लद्द-फद्द हो,
जग को देते हीं रहते हैं!
क्या जग भी
इनको भी उतना हीं देता है?
जड़ से पत्तों तक
औषधीय गुण रहता है!
हम मृदु वाणी त्याग
कटु वचन का संबल लेते हैं!!
फलों का स्वाद तुष्ट करता है!
हम जीवन को ध्रिणा से भरते हैं!!
लद्द-फद्द हो,
जग को देते हीं रहते हैं!
क्या जग भी
इनको भी उतना हीं देता है?
डॉ. कवि कुमार निर्मल