गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि युद्धाछ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।।2/31।।
दूसरे अध्याय के श्लोक 11 से 30 में श्री कृष्ण ने अर्जुन को आत्मा
की अमरता और किसी व्यक्ति के जीवनकाल के संपूर्ण होने के बाद इस लोक से प्रस्थान करने
के समय प्रियजन के स्वाभाविक विछोह की अवस्था को लेकर दुखी नहीं होने का निर्देश दिया।
उन्होंने आगे कहा कि अपने स्वधर्म को भी देखकर तुमको विचलित होना उचित नहीं है,क्योंकि
क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्त्तव्य नहीं है।
कई बार यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या हमारा स्वधर्म वह है,
जो आमतौर पर हमारी पूजा और उपासना की पद्धतियों से जुड़ा हुआ है, या फिर स्वधर्म वह
है जो हम अपनी जीविका के अर्जन के लिए नौकरी,व्यापार ,वाणिज्य या अन्य कार्यों को करते
हैं।
यह तो सत्य है कि हम अपनी पूजा और उपासना पद्धतियों का सच्चे मन
से उस परम सत्य की आराधना और साधना के लिए प्रयोग करें। यह भी सत्य है कि हमारा अपनी
जीविकोपार्जन के साधनों के प्रति भी भगवान और भक्त की तरह ही समर्पण भाव होना चाहिए।
युद्ध के मैदान में अर्जुन के समक्ष स्वधर्म था-युद्ध करना।अत:भगवान उस समय उनके लिए
युद्ध के स्वधर्म के पालन पर बल दे रहे हैं।
आधुनिक काल में हर व्यक्ति के अपने अपने स्वधर्म हैं।शिक्षक अध्यापन
करता है ।एक विद्यार्थी पढ़ता है।सैनिक हमारे भारत की सरहदों पर वतन की हिफाजत करते
हैं। राजनेता जनता की आवाज बनकर उनका प्रतिनिधित्व करते हैं। एक व्यापारी लोगों को
वस्तुओं की आपूर्ति करता है। एक नौकरी करने वाला व्यक्ति सेवाओं को उपलब्ध कराता है।
हर व्यक्ति समाज के लिए परिश्रम करता है और उसके अनुरूप उसे दिन भर की मेहनत के आधार
पर दो रोटी प्राप्त करने का अधिकार भी है।जब हम मनुष्य अपने इस मूल स्वधर्म से भटकते
हैं,आलस्य करते हैं ,या लापरवाही बरतते हैं तो यह एक तरह से अपने स्वधर्म का परित्याग
कर देना होता है।
एक और स्वधर्म है मानव मात्र की सेवा का। दुखी,दीनो,पीड़ितों के
आंसू पोंछने का। ऐसी निस्वार्थ सेवा का पथ कठिन जरूर है और कभी-कभी किसी अपात्र की
मदद करते-करते होम करते हाथ जले वाली स्थिति भी बनती है। कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि
अत्यधिक परिश्रम करने के बाद भी ईश्वर हमें मनोवांछित फल नहीं दे रहा है और हम से अन्याय
हो रहा है,तथापि मानवता की सेवा का यह विराट लक्ष्य हम सभी के मन मस्तिष्क में रचा
बसा होना चाहिए, क्योंकि ईश्वर भी अपने स्तर पर यही कार्य कर रहे होते हैं। महामानवों
और भगवान का अवतार लेने वाले पथप्रदर्शकों ने भी अपने जीवन में अनेक कष्ट सहे हैं,लेकिन
उन्होंने कभी भी मानव सेवा का मार्ग नहीं छोड़ा।
( इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता
के श्लोकों व उनके अर्थों को केवल एक प्रेरणा के रूप में लिया गया है।लेखक में भगवान
श्रीकृष्ण की वाणी की व्याख्या या विवेचना की सामर्थ्य नहीं है।उन्हें आज के संदर्भों
से जोड़ने व स्वयं के लिए जीवन सूत्र ढूंढने व उनसे सीखने का एक प्रयत्न मात्र है।वही
सुधि पाठकों के समक्ष भी प्रस्तुत है।)
डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय