तिरुपति के प्रसाद का झगड़ा,आस्था में आया क्यों ये धब्बा।मंदिर का पावन स्थान जो था,विवाद में क्यों उलझा हर गाथा।लड्डू की मिठास पर प्रश्न उठे,भावनाओं पर ठेस क्यों लगे।जो प्रसाद था भक्तों का हक,क्यों बन
अनकही फरियाद खुदा से, लौट आजा बीता समय तू, किंतु कालचक्र ऐसा चलता, समय ऐसा चलता ही रहता। कभी न एक पल को ठहरता। चलती घड़ी की टिक टिक, कहती अपनी जुबानी कहानी। अनकही फरियाद खुदा से बीते समय में पहुंच ज
प्रिय प्रेम (शर्माजी) सप्रेम स्मरण!ज़िंदगी के साक्षात्कार में, सारे जटिल प्रश्न विधाता के हाथ में और तोड़ मरोड़
अनकही फ़रियाद कुछ आंखों से बह निकलीपानी नमकीन था गालों पे लुढ़क गई कसमें खाने वाले लोग नजरों से क्यों उतर जाते हैं समझाया था दिल को कि नाज़ुक ना बनखेलनेवाले लोग हैं इस ज
नीली चादर में छुपा के छार,सहे सैकड़ों बोझों का भार,नित सहती है चोटें बेसुमार,फरियादी बेबस व लाचार।कभी हरीतिमा उसकी शान,आज होके बंजर सूखी जान।नदियाँ गीत सुनातीं थीं कभी,अब हुए, मौन कहकहे सभी।आंधी, बारि
इंतज़ार करतीं हूं उसका हर घड़ी, वो कब आएगा यहां, रह सकती नहीं हूं उसके बिना, सोचतीं हूं बस यही !वो आता है जब भी सामने ,लब सिल जाते हैं