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भाग 7

27 अगस्त 2022

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करेगा अगर  फिर आत्महत्या करना भी पातक है । तो किया क्या जाय  आत्महत्या विशेष पातक है या शील-भंग शील-भंगके विचारने उसकी अजब दशा कर दी। वह हृतासे छुरी पकड़, इधर उधर टहलने लगी। 

नहीं । समुद्र कृद पहना ही अच्छा है।  मेरे मृतक शरीरको छृए यह भी पाप है। शील-रक्षा करना आत्म-रक्षासे लाख गुना अच्छा है। यदि आत्मघात पाप हैं तो वह पाप का अंधेरा शीलरक्षाके अनंत तेजोमय प्रकाशमें अलोप हो जायगा।

ओह ! जीवन जाय, पति मिलने की इछा  नष्ट हो, माता पिता क़े दर्शनों की  खंड खंठ हो जायें; सात कौंडी में राज लेकर पति प्राप्त करनेके मनोरथ सदा के लिए मिट्टी में मिल जायें; मगर मेरा शील अखंड रहे | मेरा सत कायम रहे ! मेरे सततीत्वपर

कोई दाग न लगे | प्रभो  ! मेरे शील की रक्षा  करो | शील |

शील !! शील [!! ”

सुरसंंदरीन कोठ्ढीकी खिड़की खोली। अनन्त सम्रुद्र बाहर दिखाई दिया । उसने नवकार मंत्रका जाप किया, पति- पुद-पप्मका ध्यान किया और झटपट काला  मारकर वह समुद्रंम कूद पही । है  | राक्षसी पुरुष-अकृति | तेरे अत्याचार से कितनी अवलाएँ यों आत्मघात करती होंगी ! 

सहूकार थोड़ी देरमें तीन चार आदमियों सहित वापिस आया, मगर वहों सुरझुंदरी नहीं थी। उसने चारों तरफ देखा कहीं कुछ नहीं था, खिड़कीसे वाहर दृष्टिपात किया; 

समुद्रकी उत्ताल तर॑गो में सुरसुन्दरी इबूँ तिरूँ स्थितिमें पड़ी थी । उसने नाविकों को आज्ञा दी,--“ तत्काल ही किम्ती

उतारकर उसकी रक्षा करो। ” खासी अभी नोका उतार भी नहीं पाये थे कि, बढ़े जोर की ऑधी उठी | समुद्र श्ुब्ध हो गया। पहाड के तुल्य ऊँची २ तरंगें उठने लगी | इस तृफान में नौका स्थिर न रह सकी, उलट गयी और पापी साहूकार के साथ अनेक निर- पराध प्राणियों को भी उसने अत जल में विलीन कर दिया । सती के अपमान का बदला  हाथों हाथ मिल गया | आयुष्य कम जब तक समाप्त नहीं हो जाता तव तक जीवनडोरी नहीं टूटती  । सुरसुंदरी की आयु अभी वाकी थी,

उसे अभी संसारके दुःख सुख देखने थे, इसलिए उसके हार्मे झटे जहाज की लकङी  का एक तख्ता आ गया और  उसी के सहारे  वह तैरने  लगी,--सपुद्र के थपेङो  में  बहने लगी।

खुरसन्दरी - परिचित राजसुता- आज अनन्त समुद्र तर रही है; कहीं किनारा नहीं दीखता -हाथ परों की शक्ति क्षीण हे रही है, तो  मन में आशा नहीं छूटती | वह जीवनकी रक्षा करना चाहती है, उसे जीवनको सार्थक बनाना है, स्वामी की वॉधी हुई सात कौंड़ियों अब भी उसके पढ़े वेंधी हुई हैं, उसे उन्हीं सात कोद़ियोंसे राज्य आप्त करके अपने स्वामीका दशेन करना है। 

इसी आशाकों छेकर वह जहाँ तक वर था, हाथ पेर मारती रही, अन्तमें निवेछता और अत्यंत थकानके कारण उसे मूच्छों आगई और बह सप्मुद्रकी तरंगोंमें हृवने-निकलने लगी।

एक जहाज उधर होकर आंगे जा रहा था। उसके स्वामीने  सुरसुंदरीको देखा | उसने तत्काल है आदमियोंकों भेज- कर उसे निकलूवा लिया। वैध्यने उसको देखकर कहा कि, अभी प्राण वाकी हैं। जहाजके स्वामीकी दासियोंने उसको सूखे कपड़े पहनाये ओर वैद्यकी छूचनाके अनुसार वे उसकी शुभृषा करने लगीं | उसकी मूछों टूटी । उसने ऑखें खोलीं; अपने को जहाजके एक सुंदर कमरेंमें देखा; अपने आपको अपरिचित स्त्रियो से घिरा पाया; क्षीण सवर में पूछा।--“में कहाँ हूँ ” दासियोंने कह कोई चिन्ता नहीं है बहन ! तुम  सुरक्षित स्थानमें हो |”

सुरमुन्दरी ने फिरसे अंखिं वंद कर लीं | उसे धीरे धीरे एक एक करके सारी बातें याद आई | उसने पूछा।--“में समुद्र गिरी थी, मुझे वापिस किसने निकाली”  एक दासीने कहा--“ हमारे मालिक ने आपको निकलवाया है। ” सपुद्रकी सतह पर जहाज पाल उड़ाता हुआ चला जा रहा  था; 

सूर्य अस्त हो चुका था; उसकी पिछली छालिमासे जहाजके  पाक और समुद्रका जल छाल हो रहे थे। सुरसुन्दरी अब स्वस्थ हो गई थी। वह प्रतिक्मण करनेके लिए आसन विछा- कर बैठना चाहती थी इसी समय जहाजके स्रामीने उस कमरे आकार प्रवेश किया। सुरसुन्दरीने प्रणमकर कहा।--

 मैं प्रतिक्रमण करने बेठती हूँ । ” जहाजका स्वामी वोला।--“ सुरसुन्दरी | इस आयु यह वैराग्य क्या कामका है ? मनुष्य-जन्म वड़ी कठिनतासे मिलता है। इसको योंहां उदासीनताके साथ, एक वेरागीकी तरह, एक दरिद्वीकी भोति, एक केदीकी नाई, खो न देना चाहिए। इसका सार आनंद, उछास, भोग और प्रेमका आदान प्रदान है।

प्रतिक्रमणकी आवश्यकता पाप करनेके वाद, भोग भोगनेके पथ्ात्‌, इन्द्रियोंकी शक्तिका हास होनेके वाद, जीवन-पूणे लाहसा नह हो जानेको स्थितिमें होती है। अभी नहीं। पाप- रुपी मेलके चढ़े विना, प्रतिक्रणण रूपी साबुनसे धोओगी

किसे  सुरसुन्द्रीने कह- में तुमसे उपदेश सुनना नहीं चाहती । ” 

तब मेरी आज्ञा सुनना चाहती हो कुछ भी नहीं। ! प्राण बचाया उसका यह बदला ? एक तुच्छ सी वात भी प्राण के बदले में नहीं हे सकती  ! 

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रचनाएँ
सुरसुन्दरी
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सुरसुन्दरी नारी होकर तेरे यह भाव सराहनीय है पुरुष धर्म कठोरता है तो नारी का धर्म कामनीयता और कोमलता है तो स्त्री धर्म दया है पुरुष का धर्म उठना है तो स्त्री धर्म सर्वज्ञान है इन विरोधी गुटों के बीच नारी वास्तविक रूप कैसे प्रकट हो सकता है जो पति स्नेह और आदर करता है उससे तो भक्ति और प्रेम सभी स्त्रियां करती हैं यह तो एक साधारण बात है स्त्री वास्तविक रूप तो उस समय प्रकट होता है जब स्त्री अपने निर्णय पति की मार खाकर भी उन पैरों की पूजा करती है जो उसकी पीठ पर छाती पर या अनंत निर्दयता पूर्वक गिरते हैं इसी से उसका वास्तविक नारी रूप पति रूप देवी रूप जगत नारायण रूप प्रकट होता है मैं भी नारी हूं वास्तविक अर्थ में नारी रहूंगी |
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सुरसुंदरी भाग 1

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“ छिः ! सुरसुंदरी ! नारी होकर तेरे भाव ! पुरुषका धर्म कठोरता है तो नारी का धर्म कमनीयता और  कोमलता है । पुरुषका  कार्य  निर्दयता है तो ख्रीका धर्म दया है । | पुरुषका धर्म छूटना है तो ख्लीका धर्म सर्वे

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भाग 2

26 अगस्त 2022
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द्वीप  गोलाकार है । इसका घेर तीन ढाख योजनका हैं। इसीमें चम्पा नामकी एक सुन्दर, रम्ये, धनपान्यपृणे नगरी थी । इसके अन्दर रहने वाले सभी सुखी थे, उस नगरीके राजाका नाम रिपुयंदेन था। बह अपने देशवासियां- का

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भाग 3

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वहुत सोच विचार के वाद दोनों ने यही स्थिर किया कि, अपरकुमार के साथ सुरसुंदरी का व्याह कर दिया जाय। अमरकुमार के पिता धनावह बुलाये गये | राजा ने उनका बड़ा आदर सत्कार किया और अपने मनकी वात कही | धनावह सर्

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भाग 4

27 अगस्त 2022
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तब माताने कहाः--“ बेटी, संसार नारी के लिए पति से  बढ़कर  और कोई नहीं है। पतिं के हृदय कों प्रफुलित रखना ही स्त्री का का सबसे बड़ा कर्तव्य है। पतिकी भूलकों न देख उसके गुणों में लीन होना और उसकी दुर्बलता

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भाग 5

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सुरसंंदरी जागी, उठी, अंखें मढीं, आसू  पोछा  और इधर उधर देखने लगी | कोई दिखाई नहीं दिया। बेठी थी खड़ी हो गई और वक्षों में यहाँ वहाँ खोजने लगी; मगर अमरकुमार कई नहीं दीखा। वह घबरा भयसे हृदय धढ़कने लगा,मु

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भाग 6

27 अगस्त 2022
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 तब तुम यहां आनन्द हो ? तुम्दें फिरसे मनुष्य-समाज में जानेकी इच्छा नहीं है ” सुरसतुन्दरीके हृदयमें बढ़ा आन्दोलन उठा | वह कुछ क्षण  पृथ्वी की ओर देखती रही |  फिर जरा सिर उठाकर बोली इस भयानक वनमें, खग-म

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भूख  जिससे स्त्रीका जीवन है, जिसके कारण स्त्री सिर ऊँचा करके चल सकती है, जिसके कारण ग्रह सगे है, जिसके कारण स्त्री देवी कहलाती है, जिसके कारण उसे सर्वोपरि स्थान मिला है, मिसके प्रभावलसे सारा संसार स्त

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भाग 9

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पिछली रात के सन्नाटे मे किसी ने आकर उस कमरे के किवाड़, जिसमें सुरसुन्दरी आकाश पाताल की बातें सोच रही थी, धीरे से खटखटया  |  सुरसुन्दरी ने दरवाजा खोल दिया | नवयुवती अन्दर आईं। उसके हाथ एक रस्सा था। वह

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भाग 10

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 पैरो में काटे और कंकर चुभते हैं | उनसे रक्त निक्रलता हैं | पैर लह लहूलुहान हो गये हैं | कर्म की गति विचित्र हैं। भगवान ऋषभदेवको एक वरस तक अहार न मिला; महावीर स्वामीके कानों में कीलियों ठुकीं--आमरण कए

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भाग 11

27 अगस्त 2022
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उसने सात कौड़ियों के चने खरीदे । उन्हें लेकर वह शहर के बाहर जा वेठी | पहले दिन उसको तीन कोड़ियों का नफा रहा । दूसरे दिन भी इसी तरह चने लेकर गई। पाँच कौड़ियों- का नफा हुआ ! धीरे धीरे उसका व्यापार बढ़ा

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