किसी भी देश की संस्कृति उसकी आत्मा होती है। संस्कृति हमें राह बताती है तो सभ्यता उस राह पर चलाती हैं। सभी जानते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं और समाज एवं संस्कृति मानवता के विकास के दो आधार माने गए हैं। समाज के बिना मनुष्य का न तो विकास संभव है, न जीवन। संस्कृति मानवीय आदर्शों, मूल्यों,स्थापनाओं एवं मान्यताओं का समूह है। यह किसी जाति या समाज की अन्तरात्मा है। इसके द्वारा किसी भी देश के समस्त संस्कारों का बोध और सामाजिक या सामूहिक आदर्शों का निर्माण होता है।
कोई भी राष्ट्र हो या समाज यदि वह अपनी संस्कृति का बहिष्कार करता है तो उसे मिटते देर नहीं लगती। इतिहास गवाह है कि विश्व की प्राचीन प्रसिद्द संस्कृतियोँ में मिश्र, अमीरिया, बेबीलोनिया, यूनान आदि संस्कृतियां समाज के पतन के साथ ही लुप्त हो गयी। यूनान और रोम की भूमि पर आज कोई देवी-देवता हो या फ़िनलैंड का पूज्य वरुण देव हो या ग्रीनलैंड का अगस्त्याश्रम अथवा चीन, जापान, लंका आदि तक फैला हुआ बौद्ध धर्म या जावा, सुमात्रा, कांबोज, मलय द्वीप की सामाजिक परम्पराएं, काल के कराल हाथों या उनको नष्ट कर दिया।
संस्कृति कोई स्थिर वस्तु न होकर निरंतर विकासमान प्रक्रिया है। आज नयी सभ्यता, नयी मान्यता, नयी आस्थाओं के नाम पर संस्कृति का बहिष्कार देखने को मिल रहा है, जो एक बहुत बड़ी भूल है। क्योँकि हमें नहीं भूलना चाहिए कि जो युग धर्म की उपेक्षा करते हैं वह पतनोन्मुख होते हैं। वही समाज और संस्कृति फलती-फूलती हैं जो आधुनिकता की उपयोगिता के अनुरूप ढ़लती है लेकिन अपने अतीत की विशेषताओं से पीछे नहीं हटती है। हमारी भारतीय संस्कृति की यही विशेषता रही है। तभी तो विश्व की नाना संस्कृतियों को उनके सामाजिक पतन के कारण लुप्त होते देर नहीं लगी, किन्तु-
'यूनान मिश्र रोमाँ, सब मिट गए जहाँ से।
कुछ बात है की हस्ती मिटती नहीं हमारी।।
आज हमारी भारतीय संस्कृति में जिस प्रकार किसी देश हो या फिल्म या कोई धर्म विशेष या फिर व्यक्ति विशेष का बहिष्कार करने का प्रचलन तेजी से चल पड़ा है, वह अत्यन्त गंभीर चिंतन का विषय है। इसके लिए हमें आधुनिक संस्कृति जिसमें अपनी स्वत्रंत- स्वछन्द प्रकृति से इहलोक के सुख-शांति और ऐश्वर्य के सरलतम उपायों को पाने की लालसा देखती है, उसे त्यागने और पाश्चात्य जीवन-मूल्यों, आदर्शों और परम्पराओं के मोह से अपने आप को दूर रखते हुए अपनी संस्कृति के निकट रहने की आवश्यकता है।