शुभांगी को रंजन की हर बात भाने लगी थी। उसकी नीली आंखों से वो मोहित हो जाती थी। उसका अंग्रेजों जैसा गोरा रंग उसे बहुत अच्छा लगता था। उसके भूरे बालों में तो वो बहाने से उंगली फिराती रहती थी। उसका खिलाड़ियों जैसा बलिष्ठ शरीर उसे दीवाना बना देता था। उसका अंग्रेजी में बात करने का लहज़ा उसे बहुत प्रभावित करता था। उसका अपने बड़े बालों को झटका देकर पीछे करने का स्टाइल शुभांगी को ख़ास प्रिय था। एक ख़ास बात और थी रंजन में कि वो क्रिकेट का बहुत अच्छा प्लेयर था। शुभांगी अक्सर मैदान पर जाकर उसको क्रिकेट खेलते देखती थी।
" की तुमी क्रिकेट प्लेयर बोनबे ? ( क्या तुम क्रिकेट प्लेयर बनोगे ? ) " एक दिन शुभांगी ने उससे पूंछ ही लिया।
" ना मां इछा की आमी डॉक्टर बोनी ( नहीं ! ममा चाहती है मैं डाक्टर बनूं ) " रंजन ने उसको बताया।
" तो ठीक आछे। आमी नर्स बोने जाबी। अमरा दोनों झोन एक ही हास्पिटले साथे काज करबो ( तो ठीक है ! मैं नर्स बन जाऊंगी। हम दोनों एक ही हास्पिटल में साथ में काम करेंगे ) " शुभांगी चहककर बोली। इस बात पर रंजन जोर से हंसा।
" नर्स कैनो ? तुई भी डॉक्टर बौन ( नर्स क्यों ? तू भी डाक्टर बन ) " रमन ने हंसते हुए कहा।
" ना यार ! आमके सौब सौम्य तोर साथे थकार आछे एजोनो नर्स बोन असिस्टेंट मोतोन तोर साथे थाकबो। डॉक्टर बोने गेलाम तो आलादा आलादा आपरेशन करते होबे ( नहीं यार ! मुझे हर वक्त तेरे साथ रहना है इसलिए नर्स बनके असिस्टेंट की तरह तेरे साथ रहूगी। डाकटर बन गई तो अलग अलग आपरेशन करना पड़ेगा ) " शुभांगी ने बड़े भोलेपन से कहा। उसकी बात पर रंजन को हंसी तो आई लेकिन उसके भोलेपन पर प्यार ज्यादा आया।
" पगोल ( पागल ) " रंजन ने उसके सिर पर हलकी सी चपत लगाते हुए कहा।
" तोके कोतो बार माना कोरेछि कि मथाय मेरीस ना ( तेरे को कितनी बार मना किया है कि सिर पर नहीं मारना ) " शुभांगी ने गुस्सा दिखाते हुए कहा।
" आमी तो मारबो ( मै तो मारूंगा ) " इतना कहते हुए रंजन ने उसके सिर पर फिर से चपत लगाई और वहां से दौड़ लगा दी। शुभांगी भी चिल्लाते हुए उसके पीछे भागी।
इसी तरह मस्ती करते हुए दोनों एक-दूसरे के करीब आते जा रहे थे। शुभांगी को अपने घर जाना बिल्कुल पसंद नहीं था क्योंकि वो अब समझने लगी थी कि उसकी मां तनुजा के पास मर्दों का आना क्यों होता था। उसे अपनी मां से चिढ़ होने लगी थी। आने वाले मर्द शुभांगी को गंदी नजरों से घूरा करते थे। ख़ासकर कॉलोनी में कुछ दूर पर रहने वाले पुलिस वाले दत्ता अंकल का घूरना उसे अंदर तक दहला देता था। उसने इस बात की शिकायत अपनी मां से भी की लेकिन उसकी मां ने उल्टा उसे ही डांट दिया कि उसकी ऐसा सोचने की हिम्मत कैसे हुई। उसकी मां का कहना था कि वो पुलिस वाले दत्ता अंकल उनकी बहुत मदद करते थे और वो उनके बारे में ऐसा सोचती थी।
शुभांगी ने उसके बाद उन दत्ता अंकल की शिकायत अपनी मां से कभी नहीं की। बस ये कोशिश करती थी कि दत्ता अंकल से उसका सामना न हो।
इसी बीच गर्मियों की छुट्टियों में उसका मां के साथ नानी के यहां आसनसोल जाने का प्रोग्राम बना। जाने के एक दिन पहले उसने पूरा दिन रंजन के साथ बिताया। उससे कुछ दिन के लिए ही दूर होने के नाम से ही शुभांगी का दिल बैठा जा रहा था। रंजन भी उसके जाने से दुखी था। दोनों ने ढेर सारी बातें की। एक दूसरे से कई वादे कर डाले। शुभांगी ने तय कर लिया था कि आसनसोल से लौटकर वो रंजन से अपने प्यार का इज़हार जरूर करेगी। अब वो और इस बात को अपने दिल में नहीं रख पा रही थी। बातें करते करते कब दिन बीत गया दोनों को पता ही नहीं चला। अगले दिन सुबह-सुबह बस से शुभांगी को जाना था। शुभांगी ने दुखी मन से रंजन से विदा ली और भारी कदमों से घर की ओर चल पड़ी।
उस पूरी रात शुभांगी की आंखों में नींद नहीं थी। रह रह कर उसकी आंखें छलक पड़ती थीं। सुबह जब वो आसनसोल जाने के लिए बस अड्डे की तरफ़ जा रही थी तो उसकी आंखें रंजन के घर पर लगी थीं कि शायद रंजन दिख जाए लेकिन उसे रंजन नहीं दिखा।
आसनसोल में नानी के यहां पहुंचकर वो थोड़ा अच्छा महसूस करने लगी क्योंकि वहां उसके मामा की तीन लड़कियां थीं जिसमें से एक रीना उसकी हमउम्र थी और बाकी दोनों की और उसकी उम्र में ज्यादा अंतर नहीं था। इसी वज़ह से उसका नानी के यहां बहुत मन लगता था। वो चारों खूब खेला करते थे। ख़ासकर रीना तो उसकी हमराज थी। दोनों एक-दूसरे को सारी बातें बतातीं थीं।
इस बार शुभांगी कुछ खोई खोई सी थी। रीना ने इस बात को ताड़ लिया था और शुभांगी के पीछे पड़ गई थी ये जानने के लिए कि कौन है ऐसा जिसके ख्यालों में शुभांगी खोई रहती थी। आखिर एक दिन शुभांगी को बताना ही पड़ा। जैसे ही शुभांगी ने शर्माकर हां में सिर हिलाया रीना उससे चिपककर बैठ गई और उसके और रंजन के रिश्ते का पूरा डिटेल पूंछने लगी। शुभांगी ने भी उसको सब बताया और ये भी बताया कि आसनसोल से वापिस जाकर सबसे पहले रंजन से अपने दिल की बात कहेगी। रीना उसके लिए बहुत खुश थी।
अपनी ममेरी बहनों के साथ शुभांगी का वक्त बहुत अच्छा गुज़र रहा था। चारों दिन भर मस्ती करते थे लेकिन इस सबके बावजूद वो एक पल के लिए भी रंजन को नहीं भूली थी। भूलती भी कैसे क्योंकि रीना हर वक्त उससे रंजन और उसके किस्से सुना करती थी।
इसी तरह तीन महीने बीत गए। अब वापिस सुजानबाड़ी जाने का वक्त आ गया। सुजानबाड़ी जाने के नाम से शुभांगी बहुत खुश थी। इतने लंबे वक्त के बाद वो रंजन से मिलने वाली थी। इस बार मिलने के लिए वो बहुत उत्सुक थी क्योंकि वो रंजन से अपने प्यार का इज़हार करने वाली थी। आखिर वो दिन आ भी गया जब उसे वापिस सुजानबाड़ी जाना था।
सुजानबाड़ी पहुंचकर सबसे पहले वो रंजन से मिलने उसके घर पहुंची। रंजन के घर पर ताला लगा था। उसका दिल बैठ गया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि रंजन की फैमिली कहां चली गई। अब तो कॉलेज खुल चुके थे और इस वक्त तो रंजन को सुजानबाड़ी में ही होना चाहिए था। जिस बेइंतहा खुशी के साथ वो रंजन से मिलने आई थी वो काफूर हो चुकी थी। उसके तीन महीनों के इंतजार पर पानी फिरता दिख रहा था। उसने अपने दिल को समझाया कि वो लोग अचानक कुछ काम से कहीं चले गये होंगे और जैसे ही वापिस लौटेंगे वो सबसे पहले रंजन से अपने दिल की बात कहेगी। जब तीन महीने इंतजार किया है तो कुछ दिन और सही। वो भारी मन से अपने घर लौटने लगी।
जब एक महीने से ज्यादा हो गया और रंजन की फैमिली नहीं लौटी तो उसने पता करने की ठानी। उसने रंजन के पड़ोस में रहने वाली सेनगुप्ता आंटी से मिलने का फैसला किया। सेनगुप्ता आंटी ने जो बताया वो सुनकर उसके दिल की धड़कनें रुकने लगीं। सेनगुप्ता आंटी ने बताया कि रंजन की फैमिली अपना सबकुछ यहां से समेटकर चले गए थे। उन्होंने अपना मकान और बिजनेस दोनों बेच दिया था। वो कहां गए थे ये तो उन्हें भी पक्का नहीं मालूम था पर शायद दिल्ली गये होंगे ऐसा उन्होंने अपना अंदाजा जाहिर कियाा। बस इतना निश्चित था कि वो अब लौटकर सुजानबाड़ी नहीं आने वाले थे।
शुभांगी को काटो तो खून नहीं था। सेनगुप्ता आंटी के पास से लौटते वक्त उसके कदम नहीं उठ रहे थे। दिल इतना भारी हो गया था कि कब धड़कना बंद कर दे उसे मालूम नहीं था। वो किसी तरह अपने आप में खोई उस पार्क में पहुंची जहां वो और रंजन वक्त बिताया करते थे। वहां पहुंचकर वो उसी बेंच पर बैठ गई जहां वो रंजन के साथ बैठा करती थी। वहां बैठते ही उसको रोना आ गया। वो फूट फूटकर रोने लगी। उसकी रुलाई रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। बहुत देर बाद रोने के बाद उसने खुद को दिलासा दिया कि रंजन उसे भूल नहीं सकता और जहां भी होगा वक्त और मौका मिलते ही उससे मिलने जरूर आएगा। इस बात ने उसे थोड़ी राहत जरूर दी। वो भारी कदमों से घर की तरफ़ चल पड़ी।
वक्त गुजरने लगा। शुभांगी के चेहरे से खुशी गायब हो चुकी थी। वो हर वक्त उदास रहने लगी। वक्त के गुजरने के साथ रंजन के आने की उसकी उम्मीद भी धूमिल होती जा रही थी। अब उसका पढाई से भी दिल उचाट खा चुका था। उसने खुद को घर में लगभग कैद कर लिया था।
एक दिन देर शाम को उसकी मां ने उसे बताया कि पुलिस वाले दत्ता ने घर पर खाने के लिए बुलाया है। दत्ता का नाम सुनते ही शुभांगी ने जाने से साफ़ मना कर दिया। उसके मना करते ही उसकी मां उस पर बिफर पड़ी,
" तुई जानिस ना कि दोत्तो बाबू आमादेर कोटो सहाजो कोरे। कोतो बार उनी तोर स्कूल फीस दिएछे, आमादेर कोस्टेर सोमाय उनी ही काज आसे आर तुई ओखाने जावार जोन्नो माना कोरछिश। चुपचाप उठ आर भालो कोरे तोईयार होए जा। आमादेर के जेते ही होबे, तोर कोनों नाटोक चोलबे ना ( तू जानती है ना कि वो दत्ता जी हमारी कितनी मदद करते हैं। कई बार उन्होंने तेरी स्कूल फीस दी है, हमारे मुश्किल में वही काम आते हैं और तू वहां जाने से मना कर रही है। चल चुपचाप उठ और अच्छे से तैयार हो जा। हमें जाना ही है, तेरा कोई बहाना नहीं चलेगा। ) "
शुभांगी बेमन से तैयार होने लगी क्योंकि वो जानती थी कि उसकी मां उसका पीछा नहीं छोड़ेगी और ले जाकर ही मानेगी। वैसे भी रंजन से दूर होने के बाद उसकी विरोध करने की शक्ति क्षीण हो चुकी थी। अपनी मां तनुजा के कहे अनुसार वो तैयार होकर उनके साथ उस पुलिस सब इंस्पेक्टर दत्ता के घर की तरफ़ चल पड़ी। उस वक्त रात हो चली थी और हमेशा की तरह लोग अपने अपने घरों में कैद हो चुके थे। इक्का दुक्का लोगों को छोड़कर बाकी पूरी कॉलोनी में कोई नहीं दिख रहा था। शाम सात बजे के आसपास कॉलोनी सुनसान हो जाती थी।
दोनों दत्ता के घर पहुंचे। घर के अंदर दाखिल होते ही शुभांगी ने देखा कि वो एक विशाल बंगला था। वहां सुख सुविधाओं की सारी चीज़ें मौजूद थीं। तनुजा शुभांगी को हॉल में एक बडे से सोफे पर बैठाकर अंदर चली गई। शुभांगी वहां बहुत असहज महसूस कर रही थी। वो सिकुड़ी हुई सोफे पर बैठी रंजन के बारे में सोचने लगी। रंजन को याद करके उसकी आंखें छलक पड़ीं। तभी तनुजा ने आकर उसे अंदर चलने के लिए कहा। शुभांगी उसके साथ हो ली। गलियारे से निकलकर सामने एक कमरा था। तनुजा शुभांगी को लेकर उस कमरे में चली गई। वो भी एक बड़ा कमरा था जिसमें एक दीवार के सहारे एक बड़ा सोफा सेट लगा हुआ था और दूसरी दीवार के साथ एक विशाल डबलबेड लगा हुआ था। तनुजा ने शुभांगी को सोफे पर बैठने को कहा और खुद बाहर निकल गई।
शुभांगी कुछ समझ पाए इसके पहले ही दत्ता ने कमरे में प्रवेश किया। शुभांगी ने घबराकर दरवाजे की तरफ़ देखा कि शायद उसकी मां भी अंदर आ रही हो लेकिन ऐसा कुछ नहीं था। दत्ता ने पलटकर कमरे का दरवाजा बंद कर दिया और फिर घूमकर मुस्कुराते हुए नशे में चूर निगाहों से शुभांगी को ऊपर से नीचे तक देखा। अब शुभांगी समझ चुकी थी वो किस मुसीबत में फंस चुकी है। वो बुरी तरह घबरा गई और डर से कांपने लगी। वो वहां से बच निकलने का रास्ता सोचने लगी......
***** क्या शुभांगी वहां से बचकर निकल पाई ? क्या उसकी मां तनुजा उसे बचाने आ पाई ? जानने के लिए पढ़ें अगला भाग *****
विशेष : दोस्तों इस कहानी में जो बांग्ला वाक्य लिखे हैं उनका हिंदी से बांग्ला में अनुवाद के लिए मैं " उर्वशी घोष " उर्वी " जी का दिल से आभार करता हूं। 🙏🙏