"राधा भाव और कृष्ण"
माधुर्य भाव तीव्र हो,
जब आकर्षित करता है!
राधा भाव में भक्त जब
भाव-विभोर होता है!!
बिछोह क्षण-मात्र का भी
वह सह नहीं सकता है!
तिश्णा से शुष्क हो,
क्षुब्द बहुत वह तब होता है!!
तन-मन अवसान-शोकग्रषस्त,
मृत प्राय: वह हो जाता है!
व्याकुल-आकुल हो,
मृग-तृष्णा सा
पीड़ादायक होता है!!
कृष्ण प्राण-केन्द्र है,
परिधि बिन शून्य
सम होता है!
श्नेह-सामिप्य प्राप्त कर हीं
राधाभाव प्रबल हौता है!!
डॉक्टर कवि कुमार निर्मल
पुनश्च:
मेरे हिसाब से कृष्ण और राधा अलग हो हीं नहीं सकते।दोनों एक हीं परमसत्ता के दो अन्यान्य पहलू हैं के सिक्के की तरह।परिचयात्मक एवम् मुल्यांकन भौतिक तत्व हैं,अध्यात्म में परमाप्रकृति विश्व नाभी का मान-उपमेय उपलब्ध हैl कृष्ण अथवा परम पुरुष ने अपने महापञ्चभूत को प्रकृति के रूप में अभिव्यक्त कर हीं सृष्टी रचना की, अब उसका अलग से अस्तित्व रह कहाँ गया सापेक्ष रूप में? विलग करने का प्रयाश असंभव है, यानी अगर कोई अपने को उससे अलग समझ रहा है तो यह परममिथ्या है। भौतिक जगत में अष्टपाश-सट्ऋपुओं के प्रभाव में व्यक्ति अपनी पहचान खो सकता है भ्रमवश। अध्त्मयात्वामवाद में इसी मिथ्याधारणा से पटाक्षेप किया जाता है ध्यान-धारणा से।जिस प्रकार एक मछली जल में रह कर भी आजीवन प्यासी रह जाती है उसी प्रकार मनुष्य मायाजाल में अहम् भाव ग्रष्त हो आजीवन छट-पट करता रहता है।रजोगुणी वा तमोगुणी बन वह विश्व-केन्द्र या ब्रह्म-नाभी से दूर परिधी की ओर विकर्षित हो जाता है। साधना-सेवा-त्याग एवम् सदगुरू की अहेतुकी कृपा से सतोगुणी बन एक साधक सहज हीं क्यभाव वा सामिप्य-सानिध्य- साञ्जुज्य के परम सुख से आप्लावित हो परमानन्द अवस्था पाप्त करता है और मुक्ति मार्ग पर अग्रसित हो पाता है, ही है अध्यात्मवाद।।गुरुकृपाहि केवलम्