इधर भी एक दीवार है... उधर भी एक दीवार है l इन दीवारो में घिरी बैठी हूँ मैं l ऊपर देखो तो आसमान नजर नहीं आता..नीचे देखो तो धरती नजर नहीं आती l सीने में धधक रहा है कुछ.. बाहर आने को बैचेन..l वहां भी एक दीवार है जो कुछ बाहर आने नहीं देती l लपटें उठ रही है बहुत...दबा दी मैंने कसमसा के तो ....उतनी ही तेज़ी से लावा बन फ़ूट, कुछ गरम सा आँखो से बह निकला है l .
दीवारे तो पहले भी थी पर, वहां से आसमान नजर आता तो था l उड़ने का...उसको छूने का अरमान तो था l लक्ष्मण रेखाएं थी, बहुत पहले भी...और उससे ज्यादा ताकत थी उनको लाँघने की भी l सीने में हलचल सी होती थी, उस पार झाँकने की भी ..पर पैर बढ़ते तो थे ,पर उठते नहीं थे l फ़िर सामने एक दीवार थी परवरिश की l
फ़िर जवाँनी भी आई दहलीज़ पर ..कुछ नजरें मुझ पर उठी, कुछ नजरें मेरी गयीं, कुछ हवा के झौकों से एहसास जागे ... दूध के उफ़ान के मानिंद और पानी के बुलबुले से शान्त हो गए l फ़िर दीवार थी समाज की.. तो फ़िर कुछ समेटा और आँखे बंद की.. बढ़ चले आगे सफ़र पर l
फ़िर कहानियों सी, बारात आई बाराती आए... घोड़ा आया घोड़े पर बैठा राजकुमार ? राजकुमार नहीं दूल्हा क्योंकि राजकुमार तो कहानियों में होते है l हाँ.. तो दूल्हा आया और आई शहनाईयों की तरंग,.. कुछ कतरा सिन्दूर और उड़ाकर ले गया कहाँ ?? मैंने तो सोचा था नयी शुरुआत है जिंदगी की... कोई अपना होगा, कुछ नये एहसास होगे l एक घर होगा... जो मेरा होगा l
मैं तो उतरी थी ठंडी लहरों में उस पार जाने को, ..पर एक दलदल तैयार था,.. मेरे वज़ूद को लील जाने को,.. खत्म करने मेरी चाहते, मेरे सपने, और एहसास को l धँसती ही जा रही थी कि.. फ़िर सज़ा सी, बड़ी एक दीवार खड़ी थी, पुरुष अहम् की l
कुछ कतरे खून के बह निकले मेरी रगो से... कि जैसे डूबते को तिनकों का सहारा मिल गया हो l हलचल सी हुई शरीर में.. बिजली सी कौंधी...बह चली, तैर गई नये किनारे पर l लगा नया है जनम, नयी है उम्मीद, नये है सपने..... जिन्हें सींचना है l एक एहसास जागा पहली बार कि ये सिर्फ मेरा है, हिस्सा है मेरा, सिर्फ हक है मेरा इस पर l
बुन ली जिंदगी...उनके चारों ओर l उन कतरों के पीछे पीछे.. कितनी ही दीवारे कितने ही रास्ते कूदती फ़ाँदती, डूबती उतराती चली जा रही थी l सोचा था अब जो आसमान होगा, वो मेरा होगा ..वो होगे जो सहलायेंगे मेरे सपने, मेरे एहसासो को l लेकिन फ़िर ममता की दीवार आँड़े, आ ही गई l जिसने मेरे एहसासो को ही मिटा दिया, कतरे कतरे से जिन्हें जोड़ा था.. उन्होने तो मेरे होने के एहसास को ही खतम कर दिया l
फ़िर एक बार खड़ी थी दीवारो के जंगल में...उसके सीने पर कितने ही पत्थर रख दो .... हटाकर उनको फ़िर वह तैयार थी....एक दीवार के सामने क्योंकि समझ गई थी l शायद...रिश्ता तो उसका था ही नहीं किसी से l रिश्ता तो था उसका इन एहसासो से, इन दीवारो से, जो बाँधती थी उसको बन्धनो में l करती रहती थी नाकाम कोशिशे उसे झुकाने की..पर शायद वही थी,जो जानती थी हर दीवार के पीछे कही कोई छिपी रोशनी है ,कही छिपा एक आसमान है, जो उसे छूना है l और खड़ी रहती है अनवरत हर दीवार के सामने ना झुकने के लिए ... फ़िर एक नये एहसास के साथ l क्योंकि स्त्री है वह ,हर बार दीवार के पीछे एक नया एहसास ढूँढ ही लेती है l स्त्री होती है "एक एहसास" जिस दिन उसके "एहसासो का आसमान" खतम ...उस दिन वह भी खत्म.. l
✍️शालिनी गुप्ता प्रेमकमल
(स्वरचित)
😊ये रचना जिसमें एक स्त्री जीवन को दिखाने की नाकाम कोशिश है l