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भाग 4

27 अगस्त 2022

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तब माताने कहाः--“ बेटी, संसार नारी के लिए पति से  बढ़कर  और कोई नहीं है। पतिं के हृदय कों प्रफुलित रखना ही स्त्री का का सबसे बड़ा कर्तव्य है। पतिकी भूलकों न देख उसके गुणों में लीन होना और उसकी दुर्बलताओ अपनी शक्तिसे, अपने प्रेम  से और अपने आचरण से मिटा देना ही नारी का आदि धर्म  है। इस कतेव्य से-इस धर्म से कभी मत डिगना  | धर्म क्रियाएँ निरंतर करना और संकट पढ़ने पर विशेष रूपसे-मन, वचन, कर्म के योगों कों सब तरह से रोक कर “ भगवान का ? स्मरण करना। यह दुख से छूटकरा दिलाएगा  ।

सुरसुन्दरीने सासससुर के चरणोंमें शिर नवाया। ससुर आसिर्वाद देकर चला  गया। सास ने उसके मस्तक पर प्रेम के साथ हाथ रखा, उसे उठाया और कहा- पुत्री ! मैं तुझे क्या उपदेश हूँ? तू स्वयं  शिक्षित है, सब कुछ समझती है। तो भी तुझे दो शब्द कहना चाहती हूँ। मैं  आज  अपना हृदय का  लाल , अपनी ऑँखों का तारा तेरे भरोसे रवाना करती हैँ । वह आज तक मुझे छोड़कर कभी नहीं रहा। 

अतः उसको जब जब मेरी याद आवे, व्याकुल हो, तव तब तुम उसे ढारस बधाना और  उसके शरीर एवं मनका यत्न करना। इसीमें तुम दोनों का सुख है।” ' पिताने पुत्रको यात्रा का शुभ शगुन सूचक  नारियल हाथमें देते हुए कह-“ बेटा ! बनमें विचरणकरने वाले साहसी तब माताने कहाः--“ बेटी, संसार में  नारी के लिए पति से  बढ़कर  और कोई नहीं है। पतिं के हृदयकों प्रफुलित रखना ही सलीका  सबसे बड़ा कर्तव्य है।

जहाज सिंगल द्वीप के टापू में पंहुचा। इस टापूके सिवा दूसरी जगह बहुत दूर तक कोई टापू नहीं आता था। तीन चार दिन तक जहाज अनन्त जहूराशि पर ही तैरते रहेंगे, इसलिये जहाजों ने सिहल्द्वीप में   लंगर डाले । फल फूलो से परिपूर्ण उस द्वीप को देखकर सबके मनमें वहाँ दो चार दिन रहनेकी इच्छा हुई । मगर मालूम  हुआ कि,  वहाँ पहाड़ में एक मानव-भक्षी 

राक्षस रहता है| रात के समय वाहर निकलता है ओर जिस मनुष्य की पाता है उसीकों भक्षण कर जाता है| यह जानकर सबने वहाँ रहने का विचार छोड़ दिया। सवके सब जल्दी जददी पानी भरने और हो सके उतने फल फूछ लेकर जहाजो में रख लेनेके काम मे लगे ।

अमरकुमार और सुरसुन्दरी भी जाकर एक वृक्षके नीचे सघन हृक्षराशीके बीच, हरी हरी दूवके ऊपर बेठ गये । दोनों वार्तें करने लगे| वाल्य जीवनकी वार्तें-विद्यालयके आनंद उलास एक एक करके सवका वर्णन होने लगा | सुरसुन्दरी को वातें करते करते ऊँघ आने लगी | वह अपने पति की गोदमें सिर रखकर लेट गई; लेट्ते ही मीठी नींद लेने लगी ।

वातोके सिलसिलेमें अमरकुमारको सुरझुंदरीकी वह वात याद आई जो सुरसुंदरीने, उसके पीछे से सात कौड़ियों खुलवा लेने पर, तिरस्कारके साथ अमरकुमारको कही थी कि सात कोड़ी तो में राज्य लेती । ”

वचपनमें इस तिरस्कारका वदला न ले सका था। आज उसे तिरस्कारका बदला लेनेकी सूझी  । उसने क्रोध पूर्वक मन ही मन कहा।-“अभिमानिनी ! आज में तिरस्कार का बदला होगा और तेरे अभिमानकों चूण करूँगा।” उसने धीरे से उसका सिर एक पत्थरपर रख दिया और उसके  पीछे सात कौड़ियों बाँध कुछ लिख  दिया।

अमरकुमार चला | चला मगर उसके पेर नहीं उठते थे । विवेक आकर उसको इस दुष्ट कामझे लिये फटकारता था| वह कहता था,-मूर्ख | वाल्यक्रीड़ाके खेल और उसके अविचारी कथनका यह बदला ! मुग्धा वाला के अनन्त विश्वास ओर प्रेमके परिवर्तन में ऐसी विश्वास घातकता |!

यह नीचता ! हजारों मनुष्योंके सामने सदा जिसकी रक्षाक्री प्रति की थी; जिसको सुखी बनाने का अभिवचन दिया था उस प्रतिज्ञा का यह पालन! उस वचनका यह निवाह ” 

अमरकुमारने कहा,--“सच है। अज्ञान और अजानमें कही हुई वातका विचार क्या ? नहीं मुझे यह शूद्र  कार्य  नहीं करना चाहिए । अगर में इसे छोड़कर चला जाऊँगा तो इसके प्राण नहीं वर्चेंगे । !

अमरकुमार वापिस सुरसुन्दरीके पास गया | उसके सिर- पर हाथ रखा, मगर उसकी आँख  न खुली | दुभोग्य का भयंकर विपाक उदय में आने बाला  था फ़िर उसकी नींद क्यों कर खुलती !

अमरकुमार को फिर वाल्यावस्था की घटना और उस अब- सरपर की हुई प्रतिज्ञा याद आई। उसके मनमें फिरसे दुरद- मनीय बुद्धिका दौर आरम्भ हुआ | उसने सोचा, जैसा करता है उसे उसका प्रतिफल मिलता ही है। संसार में घातका प्रतिघात होता ही है। पढ्ति बच्चे, बूढ़े या जवान किसी क्रे साथ रिआयत नहीं करती। अग्नि जलाती ही है। पानी भिगोता ही है।

केसे छूट सकते हैं ? इसका भविष्य जो होगा सो होगा । मुझे अपनी प्रतिज्ञा पूणे करनी ही चाहिए। इस अभिमानिनी का  घमंड चूर्ण करना ही श्रेष्ठ है | जैसे समुद्र में  ज्वार आता है आर चट्टान से टक्षर खाकर पानी वापिस लौट  जाता है  वैसे ही विवेक -ज्ञान-सागर की एक उत्ताल तरंग उठी ओर सबको अपने में समा लेनेके लिये आगे बढ़ी; परन्तु सुरसुंदरीके बुरे कर्मेके उदय की ओर अमरकुमार के दुष्ट विचारकी चद्टानसे ट्कराकर वापिस लौट गई | अमर कुमार अपनी पत्नी, राजसुता, माता पिताकी ऑँखोंका तारा, सासससुरकी प्रिय बधूको अकेली भयानक बनमें छोड़कर चला गया।

जब अपने जहाजोंसे थोड़ी दर रहा तव रोने-चिढाने लगा,-हाय सुरसुंदरी ! में अब तेरे वंगेर अकेला कैसे रहूँगा ! माता पिताकी जाकर क्या कहूँगा! सासससुर को केसे मुंह . दिखाऊँगा ? लोग जमा हो गये | उनके पूछने पर अमरकुमार ने कहा।--“राजसुताको राक्षस मारकर खा गया हे।” सबने यह वात मान लछी। धीरे धीरे, अपरकुमारफो धीरज वेंघाकर सब अपनी अपनी जगहपर जा बेंठे | अमरकुमारने भी अपने जहाजपर सवार होकर जहाज चढाने का हुक्म दिया। पाल तान दिये गये और जहाजोंके लंगर  उठा लिए गये। अनुकूछ वायु पाकर वेड़ा तेजीके साथ आगेकी ओर वढ़ा ! 





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रचनाएँ
सुरसुन्दरी
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सुरसुन्दरी नारी होकर तेरे यह भाव सराहनीय है पुरुष धर्म कठोरता है तो नारी का धर्म कामनीयता और कोमलता है तो स्त्री धर्म दया है पुरुष का धर्म उठना है तो स्त्री धर्म सर्वज्ञान है इन विरोधी गुटों के बीच नारी वास्तविक रूप कैसे प्रकट हो सकता है जो पति स्नेह और आदर करता है उससे तो भक्ति और प्रेम सभी स्त्रियां करती हैं यह तो एक साधारण बात है स्त्री वास्तविक रूप तो उस समय प्रकट होता है जब स्त्री अपने निर्णय पति की मार खाकर भी उन पैरों की पूजा करती है जो उसकी पीठ पर छाती पर या अनंत निर्दयता पूर्वक गिरते हैं इसी से उसका वास्तविक नारी रूप पति रूप देवी रूप जगत नारायण रूप प्रकट होता है मैं भी नारी हूं वास्तविक अर्थ में नारी रहूंगी |
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सुरसुंदरी भाग 1

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“ छिः ! सुरसुंदरी ! नारी होकर तेरे भाव ! पुरुषका धर्म कठोरता है तो नारी का धर्म कमनीयता और  कोमलता है । पुरुषका  कार्य  निर्दयता है तो ख्रीका धर्म दया है । | पुरुषका धर्म छूटना है तो ख्लीका धर्म सर्वे

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भाग 2

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द्वीप  गोलाकार है । इसका घेर तीन ढाख योजनका हैं। इसीमें चम्पा नामकी एक सुन्दर, रम्ये, धनपान्यपृणे नगरी थी । इसके अन्दर रहने वाले सभी सुखी थे, उस नगरीके राजाका नाम रिपुयंदेन था। बह अपने देशवासियां- का

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भाग 3

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वहुत सोच विचार के वाद दोनों ने यही स्थिर किया कि, अपरकुमार के साथ सुरसुंदरी का व्याह कर दिया जाय। अमरकुमार के पिता धनावह बुलाये गये | राजा ने उनका बड़ा आदर सत्कार किया और अपने मनकी वात कही | धनावह सर्

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भाग 5

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सुरसंंदरी जागी, उठी, अंखें मढीं, आसू  पोछा  और इधर उधर देखने लगी | कोई दिखाई नहीं दिया। बेठी थी खड़ी हो गई और वक्षों में यहाँ वहाँ खोजने लगी; मगर अमरकुमार कई नहीं दीखा। वह घबरा भयसे हृदय धढ़कने लगा,मु

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 तब तुम यहां आनन्द हो ? तुम्दें फिरसे मनुष्य-समाज में जानेकी इच्छा नहीं है ” सुरसतुन्दरीके हृदयमें बढ़ा आन्दोलन उठा | वह कुछ क्षण  पृथ्वी की ओर देखती रही |  फिर जरा सिर उठाकर बोली इस भयानक वनमें, खग-म

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करेगा अगर  फिर आत्महत्या करना भी पातक है । तो किया क्या जाय  आत्महत्या विशेष पातक है या शील-भंग शील-भंगके विचारने उसकी अजब दशा कर दी। वह हृतासे छुरी पकड़, इधर उधर टहलने लगी।  नहीं । समुद्र कृद पहना ह

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भूख  जिससे स्त्रीका जीवन है, जिसके कारण स्त्री सिर ऊँचा करके चल सकती है, जिसके कारण ग्रह सगे है, जिसके कारण स्त्री देवी कहलाती है, जिसके कारण उसे सर्वोपरि स्थान मिला है, मिसके प्रभावलसे सारा संसार स्त

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27 अगस्त 2022
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पिछली रात के सन्नाटे मे किसी ने आकर उस कमरे के किवाड़, जिसमें सुरसुन्दरी आकाश पाताल की बातें सोच रही थी, धीरे से खटखटया  |  सुरसुन्दरी ने दरवाजा खोल दिया | नवयुवती अन्दर आईं। उसके हाथ एक रस्सा था। वह

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 पैरो में काटे और कंकर चुभते हैं | उनसे रक्त निक्रलता हैं | पैर लह लहूलुहान हो गये हैं | कर्म की गति विचित्र हैं। भगवान ऋषभदेवको एक वरस तक अहार न मिला; महावीर स्वामीके कानों में कीलियों ठुकीं--आमरण कए

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भाग 11

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उसने सात कौड़ियों के चने खरीदे । उन्हें लेकर वह शहर के बाहर जा वेठी | पहले दिन उसको तीन कोड़ियों का नफा रहा । दूसरे दिन भी इसी तरह चने लेकर गई। पाँच कौड़ियों- का नफा हुआ ! धीरे धीरे उसका व्यापार बढ़ा

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