हम बतला चुके हैं कि शुरू में छोटे-छोटे समुद्री जानवर और पानी में होनेवाले पौधे दुनिया की जानदार चीजों में थे। वे सिर्फ पानी में ही रह सकते थे और अगर किसी वजह से बाहर निकल आते और उन्हें पानी न मिलता तो जरूर मर जाते होंगे। जैसे आज भी मछलियाँ सूखें में आने से मर जाती हैं। लेकिन उस जमाने में आजकल से कहीं ज्यादा समुद्र और दलदल रहे होंगे। वे मछलियाँ और दूसरे पानी के जानवर जिनकी खाल जरा चिमड़ी थी, सूखी जमीन पर दूसरों से कुछ ज्यादा देर तक जी सकते होंगे। क्योंकि उन्हें सूखने में देर लगती थी। इसलिए नर्म मछलियाँ और उन्हीं की तरह के दूसरे जानवर धीरे-धीरे कम होते गए क्योंकि सूखी जमीन पर जिंदा रहना उनके लिए मुश्किल था और जिनकी खाल ज्यादा सख्त थी वे बढ़ते गए। सोचो, कितनी अजीब बात है! इसका यह मतलब है कि जानवर धीरे-धीरे अपने को आस-पास की चीजों के अनुकूल बना लेते हैं। तुमने लंदन के अजायबघर में देखा था कि जाड़ों में और ठंडे देशों में जहाँ बहुतायत से बर्फ गिरती है चिड़ियाँ और जानवर बर्फ की तरह सफेद हो जाते हैं। गरम देशों में जहाँ हरियाली और दरख्त बहुत होते हैं वे हरे या किसी दूसरे चमकदार रंग के हो जाते हैं। इसका यह मतलब है कि वे अपने को उसी तरह का बना लेते हैं जैसे उनके आसपास की चीजें हों। उनका रंग इसलिए बदल जाता है कि वे अपने को दुश्मनों से बचा सकें, क्योंकि अगर उनका रंग आस-पास की चीजों से मिल जाए तो वे आसानी से दिखाई न देंगे। सर्द मुल्कों में उनकी खाल पर बाल निकल आते हैं जिससे वे गर्म रह सकें। इसीलिए चीते का रंग पीला और धारीदार होता है, उस धूप की तरह, जो दरख्तों से हो कर जंगल में आती है। वह घने जंगल में मुश्किल से दिखाई देता है।
इस अजीब बात का जानना बहुत जरूरी है। जानवर अपने रंग-ढंग को आसपास की चीजों से मिला देते हैं। यह बात नहीं है कि जानवर अपने को बदलने की कोशिश करते हों; लेकिन जो अपने को बदल कर आसपास की चीजों से मिला देते हैं उनको जिंदा रहना ज्यादा आसान हो जाता है। उनकी तादाद बढ़ने लगती है, दूसरों की नहीं बढ़ती। इससे बहुत-सी बातें समझ में आ जाती हैं। इससे यह मालूम हो जाता है कि नीचे दरजे के जानवर धीरे-धीरे ऊँचे दरजों में पहुँचते हैं और मुमकिन है कि लाखों बरसों के बाद आदमी हो जाते हैं। हम ये तब्दीलियाँ, जो हमारे चारों तरफ होती रहती हैं, देख नहीं सकते, क्योंकि वे बहुत धीरे-धीरे होती हैं और हमारी जिंदगी कम होती है। लेकिन प्रकृति अपना काम करती रहती है और चीजों को बदलती और सुधारती रहती है। वह न तो कभी रुकती है और न आराम करती है।
तुम्हें याद है कि दुनिया धीरे-धीरे ठंडी हो रही थी और इसका पानी सूखता जाता था। जब यह ज्यादा ठंडी हो गई तो जलवायु बदल गई और उसके साथ ही बहुत-सी बातें बदल गईं। ज्यों-ज्यों दुनिया बदलती गई जानवर भी बदलते गए और नई-नई किस्म के जानवर पैदा होते गए। पहले नीचे दरजे के दरियाई जानवर पैदा हुए, फिर ज्यादा ऊँचे दरजे के। इसके बाद जब सूखी जमीन ज्यादा हो गई तो ऐसे जानवर पैदा हुए जो पानी और जमीन दोनों ही पर रह सकते हैं जैसे, मगर या मेढक। इसके बाद वे जानवर पैदा हुए जो सिर्फ जमीन पर रह सकते हैं और तब हवा में उड़ने वाली चिड़ियाँ आईं।
मैंने मेढक का जिक्र किया है। इस अजीब जानवर की जिंदगी से बड़ी मजे की बातें मालूम होती हैं। साफ समझ में आ जाता है कि दरियाई जानवर बदलते-बदलते क्योंकर जमीन के जानवर बन गए। मेढक पहले मछली होता है लेकिन बाद में वह खुश्की का जानवर हो जाता है और दूसरे खुश्की के जानवरों की तरह फेफड़े से सँस लेता है। उस पुराने जमाने में जब खुश्की के जानवर पैदा हुए बड़े-बड़े जंगल थे। जमीन सारी की सारी झावर रही होगी, उस पर घने जंगल होंगे। आगे चल कर ये चट्टान और मिट्टी के बोझ से ऐसे दब गए कि वे धीरे-धीरे कोयला बन गए। तुम्हें मालूम है, कोयला गहरी खानों से निकलता है, ये खानें असल में पुराने जमाने के जंगल हैं।
शुरू-शुरू में जमीन के जानवरों में बड़े-बड़े साँप, छिपकलियाँ और घड़ियाल थे। इनमें से बाज सौ फुट लंबे थे। सौ फुट लंबे साँप या छिपकली का जरा ध्यान तो करो! तुम्हें याद होगा कि तुमने इन जानवरों की हड्डियाँ लंदन के अजायबघर में देखी थीं।
इसके बाद वे जानवर पैदा हुए जो कुछ-कुछ हाल के जानवरों से मिलते थे। ये अपने बच्चों को दूध पिलाते थे। पहले वे भी आजकल के जानवरों से बहुत बड़े होते थे। जो जानवर आदमी से बहुत मिलता-जुलता है वह बंदर या बनमानुस है। इससे लोग खयाल करते हैं कि आदमी बनमानुस की नस्ल है। इसका यह मतलब है कि जैसे और जानवरों ने अपने को आसपास की चीजों के अनुकूल बना लिया और तरक्की करते गए इसी तरह आदमी भी पहले एक ऊँची किस्म का बनमानुस था। यह सच है कि यह तरक्की करता गया या यों कहो कि प्रकृति उसे सुधारती रही। पर आज उसके घमंड का ठिकाना नहीं। यह खयाल करता है कि और जानवरों से उसका मुकाबला ही क्या। लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि हम बंदरों और बनमानुसों के भाई-बंद हैं और आज भी शायद हम में से बहुतों का स्वभाव बंदरों ही जैसा है।