*ईश्वर की असीम अनुकंपा से जीव मनुष्य योनि प्राप्त करता है और उसे मानव कहा जाता है ! मानव वही है जिसमें मानवता हो ! मानवता का अर्थ है कि संसार के साथ-साथ अपने जीवन का कल्याण कैसे हो इस पर विचार करना ! आत्म कल्याण की ओर अग्रसर रहने वाला ही मानव कहा जा सकता है नहीं तो पशु और मनुष्य में कोई अंतर नहीं है ! खाना , सोना , डरना स्त्री-पुरुष का मिलना , क्रोध करना यह सभी बातें जितनी मनुष्य में हैं उतनी ही पशुओं में भी है ! मनुष्य में केवल एक ही विशेषता है कि वह अपने कल्याण की बात सोच सकता है , आत्म कल्याण का साधन कर सकता है और आत्म कल्याण को प्राप्त कर सकता है ! जो इस विवेक से रहित है वह तो मनुष्य के रूप में पशु ही है ! मनुष्य में भगवान की दी हुई बुद्धि-शक्ति है , विवेक शक्ति है और उसको नवीन कर्म के संपादन का अधिकार प्राप्त है ! इस बुद्धि शक्ति और कर्म अधिकार का सदुपयोग करके ही मानव -:महामानव , देवता ही नहीं बल्कि परमात्म स्वरुप को भी प्राप्त कर सकता है और यही मानव जीवन का परम उद्देश्य है , परंतु यदि मनुष्य के द्वारा उसी बुद्धि शक्ति का विपरीत दिशा में प्रयोग होने लगता है तो उसके द्वारा विपरीत कर्म होने लगते हैं और वह असुर बन जाता है ! ऐसे मनुष्य प्रतिपल संसार के प्राणियों का घोर अहित करने लगते हैं ! जिसके कर्मों से प्राणी दुखी होते हैं वह स्वयं कभी प्रसन्न नहीं रह सकता ! मनुष्य का यदि व्यवहार शुद्ध है तो परमार्थ शुद्ध ही होगा ! व्यवहार को शुद्ध करने के लिए जीवन में सावधान रहना पड़ता है , जहां मानव की सावधानी हटती है वही जीवन में दुर्घटनाएं घटने लगती है , इसलिए प्रतिपल सावधान रहते हुए अपने मानव जीवन के उद्देश्य को कभी नहीं भूलना चाहिए !*
*आज प्रायः लोगों के मुख से सुनने को मिलता है कि मैं इतना धर्म कर्म करता हूं फिर भी भगवान की कृपा नहीं प्राप्त होती है और भगवत्कृपा के लिए मनुष्य नित्य नए-नए प्रयोग करने लगता है ! इतना करने के बाद भी जब उसको लगता है कि भगवत्कृपा नहीं हो रही है तो भगवान से विमुख होने लगता है ! ऐसे सभी लोगों से मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" यही कहना चाहता हूं कि उनको वह बात सदैव याद रखनी चाहिए जो वेदव्यास जी ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि "न मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किञ्चित्" अर्थात मनुष्य होने से अधिक अच्छा कुछ भी नहीं है ! हमको मानव योनि मिली यह साक्षात भगवत्कृपा है ! अन्य प्राणियों की तुलना में विवेक हमको प्राप्त हुआ यही मानव जन्म की विशेषता है ! उस विवेक का प्रयोग आज मनुष्य आत्म कल्याण के लिए कितना कर रहा है यह विचारणीय विषय है ! आज के भौतिकवादी युग में मनुष्य आत्म कल्याण के लिए साधन तो करना चाहता है परंतु आत्म कल्याण के सबसे सशक्त साधन सत्संग से उसने दूरी बना ली है ! यही कारण है कि मनुष्य सबसे श्रेष्ठ होते हुए भी पशुवत् व्यवहार कर रहा है ! कोई भी कर्म करने के पहले आज यह विचार नहीं किया जा रहा है कि यह कर्म करने योग्य है या नहीं ! अपने जीवन की श्रेष्ठता को आज का मनुष्य भूल गया है इसीलिए दिनों दिन पतित होता चला जा रहा है ! आवश्यकता है विशेष भगवत्कृपा को समझने की जो भगवान ने मानव योनि प्रदान करके की है !*
*बड़े भाग्य से हमको मानव योनि प्राप्त हुई है ! इस मानव योनि की उपादेयता को समझते हुए हमें अपने कर्म संपादित करने चाहिए जिससे कि हम सभी जीवो से श्रेष्ठ बने रहें !*