हाँ, अब मैं भी थोड़ा सा बदलाव चाहती हूँ ,
अपने लिए भी,जीने का अधिकार चाहती हूँ l
मानाकि सहनशीलता मेरा गुण व गहना हैं,
स्वयं ना कह के,किसी को सुना भी जाता है,
ये बात अब तुम्हें भी, मै बतलाना चाहती हूँ l
थोड़ी सहनशक्ति तुम्हें भी सिखाना चाहती हूँ l
हाँ, अब मैं भी थोड़ा सा बदलाव चाहती हूँ l
माना इस घर के अंदर की दहलीज़ मेरी हैं,
और बाहर का आसमान तुम्हारे हिस्से है l
तुम कहते हो ना कि हम एक ही है,तो बस
थोड़ी सी दहलीज़ तुम भी तो सँभालो जरा,
मैं भी थोड़ा सा आसमान, नापना चाहती हूँ
अब दोनों को,तुमसे बराबर बाँटना चाहती हूँ l
हाँ अब मैं भी थोड़ा सा बदलाव चाहती हूँ l
ये लाज़,शर्म-हया जो मेरे वजूद के हिस्से थे,
पर उस पर्दे को हटा,अब मैं उड़ना चाहती हूँ ,
लाज शर्म,जो तुम्हारे हिस्से आए ही नहीं,अब
अपनी गलतियों पर शर्मिन्दा भी हुआ जाता है,
हाँ,ये पाठ मैं अब तुम्हें भी,समझाना चाहती हूँ l
हाँ, अब मैं भी थोड़ा सा बदलाव चाहती हूँ ,
ना ही देवी की तरह, बनना है मुझे अब,और
ना ही तुम्हें अपना परमेश्वर,बनाना चाहती हूँ,
दोनों एक दूसरे के लिए इंसान ही बनकर रहे,
ना किसी को कम,ना ज्यादा दिखाना चाहती हूँ ,
हाँ,अब मैं भी तुमसे बराबरी का रिश्ता चाहती हूँ l
हाँ, अब मैं भी थोड़ा सा बदलाव चाहती हूँ l
मेरे दिल में तुम्हारे लिए,जो प्रेम व सम्मान हैं,
वो प्रेम व सम्मान,तुम्हारे दिल में भी चाहती हूँ l
तुम्हारे प्रेम,सलामती के लिए,जो निभाए हैं मैंने,
वैसे कुछ रिवाज,अब अपने लिए भी चाहती हूँ l
हाँ, अब मैं भी थोड़ा सा बदलाव चाहती हूँ l
घर का कोना,जो मेरा बसेरा था,लेकिन अब,
उस घर पर मैं बराबरी का अधिकार चाहती हूँ,
घर की नेमप्लेट पर भी, अपना नाम चाहती हूँ,
तुम्हारे ही साथ,अपनी भी एक पहचान चाहती हूँ l
हाँ, अब मैं भी थोड़ा सा बदलाव चाहती हूँ l
अपने लिए भी जीने का अधिकार चाहती हूँ l
✍️शालिनी गुप्ता प्रेमकमल🌸
(स्वरचित)