दुर्गावती जब रण में निकली, हाथों में थी तलवारें दो।
धरती कांपी आकाश हिला, जब चलने लगीं तलवारें दो।।
अदम्य साहस और शौर्य की प्रतीक, रण में मुगलों के छक्के छुड़ाने वाली महान वीरांगना, गोंडवाना की रानी 'रानी दुर्गावती' की जयंती पर उन्हें
कोटि कोटि नमन
महारानी दुर्गावती कालिंजर के राजा कीर्तिसिंह चंदेल की एकमात्र संतान थीं।महोबा के राठ गांव में 1524 की दुर्गाष्टमी को जन्मी,अत: नाम दुर्गावती रखा गया।नाम के अनुरूप ही तेज,साहस, शौर्य से इनकी प्रसिद्धि सब ओर फैल गयी।
उनका विवाह गढ़ मंडला के प्रतापी राजा संग्रामशाह के पुत्र राजकुमार दलपतशाह से हुआ.इस 35,000गांवों व52गढ़ वाले गोंड साम्राज्य का क्षेत्रफल 67,500 वर्गमील था।पर दुर्भाग्यवश विवाह के चार वर्ष बाद ही राजा दलपतशाह का निधन हो गया।उस समय दुर्गावती की गोद में तीन वर्षीय नारायण ही था।अतः रानी ने स्वयं ही गढ़ मंडला का शासन संभाल लिया।
उन्होंने अनेक मंदिर,मठ, कुएं,बावड़ी धर्मशालाएं बनवाईं।वर्तमान जबलपुर उनके राज्य का केन्द्र था। उन्होंने अपनी दासी के नाम पर चेरीताल,अपने नाम पर रानीताल तथा अपने विश्वस्त दीवान आधारसिंह के नाम पर आधारताल बनवाया।रानी दुर्गावती का यह सुखी और सम्पन्न राज्य उनके देवर सहित कई लोगों की आंखों में चुभ रहा था।मालवा के मुसलमान शासक बाज बहादुर ने कई बार हमला किया;हर बार हार गया।
मुगल शासक अकबर भी राज्य को जीतकर रानी को अपने हरम में डालना चाहता था।उसने विवाद प्रारम्भ करने हेतु रानी के प्रिय सफेद हाथी(सरमन) और उनके विश्वस्त वजीर आधारसिंह को भेंट के रूप में अपने पास भेजने को कहा।रानी ने यह मांग ठुकरा दी।इस पर अकबर ने अपने रिश्तेदार आसफ खां के नेतृत्व में सेनाएं भेज दीं।एक बार तो आसफ खां पराजित हुआ; पर अगली बार उसने दुगनी सेना और तैयारी के साथ हमला बोला।दुर्गावती के पास उस समय बहुत कम सैनिक थे।उन्होंने जबलपुर के पास नरई नाले के किनारे मोर्चा लगाया तथा स्वयं पुरुष वेश में युद्ध का नेतृत्व किया।इस युद्ध में 3,000मुगल सैनिक मारे गये।रानी की भी अपार क्षति हुई।रानी उसी दिन अंतिम निर्णय कर लेना चाहती थीं.अतःभागती हुई मुगल सेना का पीछा करते हुए वे उस दुर्गम क्षेत्र से बाहर निकल गयीं।तब तक रात घिर आयी।वर्षा होने से नाले में पानी भी भर गया।
अगले दिन 24जून 1564 को मुगल सेना ने फिर हमला बोला। आज रानी का पक्ष दुर्बल था।अतः रानी ने अपने पुत्र नारायण को सुरक्षित स्थान पर भेज दिया. तभी एक तीर उनकी भुजा में लगा।रानी ने उसे निकाल फेंका।दूसरे तीर ने उनकी आंख को बेध दिया।रानी ने इसे भी निकाला;पर उसकी नोक आंख में ही रह गयी।तभी तीसरा तीर उनकी गर्दन में आकर धंस गया।रानी ने अंत समय निकट जानकर वजीर आधार सिंह से आग्रह किया कि वह अपनी तलवार से उनकी गर्दन काट दे;वो तैयार नहीं हुआ।तब रानी अपनी कटार को स्वयं ही अपने सीने में भोंककर आत्म बलिदान के पथ पर बढ़ गयीं।गढ़मंडला की इस जीत से अकबर को प्रचुर धन की प्राप्ति हुई।उसका ढहता हुआ साम्राज्य फिर से जम गया।इस धन से ही तीन बार चित्तौड़ पर हमला किया था।
जबलपुर के पास जहां यह ऐतिहासिक युद्ध हुआ था,वहां रानी की समाधि बनी है।आज भी देशप्रेमी वहां पर जाकर अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते है