"आहत मानवता"
यह सदी भी यूँ हीं
व्यतीत हो आदतन चिढ़ायेगी।
माँ क गोद सूनी की
सूनी हीं रह जीभ बिलाएगी॥
सपूतहीन बंजर हीं
भूमि यह रे रह जाएगी।
अहिंसा के नावें
बली रोज चढ़ाई जायेगी॥
सत्यवादिता पर मिथ्या की
हवि आहुति बन राख बनेगी।
सदाचारियों पर चापलूसी की
सरकार कल थी, आज चलेगी॥
हाहाकार चहुदिसि व्याप्त,
"त्राहिमाम्" गुँजायमान् होगा।
मर्यादा का हनन, नग्नता का शोर मचेगा॥
पापाचार-दुराचार-भ्रष्टाचार की
दुदुंभी बजेगी-- ढ़ोल बजेगा।
माँ-बहन-बेटी की "अस्मत" का खुल्लम-खुल्ला बजार चलेगा॥
अमीर चमक-दमक-पनपेगा,
दीन-हीन-निरीह गरीब कंगाल बनेगा।
रक्त पिपासा, मंजा की क्षुधा शांत कर,
दुष्टजन अट्टहास कर राज करेगा॥
धूँ-धूँ-धूँ कर संध्या से हीं सारी रात,
अनगिनत चितायें जल भभकेगी।
कवि की कलम मानव की-
पीड़ा से आहत हो टूट रोयेगी॥
डॉ. कवि कुमार निर्मल