*मनुष्य इस संसार में जन्म लेने के बाद अनेक कर्म करता है और उसके सभी कर्म सुख प्राप्त करने की दिशा में ही होते हैं | मनुष्य का लक्ष्य सुख प्राप्त करना होता है | येन केन प्रकारेण मनुष्य के सुख की कामना ही उससे अनैतिक कर्म करवाती है | इस सुख प्राप्त करने की इच्छा में मनुष्य जाने अनजाने ऐसे कृत्य भी करने लगता है जिससे उसे सुख के स्थान पर दुख की प्राप्ति होने लगती है | मनुष्य अपने कर्मों के द्वारा अनेक शत्रु एवं मित्र भी बना लेता है | मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु उसका अहंकार होता है परंतु यह अहंकार विवेकवान एवं बुद्धिमान व्यक्ति को कभी भी अपने वश में नहीं कर पाता | जो स्वयं को बुद्धिमान समझते हुए भी अहंकार के वशीभूत होता है बुद्धिहीन हीं कहा जाता है | अहंकार किसी भी रूप में मनुष्य को अपना दास बना लेता है | विद्या का अहंकार , धन संपत्ति का अहंकार , कुलीनता का अहंकार एवं अपनी बड़ाई एवं बड़प्पन का अहंकार करके मनुष्य स्वयं को बुद्धिमान समझता है परंतु हमारे शास्त्रों में कहा गया है :-- विद्यामदो धनमदस्तृतीयोऽभिजनो मदः ! मदा एतेऽवलिप्तानामेत एव सतां दमाः !! अर्थात्:; विद्या का अहंकार ,धन -सम्पति का अहंकार ,कुलीनता का अहंकार तथा सेवकों के साथ का अहंकार बुद्धिहीनों का होता है ,सदाचारी तो दमन द्वारा इनमें भी शांति खोज लेते है | मनुष्य का सदाचारी होना बहुत आवश्यक है क्योंकि सदाचार से ही अहंकार नष्ट किया जा सकता है | अहंकारी व्यक्ति कुछ पल के लिए तो प्रसन्न हो सकता है परंतु उसकी यह प्रसन्नता बहुत दिन तक नहीं रहती | ऐसे स्वभाव का व्यक्ति अपने मद में मस्त रहता है एवं इसी मद में वह स्वयं को श्रेष्ठ कथा दूसरों को निम्न समझने लगता है | उसका यही स्वभाव उसको सज्जन व्यक्तियों से दूर कर देता है और वह किसी भी समाज में सम्मान नहीं पाता | अहंकारी व्यक्ति अपने पद एवं प्रतिष्ठा के प्रभाव से समाज में सम्मानित तो होता रहता है परंतु पीठ पीछे लोग उसको बहुत अच्छा नहीं कहते हैं | इस प्रकार का सम्मान किस काम का जो कि सामने तो मिले परंतु मुंह घुमाते ही वह सम्मान असम्मान मे बदल जाय | प्रत्येक मनुष्य को कर्म करते समय यह विचार अवश्य करना चाहिए कि हमारे द्वारा किए जा रहे कर्मों का हमारे जीवन में या समाज में क्या प्रभाव पड़ेगा , क्योंकि कर्मों के माध्यम से ही मनुष्य सम्मान या असम्मान का पात्र होता है | किसी भी व्यक्ति का किसी भी प्रकार का मद कभी भी सुख का कारण नहीं बन सकता |*
*आज समाज में चारों इस मद अर्थात अहंकार का प्रभाव स्पष्ट देखने को मिलता है | किसी को इस बात का अहंकार है कि मैं विद्वान हूं और किसी को इस बात पर अहंकार है कि मैं धनवान हूं , कोई अपने पद प्रतिष्ठा के अहंकार में प्रसन्न हो रहा और दूसरों का अपमान करने एवं किसी का भी मजाक उड़ा लेने में स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता है | ऐसा व्यक्ति किसी भी समाज में सिर्फ इसलिए नहीं उपस्थित होता है क्योंकि उसे लगता है इस समाज में हमसे बड़ा विद्वान कोई नहीं है तो ऐसे समाज में जाकर क्या किया जाय | आज अनेकों प्रकार के सत्संग होते हैं परंतु मनुष्य अपने इसी अहंकार के वशीभूत होकर वह सत्संग नहीं जाता क्योंकि उसके मन में एक भावना होती है कि सत्संग में जो लोग हैं उनसे अधिक विद्वान तो मैं ही हूँ तो वहां जाने से हमको क्या लाभ मिलेगा | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" बता देना चाहता हूं इस संसार में एक से बढ़कर एक विद्वान है कोई कम तो कोई अधिका | विद्वान कौन है ? जिसे अपनी विद्या , धन , कुल , प्रतिष्ठा आदि का गर्व न हो वही वास्तविक विद्वान है | विद्वान वही होता है जिसको अहंकार अपने प्रभाव में नहीं कर पाता | हमारे शास्त्रों में कहा गया है "विद्वान कुलीनो न करोति गर्व:" जो विद्वान होता है ,जो कुलीन होता है उसे कभी किसी भी बात का अहंकार नहीं होता | यदि आज किसी भी विद्वान को अपनी विद्वता का अहंकार है तो समझ लो वह विद्वान है ही नहीं | तथाकथित एवं स्वघोषित विद्वान बनकर अपनी विद्वता के अहंकार में मस्त रहने वाला व्यक्ति कभी भी सुखी नहीं पाता क्योंकि इसी अहंकार के कारण वह दूसरों से ईर्ष्या भी करने लगता है ! और ईर्ष्या एक ऐसी आग है जो मनुष्य को भीतर ही भीतर जलाती रहती है ! सदैव जलने वाला व्यक्ति भला सुखी कैसे रह सकता है ! इसीलिए हमारे महापुरुषों ने कहा है कि यदि सुखी रहने की कामना है तो सबसे पहले अपने मन में पनप रहे अहंकार को मिटाने का प्रयास करो अन्यथा सुख खोजते खोजते जीवन बीत जायेगा परंतु सुख नहीं मिल सकता |*
*अहंकार एक ऐसा मीठा विष है जो धीरे धीरे मनुष्य को परिवार , समाज के साथ साथ स्वयं से भी दूर कर देता है ! अहंकार के कारण ही मनुष्य अपने मूल को भी भूल जाता है अत: इसका दमन करने का सतत् प्रयास करते रहना चाहिए |*