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सहज ज्योतिष

14 नवम्बर 2022

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सहज ज्योतिष

सु-योग, राजयोग व धनयोग

डॉ आशा चौधरी


                      परम पूज्य मामाजी स्व श्री भैरवप्रसादजी ओझा

                                        तथा गुरूदेव स्व.
                                   श्री व्यासजी को समर्पित।


अनुक्रम

भूमिकाः

1- भारतीय ज्योतिष के मौलिक आधारः

2- कर्मवाद की अवधारणा-

3- ज्योतिष एवं पुरूषार्थ-

4- ज्योर्तिविद्या तथा खगोल विद्या की प्राचीनता-

5- जन्म कुंडली तथा द्वादश भाव परिचय-

6- कुंडली के प्रकार-

7- चंद्र कुंडली-

8- नवमांश कुंडली-

9- द्वादशांश कुंडली-

10- राशिचक्र व राशि प्रसंग-

11- ज्योतिष में राशि का प्रयोजन-

12- राशि स्वामी-

13- राशियां तथा अंग-निर्धारण-

14- जन्म कुंडली के सब भावों के कारक ग्रह-

15- जन्म कुंडली से शरीर का विचार-

16- लग्न से शारीरिक स्थिति ज्ञात करने के नियम-

17- जन्म कुंडली बांचने के कुछ अनिवार्य नियम-

18- ग्रहों की उच्च तथा नीच राशियां-

19- उच्च राशिगत ग्रहों के फल-

20- नीच राशिगत ग्रहों केफल-

21- स्वक्षेत्र गत ग्रहों के फल-

22- मित्र क्षेत्री ग्रह के फल-

23- शत्रु क्षेत्री ग्रहों के फल-

24- तात्कालिक मित्रता संबंधी विचार-

25- मूल त्रिकोण राशि में बैठे ग्रह के फल-

26- अकेले ग्रह के फल तथा स्थान बल-

27- ग्रहों का दशा विचार-

28- ग्रहों की दृष्टि का विचार-

29- नवग्रहों केगृह, भावअथवा स्थान-

30- ग्रहों की मैत्री-

31- ग्रहों की तात्कालिक मित्रता-शत्रुता-

32- पंचधा मैत्री विचार-

33- जन्मकुं डली में ग्रहों के कुछ सु-योग-

34- जन्म कुंडली में राजयोग-

35- सौभाग्यकारी योग-

36- धन योग या धन विचार-

37- आपकी कुंडली में धनयोग-

38- अचानक धनलाभ के योग-

39- ससुराल से धनलाभ-

40- अन्यान्य धनयोग-

41- धनहीनता के कुछ योग-

42- कुंडली के बारह भावों में धनयोग-

43- सौभाग्य की चाबी,
44- स्वकर्म-

45- ठगों से सावधान-

46- ज्योतिष है सचेतक-

47- पुनश्चःः-

संदर्भःः

संदर्भ ग्रंथ-

भूमिकाः

भारतीय ज्योतिष का मुख्य लक्ष्य रहा है आत्म-कल्याण तथा इस आत्म-कल्याण के साथ ही साथ लोक व्यवहार का निर्वहन करना। लोक व्यवहार के निर्वहन के लिये ज्योतिष के दो क्रियात्मक सिद्धांत बताए गए हैं

1-गणित तथा

2-फलित।

यहां इस पुस्तक में मेरा लक्ष्य गणित के सिद्धांतों को समझाना न हो कर भारतीय ज्योतिष के फलित पक्ष पर ही केंद्रित है। इसके फलित पक्ष से ही आम आदमी का प्रायः सरोकार रहता है अतः इसे ही मैंने इस पुस्तक में अपने अध्ययन का केंद्र बिंदु बनाया है।

ज्योतिष एक ऐसा विषय है कि आधुनिक युग में भी जिसके बारे में प्रायः हर कोई कुछ न कुछ पढ़ना-जानना चाहता है। मैंने भारतीय ज्योतिष को इसके सामान्य व आवश्यक सिद्धांतों सहित, सामान्य पाठकों के लिये आसान बनाते हुए यह पुस्तक सरल हिंदी भाषा में इस प्रकार तैयार की है कि ज्योतिष की भारी-भरकम जानकारी न रखने वाला पाठक वर्ग भी आसानी से ज्योतिष समझते हुए अपनी वअपने सामने प्रस्तुत किसी जन्म कुंडली के किन्हीं सौभाग्यकारी योगों को पढ़ने-समझने में सक्षम हो सकेगा।

यह शास्त्र इतना विशाल है कि मैं इस विशाल सागर से इसकी मात्र एक बूंद का हीअध्ययन कर पाई हूं। अतः अपने इस अध्ययन को सुधीजनों, विद्वजनों के हाथों में सौंपते हुए उनसे हार्दिक प्रार्थना करती हूं कि मेरे इस प्रयास में होने वाली गल्तियों के लिये मुझे संभव हो तो सूचित अवश्य करें।

डॉ आशा चौधरी

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1- भारतीय ज्योतिष के मौलिक आधारः

भारतीय ज्योतिष हमारे वैदिक ऋषियों की देन है जिन्होंने योग विद्या व अपनी सूक्ष्म प्रज्ञा के बल पर आंतरिक तौर पर अपने शरीर के भीतर ही संपूर्ण सौर मंडल का साक्षात किया तथा अपने इस निरीक्षण के आधार पर इस सौर मंडल का परिपूर्ण ज्ञान अर्जित कर इसे मानव के लिये उपयोगी बनाया। कहा जाता कि चूंकि योग विद्याअत्यंत प्राचीन है अतः योग दर्शन सांकेतिक रूप से भारतीय ज्योतिष का मूल है। ऋषि अपनी योग विद्या के बल पर अतीत-वर्तमान व भविष्य के दर्शन करने में सक्षम होते थे। अतः ऐसा माना जाता है कि इन प्राचीन से प्राचीनतम ऋषियों ने ही, महर्षि पतंजलि के भी पूर्व के इन आचार्यों ने ही भारतीय ज्योतिष की स्थापना की।

ऋग्वेद जो कि भारत की ही नहीं बल्कि विश्व की प्रथम पुस्तक मानी जाती है, इसके तथा शतपथ ब्राह्मण नामक प्राचीन भारतीय ग्रंथ के अध्ययन सेइ स बारे में उल्लेखनीय सूत्र उपलब्ध होते हैं कि हमारे ही देश में अत्यंत प्राचीन काल से ही खगोल विद्या तथा ज्योतिष शास्त्र की रचना की जा चुकी थी। हमारे पूर्वज खगोल तथा ज्योतिष शास्त्र के पूर्ण ज्ञाता थे। वे नक्षत्रों, ग्रहों आदि से पूर्ण परिचित थे।

वेदों में इस बात के अनेक उल्लेख पाए जाते हैं कि किस नक्षत्र में ज्योति है किसकी क्या गति है आदि आदि। इसे ज्योतिष नाम दिये जाने के पीछे यह विचार है कि वे आकाश को अनेकानेक ज्योर्तिपुंजों से भरा देख कर आनंदित व साथ ही साथ भयभीत भी होते थे। अतः इसके अध्ययन को ज्योतिषशास्त्र के नाम से अभिहित किया गया। ज्योतिषां सूर्यादिग्रहाणां बोधकं शास्त्रम्  इस सूक्त में ज्योतिष शास्त्र के लिये अभिहित किया गया है कि सूर्य आदि अन्य ग्रहों का तथा इनकी गति आदि का, काल आदि का बोध कराने वाला शास्त्र ही ज्योतिष शास्त्र है।

भारतीय वांगमय के प्रायः प्रत्येक पक्ष के पीछे दर्शनशास्त्र इसकी नींव के रूप में अवस्थित है। यह बात भारतीय ज्योतिष पर भी लागू होती है। भारतीय दर्शन में आत्मा को अजर-अमर माना गया है। यह अनश्वर है। यह कभी नाश को प्राप्त नहीं होती। इसी मूल भारतीय दार्शनिक सिद्धांत केअनुसार यह सिद्धांत निकला है कि यह अविनाशीआत्म-तत्व जो कि नित्य तथा सर्वथा चैतन्य है अपने अज्ञान के कारण स्वयं को बंधन ग्रस्त समझने लगता है। अज्ञान का आवरण इस पर इस प्रकार पड़ता है कि यह स्वयं को उस अनंत परम ब्रह्म से परे तथा वैनाशिक समझते हुए अपने कर्मों के अनुसार पुनः पुनः इसी लोक में चक्कर लगाते रहने को अभिशप्त रहता है। यानि अविद्या से ग्रस्त आत्मा अपनी अविद्या का नाश होने तक इस जन्म से उस जन्म तक डोलता रहता है। इसे आत्मा के आवागमन का सिद्धांत,
पुनर्जन्म का सिद्धांत आदि के रूप में जाना जाता है।

2- कर्मवाद की अवधारणा-

ये थोड़ा सा भारतीय दर्शन का जिक्र यहां इसलिये आवश्यक है कि भारतीय दर्शन की बात किये बिना हम ज्योतिष के क्षेत्र में नहीं प्रवेश कर सकते। भारतीय दर्शन कहता है कि मानव कर्म के तीन प्रकार होते हैं।

1-संचित कर्म,

2-प्रारब्ध कर्म,
तथा

3-क्रियमाण कर्म।

-पूर्व जन्म या जन्मों का हमारे द्वारा किया गया कर्म संचित कर्म कहलाता है। समझिये कियह एक फिक्स्ड अकाउंट है जो हम कभी खोल आए हैं। मगर यह अभी तक संचित है। इसके फल मिलनेअभी आरंभ नहीं हुए हैं। इन कर्मो के फलों कोअपने सत्कर्मों से बदलना संभव है ऐसा आचार्र्यों ने माना है।

-इस संचित कर्म में  जितना कर्मफल भोगनाआरंभ हो चुका है वह प्रारब्ध कहलाता है। इसे यूं समझिये किआपके इस संचित फिक्स्ड अकाउंट में सारी रकम अभी जमा है जिसकी केवल कुछ निर्धारित रकम पर आपको नियमानुसार ब्याज मिलना आरंभ हो चुका है। वह राशि मैच्योर हो चुकी है जो किआपको मिलकर ही रहेगी। यही प्रारब्ध है। सारे के सारे संचि तकर्म को प्रारब्ध नहीं कहा जाता बल्कि इसके केवल उतने को ही प्रारब्ध कहते हैं जितने का फलभोग आरंभ हो चुका है।

-हम अभी इस जन्म मेंजो भी कर्म कर रहे हैं वह क्रियमाण कर्म कहलाता है। अर्थात्ह हमने पहले से ही संचित तो कर ही रखा है, इस जीवन में और संचित जो कर रहे हैं वह क्रियमाण कर्म है। जाहिर है कि इसका फल कभी न कभी अवश्य मिलेगा, इन्हें भी अपने सत्कर्मों के बल पर परिवर्तित किया जा सकता है ऐसी मान्यता है।

भारतीय ज्योतिष में यह कर्म सिद्धांत बेहद महत्व रखता है। यदि हमारी इस कर्मवाद पर आस्था नहीं तो हम ज्योतिष पर भीआस्था नहीं रख सकते।

यहां बताना चाहूंगी कि कर्मवाद का सिद्धांत भाग्यवाद नहीं है बल्कि ये सिद्धांत तो हमें यह बतलाता है कि यदि हम कर्म श्रेष्ठ करेंगे तो हमारा अगला जीवन सुधार सकते हैं। यानि कर्मवाद हमारे श्रेष्ठ जीवन की गारंटी ही है। प्रायः अनेक बार पूजा-पाठ व कर्मकांड से इन कर्मों का तात्पर्य लिया जाता देखती हूं। हां दान, जप-तप व श्रेष्ठआचरण कर्म के सर्वोत्कृष्ट प्रकार कहे जा सकते हैं किंतु निर्बल, असहाय की मदद न करके केवल दान,जप-तपआदि से वो फल हांसिल नहीं किया जा सकता जिससे पूर्व कर्मों के पाप शांत हों तथा परमशांति की प्राप्ति हो।

नैतिकता केअंर्तगत स्नेह-प्रेम, दया-करूणा व निःस्वार्थ भाव से किया गया शुद्ध सात्विक कर्म ही मानव को उसके अभीष्ट की प्राप्ति करा सकता है। इसके लिये गंगा-जमुना में डुबकी लगाना, पूरे ताम-झाम से विभिन्न पूजा-पाठ आदि कराना, वास्तविक जरूरतमंद की वास्तविक मदद न करके केवल विप्र की झोली में दक्षिणा डालना, और फिर उतने ही निषिद्ध कर्म करते जाना जातक को किस प्रकार दुख से मुक्त कर सकता है वही जाने ! शास्त्रोक्त विधि में आरंभ में इस सबका कहीं कोई प्रावधान नहीं था। धीरे धीरे ये अंधविश्वास बनता चला गया जिसके कारण आज भी हम पवित्र कही जाने वाली नदियों को मैली करने से बाज नहीं आ रहे और परिणाम ये है कि हमारे मन में पाप की कालिमा ज्यौं की त्यौं बनी हुई है। इसीका असर है कि भरपूर पैसा व सुख-सुविधाऐं होने के बाद भी मानव मन आज जितना अशांत है उतना कभी नहीं था।

कर्मवाद को ईश्वरवादियों ने ईश्वरीय शक्ति से संचालित माना है किंतु जो ईश्वर आदि में आस्था नहीं रखते कर्मवाद को वे भी मानते है। क्योंकि यह एक वैज्ञानिक व प्राकृतिक नियम हैजो विज्ञान में स्वयं संचालित कहा गया है।

कर्मवाद का सिद्धांत बतलाता है कि यदि हमेंअपने जीवन में सुख-शांति पाना है तो स्व-कर्म ही वह डोर है जिसके सहारे हम इस भवसागर को पार कर सकते हैं। स्व-कर्म ही हैं जिनके माध्यम से हमअपने जीवन में काफी कुछ सुधार ला सकते हैं। किसीऔर के करने से नहीं वरन श्रेष्ठ स्व-कर्मों से ही हमारा मनवांछित हित संभव है। खैर,

यदि जन्म कुंडली देखने वाला अनुभवी तथा ज्ञाता है तो ग्रहों के विवरण पर एक नजर डालक र ही जान सकता है कि हम पिछले जीवन में क्या, कितनाऔर कैसे संचित करआए हैं तथा आगे क्या-क्या पाऐंगे।

3- ज्योतिष एवं पुरूषार्थ -

प्राचीन आचार्यों ने अपनी किसी भी विद्या को केवल स्वयं के निमित्त विकसित नहीं किया। उनके लगभग हरअध्ययन के पीछे, आत्म-कल्याण के साथ-साथ जन-कल्याण ही प्रमुख रूप से मौजूद रहा है। जिसके कारण इसके फलित व गणित दोनों भेदों के साथ ही साथ सिद्धांत का भी विकास हुआ।

इसमें माना गया है कि ग्रह वास्तव में किसी जातक को फल-कुफल देने के निर्धारक नहीं हैं बल्कि वे इसके सूचक अवश्य कहे जा सकते हैं। यानि ग्रह किसी मानव को सुख-दुख, लाभ-हानि नहीं पहुंचाते वरन वे मानव कोआगे आने वाले सुख-दुख, हानि-लाभ व बाधाओं आदि के बारे में सूचना अवश्य देते हैं। मानव के कर्म ही उसके सुख वदुख के कारक कहे गए हैं। ग्रहों की दृष्टि मानो टॉर्चलाइट की तरह आती है कि अब तुम्हारे कैसे-कौन प्रकार के कर्मों के फल मिलने का समय आ रहा है। अतः मेरी नजर में ज्योतिष के ज्ञान का उपयोग यही है कि ग्रहों आदि से लगने वाले भावी अनुमान केआधार पर मानव सजग रहे। अगर कोई कठिनाईआने ही वाली है तो उसके लिये मानसिक व आर्थिक आदि अन्य प्रकारों से तैयार रहने व बचाव के प्रयासों से उसकाअसर कम हो हीजाता है।अधिक दुख को कम दुख में तथा कम सुख कोअधिक सुख में बदलना तब संभव हो जाता है।

यह ध्यान रखना अत्यंत जरूरी है कि केवल ग्रह फल-भोग ही जीवन होता तो फिर मानव के पुरूषार्थ के कोई मायने नहीं थे, तब इस शब्द का अस्तित्व ही न आया होता। हमारे आचार्य मानते थे कि पुरूषार्थ से अदृष्ट के दुष्प्रभाव कम किये जा सकते हैं, उन्हें टाला जा सकता है। इसीलिये वे भविष्य वाचन करते थे ताकि मानव सावधान हो कर कर्म करे। उनका मत था कि अदृष्ट वहीं अत्यंत प्रबल होता है जहां पुरूषार्थ निम्न होता है। ऐसे में अदृष्ट का फलाफल भोगना ही पड़ता है।

जब अदृष्ट के भय वश, किन्हीं विपरीत परिस्थितियों में मानव का पुरूषार्थ पक्ष कमजोर पड़ जाता है तोअदृष्ट जीत जाता हैऔर मानव को उसके फल भोगने ही पड़ते हैं। इसकेविपरीत जबअदृष्ट पर मानव प्रयासव पुरूषार्थ भारी पड़ जाते हैं तो अदृष्ट को हारना पड़ता है। यह दुनिया ऐसे अनेकानेक उदाहरणों से भरी पड़ी है।

प्राचीन आचार्यों के अभिमत के आगे शीश झुकाते हुए, उनकेअभिमत को स्वीकारते हुए अपने पूज्य गुरूजी की ही तरह मेरा भी यही मानना है कि ज्योतिष विद्या से हमें आने वाले समय की, शुभ-अशुभ की पूर्व सूचना मिलती है जिसका हम सदुपयोग कर सकते हैं। हाथ पर हाथ धरकर बैठने की हमें कोई आवश्यकता नहीं किसब कुछअपने आप ही अच्छा या बुरा हो जाऐगा। यह कोई विधान रचने वाला शास्त्र नहीं कि बस् अमुक घटना होकर ही रहेगी, बल्कि यह तो सूचना देने वाला एक शास्त्र है ! जैसे मौसम विज्ञान सूचनादे ता है,
वे जब सही निकलती हैं तो बचाव हो जाता है। कई बार कि जब वे सही नहीं निकलतीं तो भी सावधानी बरतने से कोई हानि तो नहीं होती।

हां,

यह बिल्कुल सच और एक प्राचीनतम विद्या के संदर्भ मेंअत्यंत दुखद भी है कि एक समय ऐसा भी आया कि जब यह विद्या अनाड़ियों, अर्ध कुशल हाथों में पड़कर अंधविश्वास का आगार समझी जाने लगी जिससे जनमानस में इसकी छबि खराब बनी। इस विद्या को सम्मान दिये बिना, केवल अपना पेट पालने के निमित्त इसे अपनाने वाले पेशेवर वर्ग के लालचियों द्वारा इसके जो दुरूपयोग हुए वे किसीसे छुपे नहीं हैं। एकअच्छे-भले, विकसित विज्ञान को अंधविश्वास,
कुरीतियों आदि के आगार के रूप में प्रस्तुत किया जाने से फिर कोई रोक न पाया।

किंतु इसमें कोई दो मत नहीं कि यह गणित से जुड़ी एक वह विद्या है जो यदि इसके सिद्धांतों को सही तौर पर समझ कर अपनाई जाए तो वास्तविक गणनाओं केआधार पर इससे सत्य का निरूपण होना पूरी तरह संभव है। यूं तो यह विद्या अत्यंत विस्तृत है किंतु इसमें फलित ज्ञान के संदर्भ में इसके कुछ मूल सिद्धांतों का जिक्र किया गया है जो निम्नानुसार कहे गए हैं - जैसे,

तिथि, नक्षत्र, योग, करण, वार तथा राशियां, ग्रह तथा उनका संचरण, उनके परिभ्रमण आदि के अनुसार जातक के जीवन में आने वाले प्रभावों के बारे में फल-निरूपण किया जाना इसके अंर्तगत शामिल है।

4- ज्योर्तिविद्या तथा खगोलविद्या की प्राचीनता-

वैसे यह बताना बेहद मुश्किल है कि इस विद्या का भारत में कब चलन हुआ किंतु इतना अवश्य है कियह विद्याअत्यंत ही प्राचीन है। हमारे आदिकालीन पूर्वजों को इसके बारे में काफी कुछ ज्ञान था जिसे वे अपनी आने वाली पीढ़ियों में सहज ही स्थांतरित करते गए। इस प्रकार इस विद्या का विकास, संशोधन व परिवर्धन आवश्यकअंतराल पर होता गया।

ऐसा समझा जाता है कि प्रागैतिहासिक मानव ने सूर्य, चंद्रआदि को देव समझ कर इनकी स्तुति की होगी। इसके प्रमाण हमें वेदों में इन्हें देवताओं के रूप में बतलाए जाने संबंधी अनेक उदाहरणों में मिलते हैं। वेदों में इनकी स्तुति में अनेक मंत्र उपलब्ध हैं। हमारे ऋषि-मुनिजन अत्यंत प्राचीन काल से ही ग्रहों-नक्षत्रों के बारे में लगभग समस्त ज्ञान अर्जित कर चुके थे। भारतीय ज्योतिष में उन्हें इतना महारत हांसिल रहा था कि वे जातक की आंखों व माथेआदि से ही उसकी राशि, नक्षत्र व सूर्य-चंद्र आदि अनेक ग्रहों की स्थिति का पता लगा कर फल बता दिया करते थे। .ऋग्वैदिक काल से शुरू होकर वैदिक काल में यह ज्ञानअपने चरम पर था। यह बातऔर है कि इस ज्ञान की साहित्यिक अभिव्यक्ति के लिये कुछ इंतजार करना पड़ा।

विश्व में जब न्यूटन ने अपना पृथ्वी कीआकर्षण शक्ति का सिद्धांत दिया उसके काफी पहले ही हमारे
‘आर्चाय भास्काराचार्य अपने सिद्धांतशिरोमणि’1 नामक दुर्लभ ग्रंथ में कहते हैं-

आकृष्टशक्तिश्च महीतया यत् स्वस्थंगुरू स्वामिमुखं स्वशक्त्या।

आकृश्यते  तत्पतीतिभाति समे समन्तात् क्व पतत्वियं खे।।

अर्थात्

इस पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है जिससे यह अपने इर्द-गिर्द के समस्त पदार्थों को अपने पास खींच लेने की शक्ति रखती है। इसके गोल आकार के बारे में भी वे पूरी तरह जानकारी रखते थे। बहुत आश्चर्य होता है यह जानकर कि उस काल में उन्होंने बिना किसी दूरबीन आदि के पृथ्वी के बारे में लगभग सारा ज्ञान प्राप्त कर लिया था जिसे वे अपने ज्योतिषीय ज्ञान में प्रयोग करके वास्तविक फल-निरूपण किया करते थे।आगे चल कर यूनान तथा बेबीलोनिया के संपर्क में आने पर इस फलित तथा गणित दोनों ही प्रकार की भारतीय विद्याओं में अनेक नवीन बातों के समावेश से भारतीय ज्ञान में वृद्धि हुई किंतु इसके मौलिक तत्व यथावत बने रहे।

आदि काल अर्थात ईसा पूर्व पांच सौ साल से ईसा के बाद का पांच सौ सालों तक का वह समय है कि जब इस विद्या में लगभग समस्त सिद्धांत अपने सहज रूप मेंआ चुके थे। अब सिर्फ इनका विकास बाकी था जोआने वाले युगों में यानि ब्राह्मण ग्रंथों के समय से ले करआरण्यकों अर्थात उपनिषदों के विकसित होने के दौरान हुआ। इस काल में इस विद्या में निखारआया। इसके बाद इस विद्या ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। समय समय पर इसमें परिशुद्धि व संशोधन होते रहे।

ऋग्वेद में एक स्थल पर चक्र शब्द की चर्चा आई है जिससे राशि चक्र का ही संज्ञान लिया जाता है। इसमें उल्लेख आया है-द्वादशारम् नहि तज्जराय  [ऋक् संहिता-1,164,11] अर्थात यहां द्वादशारम्का तात्पर्य द्वादश राशियों से लिया जा रहा है। उक्त मंत्र में एक साल के 360 दिनों की चर्चा है जो कि बारह राशियों केअनुसार ठीक-ठीक प्राप्त होती है। निश्चय ही आदि कालीन भारतीय विद्वानों को आकाश के रहस्यों को जानने का शौक था और वे इसअपने शौक को पूरे प्रामाणिक आधारों पर पूरा किया करते थे।

यहां मैं इस बात का पुनः जिक्र करना चाहूंगी कि इस विद्या का मूल वस्तुतः भारत ही को सिद्ध करने वाले विद्वानों की कोई कमी नहीं है। यह बात और है कि भारत देश में बहुत कुछ बाहर से आयातित होता आया है, इस पश्चिमी मान्यता के समर्थकों की भी कोई कमी नहीं है किंतु यह जानना बेहदअच्छी, सुखद तथा गौरवपूर्ण अनुभूति देता है कि ऋग्वेद तथा शतपथ ब्राह्मण के हवाले से ज्ञात होता है कि वर्तमान से कोई 28 हजार वर्षों पूर्व भारत में खगोल विद्या की जानकारी के पूरे संकेत मिल चुके हैं। वे हमारे पूर्वज नभ मंडल, देवता पुंज, नक्षत्रों, उनके जीव तथा जगत पर पड़ने वाले अनेक प्रभाव, नीहारिका, आकाशगंगा आदि से पूरी तरह परिचित थे। वे उदय काल, अयन, मलमास, नक्षत्रों के श्रेणी करण आदि के बारे में लगभग समस्त आवश्यक ज्ञान हांसिल कर चुके थे।

अतः इस बात में कोई संदेह नहीं कि यह विद्या भारत में अत्यंत प्राचीन काल से प्रचलित थी। ऋग्वेद में चक्र शब्द की जो चर्चा आई है उससे तात्पर्य राशिचक्र से ही लिया जाता है। ऋक्संहिता के उक्त मंत्र में ऋषि वर्ष के 360 दिनों का जिक्र करता मिलता है। बारहों राशियों में 30 अंश मान कर प्रत्येकअंश के मध्यम मान अर्थात् एक दिवस का योग करने से वर्ष में 360 दिन होते हैं।

उस युग में भी भारत में बाहर के देशों के विद्यार्थी अध्ययन आदि के लिये आया करते थे। अतः ग्रीस, अरब आदि देशों में प्रचलित अनेक शब्द हमारे ज्योतिष में घुल-मिल गए हैं जिनके कारण अल्पज्ञानी इसे बाहर से आया हुआ मानने लगते हैं जो कि बिल्कुल असत्य है। स्वयं मूर्धन्य विद्वान मैक्समूलर ने माना है कि ज्योतिष विद्या की औरअधिक जानकारी पाने के उद्येश्य से ‘‘कुछ भारतीय विद्वान बेबीलोन गए थे। वहां उन्होंने वहीं की भाषा सीखने के उपरांत खगोल विद्या अर्जित की।2  इतने विवरण पर ही अटक कर कुछ अध्येताओं को लगता है कि निःसंदेह मैक्समूलर यह बताना चाहते हैं कि भारत में यह विद्या बेबीलोन से आई होगी। किंतु जब हमआगे उनके मत को पढ़ते हैं तो धीरे-धीरे हमारे सब संदेह दूर होने लगते हैं। वे बतलाते हैं कि ‘‘जब वे विद्वान भारत वापस आए तो अब उनके सामने कठिनाई यह थी कि सूर्य को आधार बना कर आकाश का ज्योतिषीय विभाजन करना बेहद मुश्किल काम था।3

क्यों

क्योंकि उन्हें चंद्रमा को आधार बना कर काम करने की आदत थी ! और यह समझने की बात है कि सूर्य के उदित होते ही तमाम नक्षत्रों को किसी भी यंत्र से देखा जाना संभव नहीं था। इस बात से यह सिद्ध होता है कि भारत में चंद्रमा को आधार बना कर ज्योतिष अपने पूरे विकास पर था। अब तक चंद्रमा के आधार पर, 28 नक्षत्रों के अंर्तगत आकाश का विभाजन किया जा कर सारी गणनाऐं की जाती थीं। अतः भारतीयों ने बेबीलोन अथवा ग्रीस वअरब देशों से अपने अध्ययन के विकास के लिये अवश्य बहुत कुछ हांसिल किया जो किज्ञान के विकास के लिये आवश्यक था। किंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि भारतीय ज्योतिष की उत्पत्ति तो भारत में ही हुई है। वास्तव में भारतीय ज्योतिष हमारे ही पूर्वजों की खोज है। हालांकि आने वाले दौर में अनेक आक्रांताओं आदि के प्रवेश से यह प्रभावित हुआ, अनेक देशों से मैत्री पूर्ण संबंधों के कारण इसमें अनेक बाहरी तत्व आ कर मिले जिससे येऔर समृद्ध हुआ किंतु इसमें दो मत नहीं कि भारतीय ज्योतिष भारतीय भूमि पर भारतीयों द्वारा ही रचा-विकसित किया गया है। इसके लिये हम किसी बाहरी देश के ऋणी नहीं हैं क्योंकि ये हमारी सर्वथा मौलिक देन है, हमारी अपनी विशुद्ध परंपरा है।

इस विद्या के ज्ञाताओं में अनेक नाम हैं जिन्हें अत्यंत सम्मान जनक स्थान प्राप्त था जैसे वराहमिहिर, सिद्धसेन, केशव, भास्कराचार्य तथा ढुण्ढिराज आदि। आगे चल कर इसमें गणित के साथ साथ होरा, शकुन, प्रश्न तथा संहिता आदि का भी समावेश हो गया जिसके कारण मानव जीवन के लगभग समस्त लौकिक विषय इसमें समाहित हो गए। अब,

इस विवेचन में अधिक न पड़ कर मैंअपना ध्यान ज्र्तिविद्या के मूल सिद्धांतों पर केंद्रित करूंगी।

मैं यह मानते हुए कि इस पुस्तक के पाठक को भारतीय ज्योतिष का आरंभिक ज्ञान अवश्य होगा, अतः मैं फलादेश पर ही ध्यान केंद्रित करना चाह रही हूं, फिर भी,
सामान्य पाठकों के लिये अगले पृष्ठों में सर्वप्रथम जन्मकुंडली का सामान्य परिचय प्रस्तुत है ताकि फलादेश निकालने में आसानी हो सके।

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Usha Chaudhary

Usha Chaudhary

सटीक व उपयोगी।

27 नवम्बर 2022

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रचनाएँ
सहज ज्योतिष
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आत्म-विकास के साथ-साथ लोक-कल्याण अर्थात मानव-कल्याण ही जयोतिष विद्या के विकास के मूल में विद्यमान माना गया है। इसमें माना गया है कि ग्रह वास्तव में किसी जातक को फल-कुफल देने के निर्धारक नहीं हैं बल्कि वे इसके सूचक अवश्य कहे जा सकते हैं। यानि ग्रह किसी मानव को सुख-दुख, लाभ-हानि नहीं पहुंचाते वरन वे मानव को आगे आने वाले सुख-दुख, हानि-लाभ व बाधाओं आदि के बारे में सूचना अवश्य देते हैं। मानव के कर्म ही उसके सुख व दुख के कारक कहे गए हैं। ग्रहों की दृष्टि मानो टॉर्चलाइट की तरह आती है कि अब तुम्हारे कैसे-कौन प्रकार के कर्मों के फल मिलने का समय आ रहा है। अतः मेरी नजर में ज्योतिष के ज्ञान का उपयोग यही है कि ग्रहों आदि से लगने वाले भावी अनुमान के आधार पर मानव सजग रहे। यह ध्यान रखना अत्यंत जरूरी है कि केवल ग्रह फल-भोग ही जीवन होता तो फिर मानव के पुरूषार्थ के कोई मायने नहीं थे, तब इस शब्द का अस्तित्व ही न आया होता। हमारे आचार्य मानते थे कि पुरूषार्थ से अदृष्ट के दुष्प्रभाव कम किये जा सकते हैं, उन्हें टाला जा सकता है। इसमें ज्योतिष उसकी मदद करने में पूर्ण सक्षम है। उनका मत था कि अदृष्ट वहीं अत्यंत प्रबल होता है जहां पुरूषार्थ निम्न होता है। इसके विपरीत, जब अदृष्ट पर मानव प्रयास व पुरूषार्थ भारी पड़ जाते हैं तो अदृष्ट को हारना पड़ता है। प्राचीन आचार्यों के अभिमत के आगे शीश झुकाते हुए, उनके अभिमत को स्वीकारते हुए मेरा भी यही मानना है कि ज्योतिष विद्या से हमें आने वाले समय की, शुभ-अशुभ की पूर्व सूचना मिलती है जिसका हम सदुपयोग कर सकते हैं। हाथ पर हाथ धर कर बैठने की हमें कोई आवश्यकता नहीं कि सब कुछ अपने आप ही अच्छा या बुरा हो जाऐगा। यह कोई विधान रचने वाला शास्त्र नहीं कि बस् अमुक घटना हो कर ही रहेगी, बल्कि यह तो सूचना देने वाला एक शास्त्र है ! यह बार-बार दोहराने की बात नहीं कि आचार्यों, मुनियों, ऋषियों ने ज्योतिष में रूचि इसलिये ली होगी कि मानव को कर्तव्य की प्रेरणा मिले। आगत को भली-भांति जान कर वह अपने कर्म व कर्तव्य के द्वारा उस आगत से अनुकूलन कर सके ताकि जीवन स्वाभाविक गति से चलता रह सके।
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10- राशि चक्र व राशि प्रसंग- यह ज्योतिष का एक सर्वथा मूल सिद्धांत है। इसमें कुल बारह राशियां मानी गई हैं। इन्हें प्रायः सब जानते हैं। संत तुलसीदास कह गए हैं - बड़े भाग मानुस तन पायो ! इस मानुस तन के

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सहज ज्योतिष

16 नवम्बर 2022
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11- ज्योतिष में राशि का प्रयोजन- ज्योतिष में राशि प्रयोजन को इस प्रकार समझा जा सकता है कि बारहों राशियों के स्वरूप केअनुसार ही इनके जातकों का उसी प्रकार का स्वरूप भी बताया गया है। किसी जन्म कुंडली मे

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सहज ज्योतिष

17 नवम्बर 2022
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16- जन्मकुंडली से शरीर का विचार- ज्योर्तिविज्ञान में माना गया है कि जातक के अंगों के परिमाण का विचार करने के लिये जन्म कुंडली को इस प्रकार अभिव्यक्त किया गया है। -लग्नगत राशि को सिर, -द्वितीय भाव म

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17 नवम्बर 2022
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33- जन्म कुंडली में राजयोग इस अपनी पुस्तक मे बात करने जा रही हूँ  किन्हीं राजयोगों की। सु-योगों की ही तरह राजयोग भी वे योग होते हैं जो जातक को हर प्रकार से सुखी-संपन्न बनाते हैं। राजयोग अगर किसी कुं

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