*मानव जीवन में धर्म का होना बहुत आवश्यक है ! बिना धर्म के मनुष्य अमर्यादित हो जाता है ! धर्म क्या है ? इस पर अनेकों विद्वानों के मत मिलते हैं और सब का निचोड़ जो मिलता है उसका यह अर्थ यही निकलता है कि धर्म धारण करने की चीज है ना कि त्याग करने की ! जो धारण करने में समर्थ है जो हमारे जीवन को धारण करने में , संभाले रहने में समर्थ है वही धर्म है ! धर्म का आशय किसी मत , पंथ , मजहब , संप्रदाय से कदापि नहीं है यह सभी तो धर्म प्राप्ति के साधन मात्र हैं साध्य नहीं ! धर्म एक मर्यादा बंधन है जो मनुष्य को मर्यादा में रहने को प्रेरित करता है जो मर्यादा की सीमा को लांघता है वह अपने जीवन को पतन की ओर ले जाता है ! दुर्योधन , दुशासन , रावण , कुंभकरण आदि ऐसे कई पौराणिक - ऐतिहासिक चरित्र है जो धन-धान्य से परिपूर्ण होते हुए भी मर्यादा में नहीं रहने के कारण विनाश को प्राप्त हो गये ! मर्यादा क्या है ? मर्यादा से तात्पर्य है मानवीय मर्यादा का ! मनुष्य में मनुष्योचित मर्यादा ना हो , मानवीय गुण ना हो तो फिर वह मनुष्य कैसा ! धर्म ही मनुष्य में मानवीय गुणों को भरकर उसे सही मायने में मनुष्य बनाता है ! जैसे तूफानों में भारी बर्बादी तबाही देखने को मिलती है वैसे ही धर्म के न होने पर मनुष्य जब अधर्म के मार्ग पर चल पड़ता है तो उसके जीवन में भी भारी तबाही के तूफान आते रहते हैं जिसके कारण उसका सर्वनाश हो जाता है ! जैसे समुद्र में ज्वार भाटे उठते रहते हैं इसी प्रकार धार्मिक दृष्टि न होने के कारण मनुष्य के मन में विषय - वासना , क्रोध , लोभ , मोह , ईर्ष्या , द्वेष आदि विचार रूप में ज्वार भाटे की तरह उठते रहते हैं ! फिर उन दुर्गुणों के आवेश में मनुष्य अधर्म के मार्ग पर चल पड़ता है जिससे उसका जीवन पतित हो जाता है ! धर्म पालन का अर्थ जीवन या परिवार से पलायन नहीं है बल्कि यह तो हमें जीवन से पलायन करने से रोकता है ! अपने कर्तव्य पथ पर अविरल चलते रहने का नाम ही धर्म है ! इसलिए धर्म का व्यापक अर्थ है - कर्तव्य ! धर्म का पालन तभी हो सकता है जब हम आध्यात्मिक होंगे ! आध्यात्मिकता को जीवन में उतारने के लिए धर्म का होना आवश्यक है ! धर्म एवं आध्यात्मिकता दोनों एक दूसरे के पूरक हैं इसे समझने की आवश्यकता है !*
*आज के आधुनिक युग में धर्म एवं आध्यात्मिक को लेकर आम जनमानस में कई प्रकार की भ्रांतियां भरी हुई है ! बहुत से लोग यही समझते हैं की धर्म कर्म करने का अर्थ है अपनी जिम्मेदारियां को छोड़कर सिर्फ पूजा पाठ करते रहना ! कुछ लोग यह कहते हैं कि हमारी अभी आयु ही क्या हुई है जो हम धर्म कर्म करके साधु संत बन जायं ! हां ! जब उम्र का अंतिम पड़ाव आएगा तो कुछ धर्म कर्म कर लिया जाएगा अभी तो जिंदगी में आनंद का भोग करना है ! मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" अनेक परिवारों में देखता हूं कि यदि बहू सुबह कुछ पूजा पाठ करने लगती है तो उसके परिवार वाले उसको ताना मारते हैं ! इसका कारण यही है कि परिवार के वे लोग धर्म अध्यात्म के विषय में कुछ जानते ही नहीं है ! धर्म अध्यात्म ना तो जीवन के विरोधी है और ना ही धर्म अध्यात्म का मतलब जीवन से पलायन होना है परंतु आज लोग धर्म कर्म करने का अर्थ यही समझते हैं कि घर परिवार को छोड़कर धर्म किया जाय ! जबकि सबसे बड़ा धर्म है मानव धर्म ! हम महाराज मनु की मैथुनी सृष्टि से उत्पन्न हुए हैं हमारा कर्तव्य है अपने परिवार का पालन करना ! परिवार पालन के कर्तव्य एवं धर्म-कर्म में सामंजस्य बनाए रखना ही वास्तविक धर्म का पालन है , परंतु आज मनुष्य अपने पारिवारिक कर्तव्यों का निर्वहन ना करके समाज को दिखाने के लिए धर्माधिकारी बन जाता है ! हमारे शास्त्रों में पुराणों में कहीं भी ऐसा वर्णन नहीं आया है कि धर्म का पालन करने के लिए अपने परिवार का त्याग कर दिया , कभी भी धर्म का पालन दिखावे के लिए किया जाय ! परंतु आज चाहे वह मठाधीश हो या सामान्य परिवार आज धर्म दिखाने के लिए ही अधिक किया जा रहा है ! स्वधर्म का पालन करने वाले उंगलियों पर गिने जा सकते हैं ! माता-पिता के प्रति जो पुत्र का धर्म होता है आज वह कहीं-कहीं ही दिखाई पड़ रहा है ! एकपत्नीव्रत होने का जो धर्म एक पति का होता है वह भी बहुत कम ही देखने को मिल रहा है ! इसका कारण यही है कि लोग धर्म की व्याख्या को सही ढंग से समझ नहीं पा रहे हैं ! आज आवश्यकता है कि धर्म को समझा जाय ! धर्म क्या है ? धर्म का पालन कैसे किया जाय ? जब तक यह समझ नहीं आएगा तब तक मनुष्य न चाहते हुए भी अधर्म के मार्ग पर बढ़ता चला जाएगा ! धर्म का अर्थ है मर्यादा का बंधन ! जब तक जीवन मर्यादित होता है तब तक ही सुखी होता है , मर्यादा का बांध टूटते ही मनुष्य के जीवन का पतन प्रारंभ हो जाता है ! इसलिए प्रत्येक मनुष्य को मानव धर्म अर्थात अपनी मर्यादा का ध्यान रखते हुए धर्म पालन में तत्पर रहना चाहिए !*
*मनुष्य जब तक धर्ममय जीवन जीता है तब तक उसके जीवन में सुख समृद्धि परिपूर्ण होती है ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार एक नदी जब तक अपनी सीमा में बहती है तब तक वह जीवन देती है परंतु जब वह सीमा लांघ जाती है तो बाढ़ जैसी भी विभीषिका आती है उसी प्रकार मनुष्य भी मर्यादा लांघने के बाद जीवन को समाप्त करने वाला हो जाता है !*