पैरो में काटे और कंकर चुभते हैं | उनसे रक्त निक्रलता हैं | पैर लह लहूलुहान हो गये हैं | कर्म की गति विचित्र हैं। भगवान ऋषभदेवको एक वरस तक अहार न मिला; महावीर स्वामीके कानों में कीलियों ठुकीं--आमरण कए्ट हुआ; प्रतापी पाण्डवोंको वनवन भटकना पढ़ा; मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र को अनेक कष्ट झेलने पढ़े; महासती सीताको लंकामें असह्य कष्ठ उठाने पढ़े और अन्तर्मं छोगोंने उनपर कलंक लगाया। ये सब भाग्य के खेल थे । आज सुरसुन्दरी भी उसी कर्म- की मारी ऐसी विर्पत्ति उठाती हुई चली जा रही है ।
वह चलते चलते थककर गिर पढ़ी | भूख प्यास आर थकानके मारे वह इतनी कातर हो गई कि, उसे अपने तन वदनकी भी सुध न रही । उस समय कोई विद्याधर विमानमें वैठकर उधरसे जाता था | उसने सुरसुंदरीको इस दशामे पड़े देखा ।
उसने तत्काल ही विमान ठहराकर सुरसुंदरौको अपने विमानमें विठ लिया, ओर फिर वह अपने घरकी तरफ चला | शीतछ पवनके लगनेसे तथा थोड़ी देरके आराम से सुरसुंदरी को होश आया । उसने विमानमें अपने व एक पुरुप के सिवा ओर किसी को न देखा । वह समझी यह फिर नई आपत्ति है। बह नीचे कूद पढ़नेकी इच्छा से उठनेका प्रयत्न करने लगी; परन्तु उससे उठा न गया । विद्याधर ने उसे चेत में देखकर कहाः--बहन ! अभी उठनेका प्रयत्न न करो । तुम्हारा शरीर वहुत शिथिल हो रहा है ।
सुरसुन्दरीने कहा;-- में किसी पुरुष के साथ जाना नहीं चाहती । मुझे उतार दो; नहीं तो में यहाँसे कूद पहेँगी।” विद्याधर बोला वहिन में नहीं समझ सकता कि, तुम्हे पुरषों से ऐसी घृणा क्यों है ” सुरसुन्दरी उत्तेमित हो उठी और कहने लगी ॥-“विश्वास- घातक, दुराचारी, धमाधर्म विचार-द्वीन, प्रतिज्ञा का भंग करने- वाले, आर वकरीके समान स्री कों शेरनी तरह अपना भक्तण समझने वाले पुरुषों से जितना दूर रहा जाय उतना ही अच्छा है |”
विद्याधर वोला।--“ बहिन में प्रशुको साक्षी रख पतिज्ञा करता हूँ कि, मैं तुम्हें अपनी सगी वहन के सिवा और कुछ नहीं समझँगा | तुम विश्वास करो और अपनी सारी कथा सुनाओं। ” सुरसुन्दरीने उसे धर्मात्मा समझकर अपनी सारी कथा सुनाई | सुनकर विद्याधर की आँखों में आ गये। उसने कहा ।-- कोई भय नहीं है वहन ! अब तुमको कोई दुख नहीं होगा । ”
विद्याधर और सुरसुन्दरीने नंदीखर द्वीपकी यात्रा की। लौटते समय वे मुनि महाराज के दशेनाथ एक जगह उतरे।धर्मोपदेश श्रवण करनेके वाद सुरसुन्दरीने पूछा--“में कब अपने पतिकी आज्ञाका पाछन कर सकूँगी ओर कब मुझे 'उनके दशन होंगे ! कहाँ होंगे मुनिने संक्षेप में उत्तर दिया;--“ वेनाट द्वीपम तुझे तेरा स्वामी मिलेगा | ” सुरसुन्दरी ओर विद्याधर मुनिकों नमस्कारकर विद्याधर के राजमें गये ।
विद्याधर और उसकी पत्नियों सुरसुन्द्री का वा आदर भक्ति करते थे । सुरसुन्दरी आनंद से अपना समय विताती थी। उसने बहा रहकर तीन चार विद्याएं भी विद्याधर के पास- से सीख ली | जव॒ उसकी साधना पूरी हुई, विद्याधर पूणे अधिकार हो गया तव उसने विद्याधरसे कह/--“ वंधु ! यहाँ रहते मुझे वहुत दिन हो गये | अब मुझे अपना कार्य साधन करने के लिये वेनाट द्वीपमें जाना है। वहाँ पहुँचा देने की कृपा और कीजिये | ” विद्याधर वोला।-- वहिन ! यह राज तुम्हारा ही है। यहीं रहो । मैं तुम्हरे स्वामी को भी खोज लाऊँगा। तुम्हारे जाने- से हमारा घर शून्य हो जायगा । ”
सुरसुन्दरीने कहा वन्धु ! मुझे भी इस घरको छोड़- कर जाते दुःख होता है, परन्तु स्वामी के विना यहाँ रहना इससे भी ज्यादा दु/खदायी है। अतः कृपांकर मुझे वेनाट द्वीप पहुँचा दीजिये | ” सखुरसन्दरी वेनाट द्वीपमें आई और रूप परिवर्तिनी विद्या के पुरुष बनकर रहने लगी।