''कवायत आज की"
जख़्म से दिल जार - जार हुआ
अपने भी पराये समझ रहे,
मन में फ़कीरी का ख़्याल हुआ
दुनिया का अज़ुबा इंतिहा हुआ
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ख़्वाब का क्या (?) है भरोसा-
कब (?) टूट कर बिखर जाएँ
यादों का गुबार तक गुम हो
अलविदा कह जाए
तन नहीं दिल बन
दिल में समा जाओ
तूंफा झेल कर किया कबूल,
गहरी ख़ंदक नफ़रत की न बनाओ
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चमक कर भी अँधेरों में समा जाती हो
तड़क कर भी बिन बरसे गुम हो जाती हो
गमक कर भी साँसों कि तिश्नगी न मिटा पाती हो
अब गहरे जख़्मों पर हँस कर मरहम लगाती हो!
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शुक्रगुज़ार हूँ, रहमत से दीदार हुआ
आमीन हीं खुबसूरत, नेह के पार हुआ
★★★डॉ. कवि कुमार निर्मल★★★