अस्पताल की खिड़की
अस्पताल की खिड़की
...मेरी सखी बन गई है
रो लेती हू...हंस भी लेती हूं
इनके साथ.....कुछ बांट भी लेती हूं
कुछ मांग भी लेती हू....थोड़े से हौसले
.....और थोड़ी सी उम्मीद
ये अस्पताल की खिड़की.....और मै.....
परदों की सरसराहट...जैसे दर्द के आगोश मे डूबी किसी की साँसें
शीशे के बाहर की धूँधली शाम से पुछ लेती हूं
उनका दर्द थोड़ा सा सुन लेती हूं
सुबह से धूप मे चलते चलते नीम बेहोशी सी छा रही है
तभी तो ये शाम धुंध का चादर ओढ़ लेती है
ये पेड़ की टहनियां भी अब थक रही हैं पत्तों को ढोते ढोते
इनके भी धैर्य का राज मै थोड़ा सा पुछ लेती हूं
कैसी हो सखी तुम ?
कैसे धूप सहकर भी दूसरों को छांव देती हो?
घोंसले मे चहचहाते चूजों की आवाज मे तुम्हारा जवाब सुन लेती हूं
और…..मुस्कुरा कर मै फिर से....
खिड़की पर अपना सिर टिका लेती हूं
हां सखी........
मै भी अब तुमसे अपना एहसास बांट लेती हूं
आरती प्रियदर्शिनी , गोरखपुर