्त हो जाती है। मरने का नाटक वे अनेक प्रकार से करती हैं, लेकिन हर बार उनका मनोभाव यही रहता है कि जीवन का संग कहीं छूट न जाए। जिस पुरुष के विरुद्ध वे मरने का स्वाँग रचती हैं, असल में उनका ध्येय उसे मुट्ठी में समेटकर जीना होता है। चाहे पत्नी हो या प्रेमिका, प्राय: हर औरत की ख्वाहिश यही होती है कि पति या प्रेमी की आँचल की खूँट में बाँधकर वह उसे अपनी पीठ पर फेंक दे, जैसे वह चाबियों के गुच्छे को पीठ पर फेंक देती है।

पुरुषों की अपेक्षा नारियाँ कुछ अधिक वायवीय भी होती हैं और उसी परिणाम में, कुछ अधिक स्वार्थी और मिट्टी के कुछ अधिक समीप भी। छोटी–छोटी ऐसी कितनी ही बातें जीवन में घटती रहती हैं, पुरुष जिनकी ओर कभी ध्यान नहीं देता, किन्तु नारियाँ इन्हीं बातों को लेकर काफी आन्दोलित हो उठती हैं। वैसे त्याग के मामले में भी नारी नर से श्रेष्ठ हैय किन्तु कितनी ही अत्यन्त नगण्य वस्तुओं का त्याग करना उससे पार नहीं लगता। पुरुष और नारी की स्वभावगत एक भिन्नता यह भी है कि पुरुष जिस व्यक्ति से घृणा करेगा, उससे वह दूर भागना चाहेगाय किन्तु नारी जिस व्यक्ति से घृणा करती है, उसे वह पास रखकर और अधिक सताना चाहती है। विवाह–विच्छेद का अधिकार अब भारत में भी कानून से उपलब्ध है। जब इस अधिकार का प्रयोग होने लगेगा, लोग देखेंगे कि अनेक पति विवाह तोड़कर भागना चाहेंगे, मगर पत्नियाँ उन्हें भागने नहीं देंगी, क्योंकि भारत में तलाक की कुंजी नारी के हाथ में है और नारी अपने शिकार को पिंजड़े से निकालना नहीं चाहती। जवाहरलाल जी की नारी–भक्ति ने भारत में पुरुषों का सर्वनाश कर दिया है।

और तब भी यह सच है कि ये बुराइयाँ नारी–स्वभाव का कोई मौलिक अंग नहीं हैं। वे विशेष प्रकार की ग्रन्थि अथवा ‘हारमोन’ से नहीं, समाज की उस पद्धति से उत्पन्न होती हैं, जो हजारों साल से एक समान चलती आ रही है। वे लालन–पालन की उस प्रक्रिया का परिणाम हैं, जिसका उद्देश्य बेटी को मानत्व नहीं, नारीत्व से पूर्ण बनाना है। और जिसे हम नारीत्व कहते हैं, वह ब्रह्मा की रचना नहीं, सभ्यता का आविष्कार है। जिस मनुष्य को आरम्भ से ही इस भाव से तैयार किया गया हो कि अपना बोझ उसे आप नहीं उठाना है, संकटों के व्यूह में घुसकर अपनी राह उसे आप नहीं निकालनी है और जीवन में प्रयोग उसे बुद्धि और कर्मठता का नहीं, रूप, आकर्षण, आँसू और विलाप का करना है, उससे बुद्धि और विवेक की आशा ही दुराशा मात्र है।

नारी के आन्तरिक व्यक्तित्व की नींव नपुंसक विद्रोह पर होती है। इसीलिए जब मनोवांछित परिणाम उसे प्राप्त नहीं होते, वह रोने लगती है, अपने शरीर और मन को पीड़ा पहुँचाने लगती है और अपने–आपको नष्ट करने के प्रयास से पति के जीवन को नरक बना देती है। बहुत–सी औरतें पति को चिढ़ाने के लिए एक गंदी साड़ी बड़ी सतर्कता से सँभालकर रखती हैं। जब पति को चिढ़ाना हुआ, वे तुरन्त स्वच्छ साड़ी को बदलकर गंदी साड़ी पहन लेती हैं। पति की अवज्ञा का एक उपाय यह भी है कि पति अगर कोई वस्तु लाकर दे, तो पत्नी उसे अनादरपूर्वक अस्वीकार कर दे। संसार के संघर्षों में भाग लेने का नारी को अवसर नहीं मिलता, अतएव क्षुब्ध होने पर वह जीवन के प्रति पराजय की भावना को स्वीकार कर लेती है। आँसू पत्नियों के सबसे बड़े अस्त्र हैं और शहादत का अभिनय उनका सबसे बड़ा संतोष। और सिसकियाँ सुनकर पति को जब क्रोध आता हो, तब पत्नियों को रोने का मानो एक प्रबल कारण और मिल जाता है।

पुरुष के सम्बन्ध में नारी के मनोभाव बहुत सुस्पष्ट नहीं होते। बचपन से ही वह देखती है कि लड़कों को जितनी स्वाधीनता दी जाती है, उतनी स्वाधीनता उसे नहीं दी जाती। खेलकूद और शारीरिक विकास के जो क्षेत्र लड़कों को उपलब्ध हैं, उन क्षेत्रों में लड़कियों का प्रवेश निषिद्ध समझा जाता है। शारीरिक विकास के स्त्री–चिह्न भी उसे लज्जित करते हैं और ऋतुधर्म का परिणाम यह होता है कि अपने को पुरुष से वह हीन समझने लगती है। समाज का अभी जो ढाँचा है, उसमें पिता के व्यक्तित्व का प्रभाव बहुत प्रमुख है। पिता के सादृश्य से लड़की पुरुष मात्र में त्राता और संरक्षक की झलक देखती है। फिर प्रेम के प्रसंग में आकर वह अपने प्रेमी को देवता समझने लगती है। किन्तु, शीघ्र ही उसे यह विदित हो जाता है कि यह देवता, देवता नहीं, कोई जघन्य जीव है, जिसके अनेक कृत्य लज्जा और ग्लानि उत्पन्न करते हैं। नारी नर को अपने से श्रेष्ठ समझती है और वह उससे अन्तर्मन में कहीं कुछ द्वेष भी पाला करती है। नर पर नारी की श्रद्धा का कारण यह है कि सारा संसार पुरुष के शासन में चलता है और दुनिया में जो भी बड़ी घटनाएँ घटित होती हैं, उनका विधायक पुरुष होता है। और उसके द्वेष का कारण यह है कि वह पुरुष की समता नहीं कर सकती। नारी नर की समानता अनेक क्षेत्रों में कर सकती है, किन्तु शैया में पहुँचकर वह क्या करे? गर्भधारण की तपश्चर्या से वह त्राण कैसे खोजे? फ्रायड ने जो सत्य कह दिया, उसका खंडन कैसे किया जाए? एनाटोमी इज डेस्टिनी, इसे नारी झूठला कैसे सकती है?

एक खास उम्र तक लड़की और लड़के को समान स्वतंत्रता प्राप्त रहती है। किन्तु उसके बाद माँ–बाप और सारा समाज लड़की के मन पर यह भाव बिठाने लगता है कि तू मनुष्य नहीं, नारी है। लड़के के लिए तो सभी रास्ते खुले होते हैं, जिन पर चलकर वह पुरुष और मनुष्य साथ–साथ बनता है, किन्तु लड़की के सामने केवल नारीत्व–साधना का मार्ग रह जाता है और उस राह पर चलकर वह अन्तत: मनुष्य कम, मादा अधिक बन जाती है। विवाह की बड़ाई लोग यह कहकर करते हैं कि वह दो सम–मानवों के मिलन का नाम है। किन्तु अनुभव यह बतलाता है कि विवाह दो मनुष्यों का मिलन नहीं, एक नर और एक मादा का मेल है। विवाह के घेरे का जो महत्त्व मादा समझती है, वही महत्त्व नर नहीं समझ पाता।

पुरुष विवाह अब इसलिए करता है कि अस्थिरता से भरे हुए संसार में उसे स्थिरता का कहीं कोई आधार चाहिए, किन्तु खुद इस आधार से वह बँधना नहीं चाहता। चूल्हे–चैके और शयन–कक्ष का निश्चित प्रबन्ध उसे आश्वस्त बनाता है, किन्तु इस प्रबन्ध से वह मनचाही छूट भी चाहता है। एक जगह बस जाने पर भी भ्रमण की प्रवृत्ति उसे भीतर से आन्दोलित रखती है। घर का महत्त्व मर्द भी खूब समझता है, किन्तु घर उसकी आखिरी मंजिल नहीं है। पुरुष में नवीनता की प्यास होती है, खतरों और विरोधों से टकराने की इच्छा होती है और इन तृषाओं के शमन के उपाय घर में उपलब्ध नहीं होते। एकान्त उसके मन में ऊब उपजाता है और एक ही प्रकार का बँधा जीवन उसे ‘बोर’ कर देता है। किन्तु नारी ऐसे संसार में रहना चाहती है, जो अविचल हो और सातत्य से पूर्ण हो। यह संसार छोटे पैमाने पर उसे अपने ही घर में बसाना पड़ता है। किन्तु मर्द और बच्चे जब इस दुनिया के अनुशासन को नहीं मानते, तब नारी के भीतर कुंठा उत्पन्न होती है, कठोरता और दुर्व्यवहार की प्रवृत्ति बढ़ने लगती है।

विभिन्न कामों में निरत रहने के कारण, अनेक महत्त्वपूर्ण योजनाओं में खोए रहने के कारण, ठोस बातों और ठोस चीजों का अभ्यासी होने के कारण पुरुष यह समझ ही नहीं पाता कि पत्नी के आँसू, उसकी कुढ़न और बदमिजाजी का इलाज क्या है। और चूँकि मर्द इन बातों को ठीक से समझ नहीं पाता, इसलिए औरत और रोती है, और कुढ़ती है, और अधिक विषैली और बदमिजाज हो जाती है। और यह लीला दो–चार या दस–बीस वर्षों में समाप्त नहीं होती, यह सारे जीवनपर्यंत चलती रहती है। विवाह सुनने में बड़ा ही प्यारा नाम है, मगर उसकी तल्खियाँ जब उभरकर ऊपर आती हैं, विवाह से अधिक कुत्सित कोई और कर्म नहीं दीखता। फिर भी पुरुष का स्थान कुछ अधिक सुरक्षित है। विवाह उसके व्यक्तित्व को केवल हानि पहुँचाता है, किन्तु उससे नारी का तो सारा जीवन ही उलझकर व्यथाओं का जाल बन जाता है। पत्नी चीखती है, ‘हाय, तुम्हारी वेदी पर मैंने सारा सर्वस्व चढ़ा दिया और तुम इस बलिदान को समझ भी नहीं पाए!’ और पुरुष मन–ही–मन पछताता है, इस नारी ने तो मुझे चारों ओर से लूट लिया। और इसी चीख–पुकार के साथ दम्पती जीवन–समुद्र में ऊबते–डूबते रहते हैं।

सोचने की बात है कि ये तल्खियाँ आती कहाँ से हैं? नर और नारी में से कौन है, जो उनके लिए अधिक जिम्मेदार है? यह प्रश्न शायद बहुत उपयोगी नहीं है। यहाँ एक को दोषी बताना तो आसान है, दूसरे को क्षमा करना उतना आसान नहीं। आमने–सामने खड़े ये दुश्मन विचित्र प्रकार से लड़ाई लड़ते हैं। वे परस्पर निर्मम प्रहार ही नहीं करते, एक–दूसरे को सुख भी पहुँचाते हैं। और सुखों के आदान–प्रदान के भीतर भी प्रतिशोध और शत्रुता का क्रम अवरुद्ध नहीं होता। पति से प्रतिशोध लेने का तरीका यह भी है कि पत्नी पति की शैया पर जाकर जड़ता का नाट्य करने लगे। विवाह का सतही इलाज कोई नहीं है। वैवाहिक कटुताओं का मूल इस बात में है कि नर उपजीव्य और नारी परोपजीवी है। पत्नी के बिना पति का काम चल जाता है, किन्तु पति के बिना पत्नी निस्सहाय हो जाती है। नारी की आवश्यकता पुरुष इसलिए अनुभव करता है कि वह गृहस्थी, वंशवृद्धि और आमोद चाहता है। किन्तु नारी नर की कामना इसलिए करती है कि उसके बिना नारी की मानवीय प्रतिष्ठा सिद्ध नहीं होती, समाज में उसे स्थायित्व और गौरव प्राप्त नहीं होता। नर के लिए नारी आनन्द है, सुषमा है, शोभा और श्रृंगार है। किन्तु नारी के लिए नर इससे कहीं अधिक ठोस वास्तविकता का प्रतीक है। वह उससे भोजन, वस्त्र और आवास पाती हैय जीवन के विविध आनन्द, संतति और सम्मान प्राप्त करती है। और ये सारी वस्तुएँ उसे इसलिए मिलती हैं कि उसका कामिनी–रूप नर को पसन्द है।

नारी का यह कामिनी–रूप साथ–साथ शाप भी है और वरदान भी। वरदान वह इसलिए है कि नारी का यही रूप पुरुष को नारी के चरणों पर झुकाता है। और शाप वह इस कारण है कि जब तक नारी अपने कामिनी–रूप को आगे करके रोटी और सम्मान पाती है, तब तक उसे वह आत्मगौरव नहीं मिलेगा, जिसकी वह भूखी हैय तब तक उसे वह स्वाधीनता भी नहीं मिलेगी, जिसके लिए नारियाँ बड़े–बड़े आन्दोलन चला रही हैं। किन्तु नारी–स्वाधीनता के आन्दोलन से नारियों को प्राप्त क्या हुआ? पत्नियाँ जब मर्दानी औरतें बनकर स्वाधीनता की ओर बढ़ीं, उनके पति उनके सामने से भाग गए। वे या तो समलैंगिक बन गए या उन औरतों के पास जाने लगे जिनके साथ उनकी मर्दानगी कायम रहती थी। अब स्वाधीन नारियाँ घबराकर सोचने लगी हैं कि उनकी तथाकथित पराधीनता में ही कोई स्वाद था, जिसे स्वतंत्र होकर उन्होंने गँवा दिया है।

स्वाधीनता का वास्तविक अर्थ आर्थिक स्वाधीनता ही होती है। जब तक कामिनी–रूप को तटस्थ रखकर नारियाँ अपनी जीविका कमाने के योग्य नहीं हो जातीं, वे पराधीन ही रहेंगी और स्वतंत्र होकर वे उस अद्भुत स्वाद को अवश्य खो देंगी, जो उन्हें पराधीनता में सुलभ है।

किन्तु रोजी कमाने के क्रम में नारियाँ क्या अपने कामिनी–रूप को तटस्थ रख सकती है? सम्भव है, आगे चलकर यह गुण भी उनमें विकसित हो जाए। किन्तु अब तक जो कुछ देखने में आया है, उससे आशा को बल नहीं मिलता। दफ्तरों में काम करनेवाली देवियाँ अक्सर तरक्की पाने या अपने अधिकार बढ़ाने की लालसा में यथेष्ट बौद्धिक क्षमता के होते हुए भी शारीरिक आकर्षण का प्रयोग करने से नहीं चूकतीं। और कला की जो पुजारिनें मंच पर आती हैं, उन्हें भी कला से उपलब्ध कीर्ति से संतोष नहीं होता। वे किसी अन्य सिद्धि के लोभ में अपना विज्ञापन करने लगती हैं।

प्रेम की छोटी–बड़ी, किसी प्रकार की भी लीला के लिए केवल नारी को दोषी मानना बिलकुल हास्यास्पद बात है। किन्तु नारी के सामने सवाल उसकी आजादी का है और यह आजादी अभी उसे पुरुष के विरुद्ध ही हासिल करनी है। किन्तु जिसके विरुद्ध यह संग्राम है, नारी उसी पर आसक्त हो जाती है, क्योंकि प्रकृति की यही इच्छा है, नियति का यही विधान है। जीवन–शकट को आगे ले चलने का कार्य नर और नारी–दोनों को करना है। किन्तु प्रकृति ने उनकी रचना केवल संघर्ष के लिए ही नहीं, एक–दूसरे को प्यार करने के लिए भी की है। रक्त और मांस की पुकार नारी में नर से अधिक तीव्र नहीं होती, किन्तु कर्मठता के कोलाहल से दूर रहने के कारण नारी इस प्रकार की मद्धिम–से–मद्धिम आवाज को भी अनायास सुन लेती है। समाज ने उसका विकास मानव–रूप में कम, जीव के रूप में अधिक किया है। अतएव जैव प्रेरणाओं की अवज्ञा वह आसानी से नहीं कर सकती।

तब भी यह उचित है कि नारियों की आर्थिक स्वतंत्रता, जैसे भी हो, सम्भव बनाई जाए। अभी जो स्थिति है, वह काफी भयानक और कष्टपूर्ण है। कहने को हर पति अपनी पत्नी को रानी कहता हैय किन्तु आर्थिक पराधीनता के कारण पत्नी मन–ही–मन खूब समझती है कि रानी उसका ऊपरी नाम है। असल में वह पुरुष की रानी नहीं, सेविका है, इच्छाओं की दासी और काम की गुलाम है। कहने को तो यह भी कहा जाता है कि पति और पत्नी के बीच सम्बन्ध वही होना चाहिए, जो आत्मा और शरीर के बीच हैय किन्तु सच्चाई यह है कि आत्मा जब अलग होती है, तब लाश दो नहीं, एक ही रह जाती है। नारी को पराधीन बनाकर पुरुष ने अपने लिए संकट खड़ा कर लिया है। नारी को स्वतंत्रता देकर वह खुद स्वाधीन हो जाएगा। और नारी की स्वतंत्रता तब तक आ ही नहीं सकती, जब तक वह परोपजीवी है, वृक्ष के कन्धों पर लटकती हुई वल्लरी है, जो वृक्ष का रस चूसे बिना जीवित नहीं रह सकती। यह सत्य है कि नारी की परोपजीविता उन्मूलित हुई, तो हजारों साल से आते हुए नैतिक मूल्य आप–से–आप उन्मूलित हो जाएँगे। किन्तु मुझे तो यह भी दिखाई देता है कि वर्तमान पद्धति के कायम रहने से एक दिन वह भी आनेवाला है, जब विवाह में वे ही लोग फँसेंगे, जो आजीवन तपस्या करने अथवा पंचधुनी तापने को तैयार हों।

('विवाह की मुसीबतें' पुस्तक से) 

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विवाह की मुसीबतें
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विवाह की मुसीबतें यह पुस्तक राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के चिन्तनपूर्ण, लोकोपयोगी निबन्धों का श्रेष्ठ संकलन है। दिनकर जी के चिन्तन-स्वरूप का विस्मयकारी साक्षात्कार करानेवाले ये निबन्ध पाठक के ज्ञान-क्षितिज का विस्तार भी करते हैं। इन निबन्धों में जहाँ एक ओर विवाह, प्रेम, काम, नैतिकता और शिक्षा जैसे विषयों पर विद्वान कृतिकार का सन्तुलित दृष्टिकोण उद्घाटित होता है, वहीं दूसरी ओर लोकतंत्र, धर्म और विज्ञान तथा मूल्य-ह्रास जैसे ज्वलन्त प्रश्नों पर उनकी प्रगतिशील दृष्टि मार्गदर्शक की भूमिका निभाती है।
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