मुझे उम्मीद है कि पुरानी जातियों और उनके बुजुर्गों का हाल तुम्हें रूखा न मालूम होता होगा।
मैंने अपने पिछले खत में तुम्हें बतलाया था कि उस जमाने में हर एक चीज सारी जाति की होती थी। किसी की अलग नहीं। सरगना के पास भी अपनी कोई खास चीज न होती थी। जाति के और आदमियों की तरह उसका भी एक ही हिस्सा होता था। लेकिन वह इंतजाम करनेवाला था और उसका यह काम समझा जाता था कि वह जाति के माल और जायदाद की देख-रेख करता रहे। जब उसका अधिकार बढ़ा तो उसे यह सूझी कि यह माल और असबाब जाति का नहीं, मेरा है। या शायद उसने समझा हो कि वह जाति का सरगना है इसलिए उस जाति का मुख्तार भी है। इस तरह किसी चीज को अपना समझने का खयाल पैदा हुआ। आज हर एक चीज को मेरा-तेरा कहना और समझना मामूली बात है। लेकिन जैसा मैं पहले तुमसे कह चुका हूँ उन पुरानी जातियों के मर्द और औरत इस तरह खयाल न करते थे। तब हर एक चीज सारी जाति की होती थी। आखिर यह हुआ कि सरगना अपने को ही जाति का मुख्तार समझने लगा। इसलिए जाति का माल व असबाब उसी का हो गया।
जब सरगना मर जाता था तो जाति के सब आदमी जमा हो कर कोई दूसरा सरगना चुनते थे। लेकिन आमतौर पर सरगना के खानदान के लोग इंतजाम के काम को दूसरों से ज्यादा समझते थे। सरगना के साथ हमेशा रहने और उसके काम में मदद देने की वजह से वे इन कामों को खूब समझ जाते थे। इसलिए जब कोई बूढ़ा सरगना मर जाता, तो जाति के लोग उसी खानदान के किसी आदमी को सरगना चुन लेते थे। इस तरह सरगना का खानदान दूसरे से अलग हो गया और जाति के लोग उसी खानदान से अपना सरगना चुनने लगे। यह तो जाहिर है कि सरगना को बड़े इख्तियार होते थे और वह चाहता था कि उसका बेटा या भाई उसकी जगह सरगना बने। और भरसक इसकी कोशिश करता था। इसलिए वह अपने भाई या बेटे या किसी सगे रिश्तेदार को काम सिखाया करता था जिससे वह उसकी गद्दी पर बैठे। वह जाति के लोगों से कभी-कभी कह भी दिया करता था कि फलां आदमी जिसे मैंने काम सिखा दिया है मेरे बाद सरगना चुना जाए। शुरू में शायद जाति के आदमियों को यह ताकीद अच्छी न लगी हो लेकिन थोड़े ही दिनों में उन्हें उसकी आदत पड़ गई और वे उसका हुक्म मानने लगे। नए सरगना का चुनाव बंद हो गया। बूढ़ा सरगना तय कर देता था कि कौन उसके बाद सरगना होगा और वही होता था।
इससे हमें मालूम हुआ कि सरगना की जगह मौरूसी हो गई यानी उसी खानदान में बाप के बाद बेटा या कोई और रिश्तेदार सरगना होने लगा। सरगना को अब पूरा भरोसा हो गया कि जाति का माल असबब दरअसल मेरा ही है। यहाँ तक कि उसके मर जाने के बाद भी वह उसके खानदान में ही रहता था। अब हमें मालूम हुआ कि मेरा-तेरा का खयाल कैसे पैदा हुआ। शुरू में किसी के दिल में यह बात न थी। सब लोग मिल कर जाति के लिए काम करते थे, अपने लिए नहीं। अगर बहुत-सी खाने की चीजें पैदा करते, तो जाति के हर एक आदमी को उसका हिस्सा मिल जाता था। जाति में अमीर-गरीब का फर्क न था। सभी लोग जाति की जायदाद में बराबर के हिस्सेदार थे।
लेकिन ज्यों ही सरगना ने जाति की चीजों को हड़प करना शुरू किया और उन्हें अपनी कहने लगा, लोग अमीर और गरीब होने लगे। अगले खत में इसके बारे में मैं कुछ और लिखूँगा।