*हमारा देश भारत आदिकाल से आध्यात्मिक ज्ञान ज्ञान का केंद्र रहा है | आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने से पहले मनुष्य को आत्मज्ञान प्राप्त करना होता है | जीवन के दीपक के बुझने के पहले स्वयं को पहचान लेना ही आत्मज्ञान है | मनुष्य प्रत्येक विषय में आनंद का अनुभव करना चाहता है , हमारे पूर्वजों ने भौतिक आनंद के साथ साथ वास्तविक आनंद का भी अनुभव किया जिसे आत्मानंद या चिदानंद अक्षय आनंद आदि कहा जा सकता है | यह लौकिक जीवन में उपलब्ध ना होकर पारलौकिक जीवन में उपलब्ध हो पाता है | इसके लिए आत्मा - परमात्मा के विषय में पूर्ण ज्ञान हो जाने के बाद परमात्मा की शरण में जाना पड़ता है तभी दिव्यानंद का अनुभव हो पाना संभव है | इस स्थिति में पहुंचने के लिए हमारे पूर्वजों ने अधिक कुछ ना करके मात्र अपने दृष्टिकोण को परिवर्तित किया क्योंकि बिना दृष्टिकोण को बदलें गहराई में नहीं उतरा जा सकता | दृष्टिकोण बदलता है तो सारी चीजें बदल जाती है और जिस दिन मनुष्य का दृष्टिकोण बदल जाएगा तो सर्वत्र आनंद ही आनंद बिखरा दिखाई देगा | दृष्टिकोण बदलने का तात्पर्य यह है कि हम भौतिकता में स्वयं को व्यस्त ना रखकर आत्मज्ञान की खोज में अधिक से अधिक समय व्यतीत करें | पुराणों की कथाओं में हमें प्रायः पढ़ने को मिलता है कि हमारे पूर्वजों ने बहुत कठिन से कठिन तपस्या की थी यह दृष्टिकोण परिवर्तन का ही परिणाम था क्योंकि उन्होंने जान लिया था कि यह जीवन क्षणभंगुर है और इस जीवन का लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति करना है ! इसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर उन्होंने भौतिक आनंद के साथ साथ वास्तविक आनंद प्राप्त करने का प्रयास किया | भगवान को सच्चिदानंद कहा जाता है ! वे आनंद के सागर है ! यदि आनंद प्राप्त करने की इच्छा है तो बूंद बूंद आनंद की प्राप्ति का प्रयास ना करके आनंद के सागर में स्नान करने का या उसमें समाहित हो जाने का प्रयास प्रत्येक मनुष्य को करना चाहिए , इससे उसका लोक और परलोक दोनों ही सुधर जाएगा |*
*आज मनुष्य इंद्रिय सुख को ही अपना आनंद मानने लगा है | आज प्रत्येक विषय में आनंद प्राप्त करना प्रत्येक मनुष्य का मुख्य लक्ष्य रह गया है | मनुष्य दिन-रात उसी की प्राप्ति में लगा रहता है , जो जिस स्थिति में है उसी स्थिति में आनंद की अनुभूति कर रहा है | गांव में रहने वाला एक ग्रामीण इसलिए आनंदित है कि उसे स्वस्थ वायु , प्रकृति और अनेक प्राकृतिक साधनों का भोग भोगने को मिल रहा है | शहर में रहने वाले उनसे अधिक आनंदित हैं क्योंकि उन्हें उच्च साधन उपलब्ध हैं | परंतु मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का कहना है कि अनेक प्रकार के भोगों में लिप्त मनुष्य यह नहीं जान पाता है कि "भोग से ही रोग उत्पन्न होते हैं" जिसे मनुष्य आनंद मानकर प्रसन्न होता है क्या वह वास्तविक आनंद है ? जिनसे इंद्रियों के विषय तृप्त होते हैं उन्हें वास्तविक आनंद की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता | स्वाभाविक आनंद से ही यदि आत्मा तृप्त हो जाती तो संभवत यह प्रश्न इतना महत्वपूर्ण होता जितना लोगों के सामने हैं ! आनंद क्या है ? पूर्णानंद तो वही है जहां किसी प्रकार की विकृति ना हो , किसी प्रकार की आशंका - अभाव या परेशानी ना उठानी पड़ती हो ! स्वाभाविक जीवन में जो आनंद मिल रहा है उसमें हमारा अभ्यास बन गया है इसलिए अनुचित होने पर भी वह ठीक ही लगता है | शुद्धतम आनंद प्राप्ति के लिए दृष्टिकोण को परिमार्जित करने की आवश्यकता है | अलौकिक आनंद कभी भी सिद्धिदाता नहीं हो सकता | जो मनुष्य अलौकिक आनंद को ही पूर्ण आनंद मानकर इंद्रिय जन्य भोगों को तृप्त करने में आनंद की अनुभूति कर रहे हैं वह अपने साथ ही छलावा कर रहे हैं | इस विषय पर दृष्टिकोण बदलने की आवश्यकता है | जिस दिन मनुष्य का दृष्टिकोण परिवर्तित हो जाएगा उसी दिन उसे वास्तविक आनंद प्राप्त होने लगेगा |*
*जिस दिन दृष्टि बदल जाती है उसी दिन सृष्टि भी बदली - बदली सी लगती है | दृष्टिकोण के बदलने से ही मनुष्य महत्वपूर्ण भौतिक वस्तुओं को छोड़कर वास्तविक सुखों के चिंतन में लग जाते हैं और यही जीवन का अंतिम लक्ष्य होना चाहिए |*